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पुलिस की लाठी का असर तुम क्‍या जानो...

    • हिमांशु सिंह
    • Updated: 19 नवम्बर, 2019 09:55 PM
  • 19 नवम्बर, 2019 08:48 PM
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लाठी ही इस दौर का सत्य है. भूख, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य. साफ़ खाना, स्वच्छ पानी जनता की मांग कुछ भी हो सरकारें उन्हें या तो अनसुना कर रही हैं या फिर उन्हें लाठी देकर उनकी मांगों को खारिज कर दे रही हैं.

कभी पुलिस की लाठी (JN Protest LathiCharge) खाये हैं? एक के बाद दूसरी फिर तीसरी फिर चौथी. देखने वालों को लगता है कि लाठी खा रहा आदमी दर्द से तड़प रहा होगा, लेकिन सच्चाई ये है कि तीसरी लाठी पड़ने के बाद लाठी खाने वाले को कुछ भी महसूस नहीं होता. पीछे का हिस्सा सुन्न पड़ जाता है. पिट रहे आदमी को भी बस लाठी की आवाज़ ही सुनाई देती है. कई मर्तबा तो खुद उसे भी भरोसा नहीं होता कि ये उसके अपने नितंबों की आवाज़ है. उसकी चीख तो बस डर के मारे निकल रही होती है कि, 'हाय! मुझे पुलिस पीट रही है.' पिटने वाला अगर अनुभवी हुआ तो वो ज्यादा तेज़ आवाज़ें निकालकर पुलिसवालों (Delhi Police) पर मनोवैज्ञानिक बढ़त लेना चाहता है कि, 'देखो, कितना ज़ोर से पीटा तुमने, अब थाने ले जाने की कोई जरूरत नहीं है, मैं अपने किये की सज़ा यहीं पा चुका हूं, इंसाफ़ हो चुका है.' पर ये तरकीब कभी-कभी ही काम आती है. पुलिस की लाठियों का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव तो पहली लाठी के साथ ही शुरू हो जाता है, पर इसका शारीरिक प्रभाव कुछ घंटों के बाद शुरू होता है और ताउम्र पुरवाई चलने पर अपनी याद दिलाता ही रहता है.

लाठी ट्रेंड में है, सरकार यही प्रयास कर रही है कि जब जनता कुछ मांगे उसे लाठी से हांक दो

बात अगर लाठी की करें, तो लाठी हमारी सामाजिक परंपरा का हिस्सा है, जबकि लाठीचार्ज हमारी राजनीतिक परंपरा का हिस्सा. सैकड़ों सालों से हमारे बुज़ुर्ग लाठी के गुण गाते रहे हैं. मेरे बाबा कहते भी थे-

लाठी में गुण बहुत हैं, सदा राखिए संग,

गहिर नदी नारा जहाँ, तहां बचावै अंग.

तहां बचावै अंग, झपटि कुत्ता कहं मारै,

दुश्मन दावागीर होंय, तिनहू को झारै.

कह गिरिधर कविराय, सुनो हो दूर के...

कभी पुलिस की लाठी (JN Protest LathiCharge) खाये हैं? एक के बाद दूसरी फिर तीसरी फिर चौथी. देखने वालों को लगता है कि लाठी खा रहा आदमी दर्द से तड़प रहा होगा, लेकिन सच्चाई ये है कि तीसरी लाठी पड़ने के बाद लाठी खाने वाले को कुछ भी महसूस नहीं होता. पीछे का हिस्सा सुन्न पड़ जाता है. पिट रहे आदमी को भी बस लाठी की आवाज़ ही सुनाई देती है. कई मर्तबा तो खुद उसे भी भरोसा नहीं होता कि ये उसके अपने नितंबों की आवाज़ है. उसकी चीख तो बस डर के मारे निकल रही होती है कि, 'हाय! मुझे पुलिस पीट रही है.' पिटने वाला अगर अनुभवी हुआ तो वो ज्यादा तेज़ आवाज़ें निकालकर पुलिसवालों (Delhi Police) पर मनोवैज्ञानिक बढ़त लेना चाहता है कि, 'देखो, कितना ज़ोर से पीटा तुमने, अब थाने ले जाने की कोई जरूरत नहीं है, मैं अपने किये की सज़ा यहीं पा चुका हूं, इंसाफ़ हो चुका है.' पर ये तरकीब कभी-कभी ही काम आती है. पुलिस की लाठियों का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव तो पहली लाठी के साथ ही शुरू हो जाता है, पर इसका शारीरिक प्रभाव कुछ घंटों के बाद शुरू होता है और ताउम्र पुरवाई चलने पर अपनी याद दिलाता ही रहता है.

