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बिल्डर-बैंक और अथॉरिटी के बीच फंसे आम आदमी की बर्बादी तय है!

    • निधिकान्त पाण्डेय
    • Updated: 26 अगस्त, 2022 02:16 PM
  • 26 अगस्त, 2022 02:16 PM
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बिल्डर की करतूतों को आम इंसान को क्यों झेलना पड़ता है? क्यों बैंक ऐसे केस में बिल्डर से वसूली नहीं करता? क्यों हर बार आम आदमी पिसता चला जाता है? बिल्डर की देनदारी आखिर कब तय होगी? कब आम इंसान को इन परेशानियों से मुक्ति मिलेगी? होना तो ये भी चाहिए कि आम-बायर की सारी EMI वाला पैसा और तय समय के बाद वाले सारे समय का उसके किराये का पैसा भी बिल्डर को देना चाहिए.

जिंदगी की तीन बेसिक जरूरतें तो हम सभी को पता हैं– रोटी, कपड़ा और मकान. खाने-पीने और पहनने की चीजों का इंसान किसी न किसी तरह इंतजाम कर ही लेता है. लेकिन तीसरी और अहम जरूरत है आम आदमी का सपना.. अपना आशियाना.. और इसी सपने को हकीकत में बदलने में अगर तय समय से ज्यादा लग जाए यानी बिल्डर घर बनाने में देरी कर दे तो? तब तो मकान खरीदने वाले को दोहरी मार पड़ती है, रह रहे मकान के किराए और एक्स्ट्रा लोन की.. कभी-कभी तो बिल्डर को अवैध काम के कारण जेल जाना पड़ता है या वो आम आदमी के लोन लेकर जमा किए गए पैसों को लेकर फरार हो जाता है, या कई और कारणों से जब प्रोजेक्ट रुक जाए, तब क्या? तब तो बैंक वाले कस्टमर को कष्ट देकर मारने में ही लगे रहते हैं क्योंकि उन्हें अपने पैसे से मतलब होता है बिल्डर से नहीं... आखिर क्यों? मकान देते वक्त जो बैंक लीगल समेत पूरी पड़ताल करता है. उसके लिए भी कस्टमर यानी हमसे ही अलग से फीस भी लेता है वही बैंक, बिल्डर के प्रोजेक्ट छोड़कर भाग जाने की स्थिति में हम गरीब लोगों यानी आम इंसान के पीछे क्यों पड़ जाता है, क्यों आम आदमी के साथ कई केस में ऐसा भी होता है कि उसे घर तो मिलता नहीं लेकिन उसका पैसा बैंक को चुकाना पड़ता है और अधिकतर मामलों में कोई कानून उसकी ठीक से मदद नहीं कर पाता.

पहले होम लोन की ईएमआई फिर बिल्डर्स का धोखा आम आदमियों के सामने चुनौतियों का पहाड़ है

आम परिवार का ख्वाब होता है. एक सुंदर सा घर और अगर बहुत बड़ा नहीं तो एक छोटा सा मकान जो उनका अपना हो, किराये का नहीं. जहां रहते हुए वो इज्जत और शान के साथ कह सकें कि उस घर को उन्होंने अपनी मेहनत की कमाई से खरीदा है और सींच रहे हैं. यहां हमने सींचने की बात की तो क्यों? ये भी आपको बताते हैं. जितने लोग किस्मतवाले हैं, जिन्हें घर का पजेशन मिल गया और जहां बिल्डर...

जिंदगी की तीन बेसिक जरूरतें तो हम सभी को पता हैं– रोटी, कपड़ा और मकान. खाने-पीने और पहनने की चीजों का इंसान किसी न किसी तरह इंतजाम कर ही लेता है. लेकिन तीसरी और अहम जरूरत है आम आदमी का सपना.. अपना आशियाना.. और इसी सपने को हकीकत में बदलने में अगर तय समय से ज्यादा लग जाए यानी बिल्डर घर बनाने में देरी कर दे तो? तब तो मकान खरीदने वाले को दोहरी मार पड़ती है, रह रहे मकान के किराए और एक्स्ट्रा लोन की.. कभी-कभी तो बिल्डर को अवैध काम के कारण जेल जाना पड़ता है या वो आम आदमी के लोन लेकर जमा किए गए पैसों को लेकर फरार हो जाता है, या कई और कारणों से जब प्रोजेक्ट रुक जाए, तब क्या? तब तो बैंक वाले कस्टमर को कष्ट देकर मारने में ही लगे रहते हैं क्योंकि उन्हें अपने पैसे से मतलब होता है बिल्डर से नहीं... आखिर क्यों? मकान देते वक्त जो बैंक लीगल समेत पूरी पड़ताल करता है. उसके लिए भी कस्टमर यानी हमसे ही अलग से फीस भी लेता है वही बैंक, बिल्डर के प्रोजेक्ट छोड़कर भाग जाने की स्थिति में हम गरीब लोगों यानी आम इंसान के पीछे क्यों पड़ जाता है, क्यों आम आदमी के साथ कई केस में ऐसा भी होता है कि उसे घर तो मिलता नहीं लेकिन उसका पैसा बैंक को चुकाना पड़ता है और अधिकतर मामलों में कोई कानून उसकी ठीक से मदद नहीं कर पाता.

