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आखिर कैसे जूते के तल्ले ने खोल के रख दी अमेरिका की पोल

    • हिमांशु सिंह
    • Updated: 05 दिसम्बर, 2018 07:50 PM
  • 05 दिसम्बर, 2018 07:50 PM
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अमेरिका का मिशन मून चर्चा में है. कहा जा रहा है कि यह एक फर्जीवाड़ा था जो 1961 के सोवियत संघ के उस अन्तरिक्ष मिशन का जवाब देने के लिये रचा गया था जिसमें सोवियत नागरिक यूरी गागरिन प्रथम अंतरिक्ष यात्री बना था.

जनरल नॉलेज के छुटभैये जानकारों के बीच सबसे मशहूर तथ्य चांद पर सबसे पहले पहुंचने वाले इंसान का नाम जानना प्रतिष्ठा का विषय होता है. यानी अगर आपको नहीं पता कि 1969 में अमेरिकी अंतरिक्ष यान अपोलो से पहली बार चांद पर कदम रखने वाला इंसान एक अमेरिकी नागरिक नील आर्मस्ट्रांग था, तो समाज में आपका होनहार, काबिल, जागरुक और मेधावी समझा जाना बड़ा कठिन है. बड़ी सम्भावना है कि आपकी इस अज्ञानता को आपकी आवारगी का प्रमाणपत्र मानकर आपको 'साथ चाय न पीने लायक' भी समझा जाने लगे.

बताया जा रहा है कि नील आर्मस्ट्रांग की चांद की यात्रा फर्जी थी

डरिये मत, अगर आपको अब तक ये ब्रह्मतथ्य नहीं पता था, तो अगली पंक्ति पढ़कर आप राहत की सांस ले सकते हैं. खबर ये आ रही है कि 1969 में अमेरिका का अपोलो मिशन दरअसल एक फर्जीवाड़ा था जो 1961 के सोवियत संघ के उस अन्तरिक्ष मिशन का जवाब देने के लिये रचा गया था जिसमें सोवियत नागरिक यूरी गागरिन प्रथम अंतरिक्ष यात्री बना था. हालांकि अमेरिका के अपोलो मिशन के फर्ज़ी होने के आरोप नए नहीं हैं. 2001 में तो फॉक्स टेलीविजन ने अमेरिका के इस कथित फर्ज़ीवाड़े पर 'कॉन्स्पिरेसी थ्योरी, डिड वी लैंड ऑन द मून' नामक एक डॉक्यूमेंट्री भी बनाई थी.

इधर बीच कुछ लोग चंद्रमा पर नील आर्मस्ट्रांग के पैरों के निशान और उनके स्पेस सूट के जूतों के मेल न खाने को अमेरिकी फर्ज़ीवाड़े का पर्दाफाश बता रहे हैं. गौर करने वाली बात है कि अपोलो मिशन अमेरिका का इकलौता अन्तरिक्ष मिशन नहीं है. पर सभी आरोप अगर इसी मिशन पर लगे हैं तो दाल में कुछ काला जरूर है.

अमेरिका का ये फर्ज़ीवाड़ा कॉन्स्पिरेसी थ्योरी का शानदार उदाहरण है और इस थ्योरी का ध्येय-वाक्य और मूल तत्त्व है-- 'You know what you know, but you don't know what you don't know'( आप उतना ही जानते हैं जितना आपको...

जनरल नॉलेज के छुटभैये जानकारों के बीच सबसे मशहूर तथ्य चांद पर सबसे पहले पहुंचने वाले इंसान का नाम जानना प्रतिष्ठा का विषय होता है. यानी अगर आपको नहीं पता कि 1969 में अमेरिकी अंतरिक्ष यान अपोलो से पहली बार चांद पर कदम रखने वाला इंसान एक अमेरिकी नागरिक नील आर्मस्ट्रांग था, तो समाज में आपका होनहार, काबिल, जागरुक और मेधावी समझा जाना बड़ा कठिन है. बड़ी सम्भावना है कि आपकी इस अज्ञानता को आपकी आवारगी का प्रमाणपत्र मानकर आपको 'साथ चाय न पीने लायक' भी समझा जाने लगे.

बताया जा रहा है कि नील आर्मस्ट्रांग की चांद की यात्रा फर्जी थी

डरिये मत, अगर आपको अब तक ये ब्रह्मतथ्य नहीं पता था, तो अगली पंक्ति पढ़कर आप राहत की सांस ले सकते हैं. खबर ये आ रही है कि 1969 में अमेरिका का अपोलो मिशन दरअसल एक फर्जीवाड़ा था जो 1961 के सोवियत संघ के उस अन्तरिक्ष मिशन का जवाब देने के लिये रचा गया था जिसमें सोवियत नागरिक यूरी गागरिन प्रथम अंतरिक्ष यात्री बना था. हालांकि अमेरिका के अपोलो मिशन के फर्ज़ी होने के आरोप नए नहीं हैं. 2001 में तो फॉक्स टेलीविजन ने अमेरिका के इस कथित फर्ज़ीवाड़े पर 'कॉन्स्पिरेसी थ्योरी, डिड वी लैंड ऑन द मून' नामक एक डॉक्यूमेंट्री भी बनाई थी.

