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गांव में दारू ही दारू, दवा गायब

    • आर.के.सिन्हा
    • Updated: 06 नवम्बर, 2016 12:39 PM
  • 06 नवम्बर, 2016 12:39 PM
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भले ही देश अपने चौतरफा विकास पर इतराए, पर सबको स्तरीय स्वास्थ्य सुविधाएं देने के मोर्चे पर हमें अभी लंबी यात्रा को तय करनी है. गांवों में दारू तो पहुंच रही है, पर दवा नहीं.

भले ही देश अपने चौतरफा विकास पर इतराए, पर सबको स्तरीय स्वास्थ्य सुविधाएं देने के मोर्चे पर हमें अभी लंबी यात्रा को तय करनी है. गांवों में दारू तो पहुंच रही है, पर दवा नहीं. गांवों में साबुन, शैंपू,  टूथपेस्ट खरीदे जा रहे हैं, लेकिन दवा न खरीदी जा रही है, न ही उपलब्ध है. ग्रामीण भारत की सेहत सच में डराती है. क्रोम डाटा एनेलिटिक्स एंड मीडिया के एक हालिया सर्वे में ये तथ्य सामने आए हैं. गांव के रोगी यूं ही चले जा रहे हैं. चूंकि गांवों में कायदे से दवा पहुंच ही नहीं पा रही है, जो पहुँच भी रही है वह ज्यादातर नकली है तोबेचारे ग्रामीण झोलाछाप डाक्टरों के भरोसे ही रहने को मजबूर हैं. वे भी नामवर कंपनियों की ही नकली दवाएं बेच रहे हैं.

राजधानी दिल्ली को तो बीते दिनों चिकनगुनिया और डेंगू जैसे नए दौर के रोगों ने अपनी चपेट में ले लिया था.  हर दूसरे घर में इन नामुराद रोगों के रोगी थे. हालत काबू से बाहर हो रहे थे. तो जरा सोच लें कि जब राजधानी की यह हालत है तो भला गांवों वालों की कौन सुध लेगा?

ये भी पढ़ें- क्या ये विवादास्पद रिपोर्टिंग बैन करने लायक है?

कुलांचे भरता...

इसके साथ ही सर्वे ने दावा किया कि ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य सुविधाएं नाम के लिए  ही मौजूद हैं. इसलिए रोगी की हालत खासी बिगड़ने पर ही उसे किसी शहर के अस्पताल में इलाज के लिए लेकर जाया जाता है. और अब देखिए, एक दूसरा पहलू. देश का हेल्थकेयर सेक्टर 15 फीसद की सालाना रफ्तार से कुलांचे भर है. पर इसका लाभ वह अभागा हिन्दुस्तानी नहीं पा रहा है, जो गांवों में रहने को अभिशप्त है. वे गांव जो विकास से कोसों दूर बसते हैं. नए-नए प्राइवेट अस्पताल सिर्फ शहरों के लिए हैं. वहां पर तमाम सुविधाएं हैं. बेहतर डाक्टर और स्तरीय टेस्ट की सुविधाएं उपलब्ध हैं. मुझे आप किसी बड़े अस्पताल समूह का नाम...

भले ही देश अपने चौतरफा विकास पर इतराए, पर सबको स्तरीय स्वास्थ्य सुविधाएं देने के मोर्चे पर हमें अभी लंबी यात्रा को तय करनी है. गांवों में दारू तो पहुंच रही है, पर दवा नहीं. गांवों में साबुन, शैंपू,  टूथपेस्ट खरीदे जा रहे हैं, लेकिन दवा न खरीदी जा रही है, न ही उपलब्ध है. ग्रामीण भारत की सेहत सच में डराती है. क्रोम डाटा एनेलिटिक्स एंड मीडिया के एक हालिया सर्वे में ये तथ्य सामने आए हैं. गांव के रोगी यूं ही चले जा रहे हैं. चूंकि गांवों में कायदे से दवा पहुंच ही नहीं पा रही है, जो पहुँच भी रही है वह ज्यादातर नकली है तोबेचारे ग्रामीण झोलाछाप डाक्टरों के भरोसे ही रहने को मजबूर हैं. वे भी नामवर कंपनियों की ही नकली दवाएं बेच रहे हैं.

राजधानी दिल्ली को तो बीते दिनों चिकनगुनिया और डेंगू जैसे नए दौर के रोगों ने अपनी चपेट में ले लिया था.  हर दूसरे घर में इन नामुराद रोगों के रोगी थे. हालत काबू से बाहर हो रहे थे. तो जरा सोच लें कि जब राजधानी की यह हालत है तो भला गांवों वालों की कौन सुध लेगा?