लाठी ट्रेंड में है, सरकार यही प्रयास कर रही है कि जब जनता कुछ मांगे उसे लाठी से हांक दो

बात अगर लाठी की करें, तो लाठी हमारी सामाजिक परंपरा का हिस्सा है, जबकि लाठीचार्ज हमारी राजनीतिक परंपरा का हिस्सा. सैकड़ों सालों से हमारे बुज़ुर्ग लाठी के गुण गाते रहे हैं. मेरे बाबा कहते भी थे-

लाठी में गुण बहुत हैं, सदा राखिए संग,

गहिर नदी नारा जहाँ, तहां बचावै अंग.

तहां बचावै अंग, झपटि कुत्ता कहं मारै,

दुश्मन दावागीर होंय, तिनहू को झारै.

कह गिरिधर कविराय, सुनो हो दूर के बाठी,

सब हथियारन छांड़ि, हाथ मंह लीजे लाठी.

ऐसे में समझना कठिन नहीं है कि लाठी तो निमित्त मात्र है. आगे झाड़ू बांध दो तो स्वच्छ भारत अभियान का हथियार बन जाये, हैरी पॉटर को दे दो तो पैरों के बीच रखकर सांय से उड़ जाये, और यूपी पुलिस को मिल जाये तो पैरों के बीच में फंसाकर दौड़ जाए, और पूछने पर बता दे कि घुड़सवारी कर रहे थे भाई.

खैर, अंग्रेजों से हमने तमाम चीजें सीखीं और पायीं. रेलवे और सिविल सर्विसेज़ के बाद जो तीसरी सबसे उपयोगी चीज हमें उनसे विरासत में मिली, वो और कुछ नहीं, लाठीचार्ज की टेक्निक थी. आज़ादी से पहले तो हम पीटे ही जाते थे, आज़ादी के बाद हमारे ही बीच से निकले काले अंग्रेजों ने फिर से हमें पीटा, और पीटते ही जा रहे हैं.

जब भी हम कहते हैं कि हमें हवा साफ चाहिए, पीटे जाते हैं. पानी साफ चाहिए, पीटे जाते हैं. पढ़ाई सस्ती चाहिए, पीटे जाते हैं.खेती में मुनाफ़ा चाहिए, पीटे जाते हैं. और तो और, अस्पतालों में बदइंतजामी को लेकर सरकारें इतनी लापरवाह हो गयीं हैं कि इस मुद्दे पर वो अब हमें पीटती भी नहीं हैं. हवा, पानी, भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, हर सवाल का एक ही जवाब है- लाठीचार्ज.

लेकिन ठीक है. सरकारों की अपनी मजबूरियां होती हैं. सरकारों की अपनी जिम्मेदारियां होती हैं. वो बस अपनी आवाम को मुफ्तखोर बनने से रोक रहीं हैं. आखिर हर चीज की एक कीमत होती है, और कीमत चुकाए बिना मिली हर चीज की बेकद्री होती ही है.

इतिहास गवाह है, हर वो चीज जिसकी हमें जरूरत महसूस हुई, वो राज्य के पास जाने कब से गिरवी रखी मिली. आज भी, राज्य के पास जाने कौन सा जादू का पिटारा रहता है, जिसमें जनता के हित की सारी चीजें बंद रहती हैं. ये जादुई पिटारा किसी सैडिस्ट ईश्वर की तिजोरी की तरह होता है, जो खुलने के लिए कभी प्रजा का, तो कभी राजा का खून चढ़ावे में मांगता है.

मध्यकाल के यूरोप से लेकर आधुनिक काल के हांगकांग तक, विदर्भ के किसानों से लेकर जेएनयू और बीएचयू के विद्यार्थियों तक, सभी को समानता, लोकतंत्र, न्यूनतम समर्थन मूल्य और सस्ती शिक्षा के लिए खून बहाना पड़ा है और आगे भी बहाना पड़ेगा. लाठी खानी होगी, गोली खानी होगी, जेल जाना होगा, और तब.... तब जाकर वो जादुई पिटारा खुलेगा.

बाकी, मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि लाठी खाते किसान और विद्यार्थी देश की लोक-कल्याणकारी छवि पर बट्टा तो लगा ही रहे हैं. और सच्चाई ये है कि देश-दुनिया की अधिकांश आबादी उन गैर-संवेदनशील लोगों की भीड़ बन चुकी है जिसे केले के छिलके पर फिसलते व्यक्ति पर ठहाके लगाने की फुरसत तो है, पर उसे उठाना उनका काम नहीं है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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