इधर बीच कुछ लोग चंद्रमा पर नील आर्मस्ट्रांग के पैरों के निशान और उनके स्पेस सूट के जूतों के मेल न खाने को अमेरिकी फर्ज़ीवाड़े का पर्दाफाश बता रहे हैं. गौर करने वाली बात है कि अपोलो मिशन अमेरिका का इकलौता अन्तरिक्ष मिशन नहीं है. पर सभी आरोप अगर इसी मिशन पर लगे हैं तो दाल में कुछ काला जरूर है.

अमेरिका का ये फर्ज़ीवाड़ा कॉन्स्पिरेसी थ्योरी का शानदार उदाहरण है और इस थ्योरी का ध्येय-वाक्य और मूल तत्त्व है-- 'You know what you know, but you don't know what you don't know'( आप उतना ही जानते हैं जितना आपको पता है ....)

इस थ्योरी की समझ हमें बकायदा एक पीढ़ी आगे ले जाने में सक्षम है.और हमें ये बताने में सक्षम है कि भविष्य में जिन मान्यताओं और नीतियों के आधार पर नीति-निर्माता पूरी आबादी के विचारों को प्रभावित करेंगे और उनके लिये नियम बनायेंगे, वे नीतियां और मान्यताएं कैसे गढ़ी जाती हैं और उनकी जमीन कहां तैयार होती है.

ये कॉन्स्पिरेसी थ्योरी मेरे ज़हन में ऐसा घर कर गयी कि मैं इससे उबर नहीं पा रहा हूं. इसका असर ये है कि आप किसी भी श्रेणी का स्थापित सत्य मुझसे बोल कर देखिये, मैं उस सत्य पर से आपका भरोसा डिगा सकता हूं.

कहा जा रहा है कि अमेरिका के मिशन मून का उद्देश्य सोवियत संघ के अन्तरिक्ष मिशन का जवाब देना था

मसलन, अगर आप मुझसे कहते हैं कि स्विट्ज़रलैंड दुनिया की सबसे खूबसूरत जगह है, तो मैं झट से बोल दूंगा कि दरअसल ऐसा नहीं है... उनके कैमरे और फोटोग्राफी दुनिया में सबसे ज्यादा उन्नत हैं, वरना हमारा कश्मीर भी किसी से काम सुन्दर नहीं है. बस लड़कों ने कैमरे की जगह बंदूकें थाम ली हैं.

भरोसा न हो तो कोई वैज्ञानिक तथ्य ही बोल कर देख लीजिये. कह कर देख लीजिये कि पोटैशियम सायनाइड दुनिया का सबसे खतरनाक ज़हर है, इंसान खाते ही निपट जाता है, स्वाद भी नहीं जान पाता, और मेरा जवाब तैयार रहेगा कि "काहे का खतरनाक, तब तो ये दुनिया का सबसे लक्ज़रियस ज़हर हुआ न..!'

इस थ्योरी के ज्ञान ने ज़िन्दगी में ज़हर घोल रखा है. आखिर संशय की भी एक सीमा होती है. हर बार चाहता हूं कि अपने इस संशयवाद पर लगाम लगाऊं अब. ज़िन्दगी को आसान बनाऊं अब, पर तभी कोई अजीब सा दावा मेरे कानों में पड़ता है, और मैं तिलमिला उठता हूं.

आप ही बताइये, मैं कैसे मान लूं कि सबसे खूबसूरत प्रेमपत्र अमृता और इमरोज़ के दरमियान लिखे गए? मैं दावा करता हूं कि दुनिया के सबसे खूबसूरत प्रेमपत्र दीमक भले चाट जाएं, या चाहे जला दिए जाएं , पर वो कभी किसी मुद्रक के हाथ नहीं लग सकते. असल में हम जिन औसत चीजों के प्रमाण पाते हैं, उन्हें ही सर्वोत्तम मान लेना चाहते हैं. वरना क्या ये संभव नहीं कि सबसे खूबसूरत प्रेमपत्र अप्रेषित ही रह गए हों ...

दर्शन या ज्ञान के मामलों में किये जाने वाले दावों को भी मैं सदा नकारता ही रहा हूं. मेरे तर्क बड़े ही साधारण हैं. आप ही बताइये, क्या ये सच में असंभव है कि हम अब तक के महानतम दर्शन को सिर्फ इसलिए न जान पाए हों कि उसके असल दार्शनिक को अपने दर्शन की अनुभूति के बाद उसको व्यक्त करना ही बचपना लगा हो. और इसके चलते हम कुछ औसत किस्म की अनुभूतियों को ही दर्शन की चरम अवस्था मान रहे हों.

आखिर ये कैसे संभव है कि एक आला दर्जे का व्यंग्यकार पारसाई जी जैसा लम्बा जीवन जिए? क्या ये संभव नहीं कि सबसे अच्छे व्यंग्यकार को व्यंग्य लिखने से पहले व्यंग्य करने के चलते किसी अँधेरी गली में चाकुओं से गोदकर मार डाला गया हो?

ये जो कुछ भी मैंने यहां लिखा, वस्तुतः असंतुष्ट इंसान को संतुष्ट सूअर से श्रेष्ठ मानने की नकली बौद्धिकता और विचारों को रेगुलेट करने की साज़िश के विरुद्ध मेरी आवाज़ है. और संभव तो ये भी है कि मेरा ये लेख किसी की कॉन्स्पिरेसी का ही हिस्सा हो ? यही तो असल कॉन्स्पिरेसी है. बाकी ज्ञानी तो यहां सभी हैं ही.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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