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कुलांचे भरता...

इसके साथ ही सर्वे ने दावा किया कि ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य सुविधाएं नाम के लिए  ही मौजूद हैं. इसलिए रोगी की हालत खासी बिगड़ने पर ही उसे किसी शहर के अस्पताल में इलाज के लिए लेकर जाया जाता है. और अब देखिए, एक दूसरा पहलू. देश का हेल्थकेयर सेक्टर 15 फीसद की सालाना रफ्तार से कुलांचे भर है. पर इसका लाभ वह अभागा हिन्दुस्तानी नहीं पा रहा है, जो गांवों में रहने को अभिशप्त है. वे गांव जो विकास से कोसों दूर बसते हैं. नए-नए प्राइवेट अस्पताल सिर्फ शहरों के लिए हैं. वहां पर तमाम सुविधाएं हैं. बेहतर डाक्टर और स्तरीय टेस्ट की सुविधाएं उपलब्ध हैं. मुझे आप किसी बड़े अस्पताल समूह का नाम बता दें जिसने किसी गांव में डिस्पेंसरी भी खोली हो.

 सांकेतिक फोटो

चांदी झोलाछापों की...

आप किसी गांव में चले जाएं. आपको एक जैसा नजारा ही देखने को मिलेगा. कुछ झोलाछाप डाक्टर मरीजों को देख रहे होते हैं और तो और, राजधानी दिल्ली के गांवों में भी कायदे के डाक्टर नहीं हैं. दिल्ली में करीब 300 से अधिक गांव और शहरीकृत गांव हैं. साफ है कि हम अपने गांवों में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचा पाने में अबतक नाकामयाब ही रहे. वैसे तो हमारे देश में समूचे हेल्थ सेक्टर की हालत डामाडोल ही है। भारत में डॉक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ की भारी कमी है. देश में हर साल एक लाख नए डॉक्टरों की जरूरत है, जबकि मिल पा रहे हैं महज 35 हजार. इस कमी को दूर करने के लिए तुरंत बड़ी पहल करनी होगी. क्या कोई कर रहा है? फिलहाल तो नहीं लगता. अब विलंब के लिए वक्त नहीं बचा है. अब बड़े कदम उठाने ही होंगे. हेल्थ रिसर्च पर भी फोकस देने की जरूरत है. हालांकि भारत में डा. रेड्डीज से लेकर सन फार्मा समेत कई विश्वस्तरीय दवा कंपनियां है. इनका सालाना कारोबार अरबों रुपए का  है, लेकिन इनका रिसर्च पर बजट खासा कम है. भारत सरकार और राज्य सरकारों को इस तरफ भी तो फोकस करना होगा.

बड़ा अनुसंधान नहीं...

दुर्भाग्य से हमारे देश में हेल्थ रिसर्च क्षेत्र में कोई बड़ा अनुसंधान नहीं हो पाता. इन सबके चलते गांवों में रहने वालों को स्तरीय स्वास्थ्य सुविधा कतई नहीं मिल पाती. इन नामवर कंपनियों को अपनी दवाओं को गांवों में भी पहुंचाना होगा. अभी तो बड़ी कंपनियों की नकली दवाएं ही धड़ल्ले से गांवों में बिकती हैं और उनके दुष्प्रभाव से प्रतिवर्ष हजारों जानें जाती हैं.

मुझे कुछ  समय पहले मेरे एक प्रख्यात डाक्टर मित्र बता रहे थे कि उत्तर प्रदेश में तो नकली दवाओं का बाजार लगातार बढ़ता ही जा रहा है. इन पर कोई रोक-टोक नहीं है. एक अनुमान के मुताबिक, देश में बिकने वाली कुल दवाओं में से 25 से 30 फीसदी नकली हैं. सिर्फ़ पैकिंग से नकली दवाओं की पहचान कर पाना कठिन है. सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि नकली दवाओं में बीमारी दूर करने वाले तत्व असली दवा के मुकाबले बेहद कम होते हैं. भारत में छोटी-बड़ी 11 हजार दवा कंपनियां हैं जो हजारों ब्रैंड की दवाएं  बनाती हैं. माना जा रहा है कि वर्ष 2017 तक नकली दवाओं का कारोबार करीब सात खरब रुपए तक पहुंचने की उम्मीद है. ये गांवों में खासतौर पर खूब बिकती हैं.

 सांकेतिक फोटो

उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, चंडीगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली और नोएडा नकली दवाओं के बड़े हब के रूप में उभरे हैं. इस मामले में दक्षिण और उत्तर पूर्व के राज्य कुछ हद तक बेहतर हैं.  

कहने को नकली दवा बनाने या बेचने वालों के खिलाफ़ सख्त कार्रवाई के निर्देश हैं. ड्रग एक्ट के तहत दोषी को जुर्माने के साथ-साथ आजीवन कारावास की सज़ा भी सुनाई जा सकती है. पर मासूम लोगों को मौत बांटने वालों पर यह कार्रवाई पर्याप्त है क्या? सांकेतिक कार्रवाई भर हो जाती है.

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स्वस्थ भारत का निर्माण किए बगैर देश अपने को विकसित होने का दावा नहीं कर सकता. यदि लोग स्वस्थ होंगे तभी देश की तरक्की सुनिश्चित हो सकेगी, और चूंकि अब भी भारत गांवों में ही बसता है तो उनकी अनदेखी गंभीर साबित हो सकती है. बेशक, अभी तक सरकारें स्वास्थ्य क्षेत्र के ऊपर जो बजट खर्च करती आई हैं वह मांग के अनुसार तो नहीं होता. सरकारों को हेल्थ सेक्टर के लिए बजट बढ़ाने की जरूरत है, ताकि गांवों में  मरीजों को हर वो सुविधाएं उपलब्ध हों, जो कि एक निजी अस्पताल में उपलब्ध होती हैं. क्या ये बात किसी से छिपी हुई है कि हमारे गांवों में आपको कायदे की डिस्पेंसरी भी नहीं मिलती?  उनमें किसी स्तरीय मेडिकल कालेज से शिक्षित डाक्टर का होना तो असंभव बात है.

दिल्ली से लेकर पटना और भोपाल से लेकर चंडीगढ़ के अस्पतालों में रोगियों की भीड़ में आपको ग्रामीण रोगी ही मिलेंगे. मेरे पास दिल्ली आवास पर जितने भी पैरवीकार आते हैं, उनमें आधे से ज्यादा एम्स में मरीज दिखाने के लिए होते हैं. इनके पास बड़े शहरों में इलाज के लिए जाने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं हैं. सभी सियासी दल गांव और ग्रामीणों के हक में वादे-दावे करते नहीं थकते, लेकिन  क्या ये सच नहीं है कि इनके पास उस गांव वाले की सेहत को लेकर कोई योजना-परियोजना तक नहीं है?

कॉरपोरेट अस्पताल...

निश्चित रूप से देश में हेल्थ सेक्टर का बड़े पैमाने पर कॉरपोरेटीकरण हो रहा है, लेकिन इसका लाभ गांवों में नहीं हो रहा है. कॉरपोरेट अस्पताल सिर्फ महानगरों और बड़े शहरों में ही चल रहे हैं और इनमें भी तमाम तरह की गड़बड़ियां हैं. इनमें रोगी को सस्ता और सही इलाज नहीं मिल रहा. मरीज महंगे इलाज की वजह से जानें गवां रहे हैं. यदि किसी को कैंसर, किडनी, लीवर की समस्या हो जाए तो वह मृत्यु से समझौता करने को मजबूर है. इसलिए देश के हेल्थकेअर सेक्टर को दोबारा से समीक्षा कर के दिढ़ करने की जरूरत है. इसमें ग्रामीण भारत छूटना नहीं चाहिए.

अब यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या हेल्थ फॉर ऑल के लक्ष्य से हम चूक गए हैं. फिलहाल तो यही लगता है.

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तो क्या किया जाए ताकि देश की सेहत सुधर सके...

गांधी जी कहते थे,गांवों में जब तक शहरों जैसी सुविधाएं विकसित नहीं की जाएंगी, तब तक समग्र भारत का विकास नहीं होगा. महात्मा गांधी की इसी अवधारणा पर केंद्र से लेकर राज्य सरकारों को अपनी योजनाओं को तैयार करना होगा. सरकारों को उन डाक्टरों को प्रोत्साहित करना होगा ताकि वे गांवों में काम करने को लेकर उत्साह दिखाएँ. गांवों में जाने से कतराएं नहीं. इसके लिए जरूरी है कि गांवों तक में सड़कों का जाल बिछे. वहां पर भी नियमित बिजली आए, अच्छे स्कूल खुलें और दूसरी अन्य जरूरी सुविधाएं स्थापित की जाएं. मैं मानता हूं कि गांवों में जरूरी आधारभूत संरचना खड़ा करने के बाद ही वहां पर स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार मुमकिन है. चुनौती बड़ी है, पर असंभव तो नहीं है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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