पहले होम लोन की ईएमआई फिर बिल्डर्स का धोखा आम आदमियों के सामने चुनौतियों का पहाड़ है

आम परिवार का ख्वाब होता है. एक सुंदर सा घर और अगर बहुत बड़ा नहीं तो एक छोटा सा मकान जो उनका अपना हो, किराये का नहीं. जहां रहते हुए वो इज्जत और शान के साथ कह सकें कि उस घर को उन्होंने अपनी मेहनत की कमाई से खरीदा है और सींच रहे हैं. यहां हमने सींचने की बात की तो क्यों? ये भी आपको बताते हैं. जितने लोग किस्मतवाले हैं, जिन्हें घर का पजेशन मिल गया और जहां बिल्डर ने ज्यादा तीन-पांच नहीं की है. यानी गड़बड़ी नहीं की है. वहां एक होम-बायर को अपना घर तो मिल जाता है. लेकिन उसको वो लगातार अपने होम-लोन की किस्त चुकाकर उसे कुछ तय सालों के लिए सींच रहा होता है.

और जिन केस में सब कुछ सही नहीं होता और बायर को धोखा मिलता है, उसे घर नहीं मिल पाता उसे अपने लुटे हुए का अहसास होता है क्योंकि वो लुटता चला जाता है. होम-लोन की किस्त-दर-किस्त भरता जाता है जबकि न उसका अपना कोई घर होता है न उसके बनने के आसार होते हैं. ऐसा उन केस में होता है जब बिल्डर एक बड़ा प्लॉट खरीदता है और उस पर एक बड़ी बिल्डिंग बनाने के लिए उस शहर की बिल्डिंग अप्रूवल अथॉरिटी से अप्रूव करवाता है,.

जैसे दिल्ली में डीडीए, गाजियाबाद में जीडीए और नोएडा में नोएडा अथॉरिटी. ये सारे सरकारी ऑफिस हैं और इनकी जांच के बाद ही बिल्डर को फ्लैट बनाने, टावर खड़े करने का अप्रूवल मिलता है. यहां विचार करने वाली बात ये है कि कई केस में बिल्डर पहले जमीन खरीदने के लिए लोन लेता है फिर कंस्ट्रक्शन के लिए भी वो अथॉरिटी और बैंक से सम्पर्क करता है. कई सारे कार्यालयों से अप्रूवल के बाद टावर के फ्लैट बेचने के लिए शुरू होता है एक सपनीला खेल. जिसकी शुरुआत होती है सैंपल फ्लैट से.

कई सारी बिल्डिंग्स में आप भी गए होंगे और सैंपल फ्लैट तो जरूर देखे होंगे. कितने खूबसूरत और चमचमाते हुए. ऐसा लगता है जैसे उसी दिन से वही मिल जाए रहने को तो कितना आनंद आए. लेकिन ऐसा होता नहीं है. वहां से बिल्डर आप के ऊपर जादू करना शुरू करता है और फिर आप वही देखते हैं जो वो आपको दिखाना चाहता है.. सैंपल फ्लैट अक्सर 3 या 4 कमरों के बने होते हैं और बायर यानी खरीदार अमूमन होते हैं 2 या 3 रूम वाले फ्लैट खरीदने के इच्छुक.

सैंपल फ्लैट में होता है शानदार पेंट जिसकी चमक में आप खो जाते हैं. लेकिन वही या वैसा ही पेंट आपको अपने फ्लैट में भी मिलेगा इसमें शक है. सैंपल फ्लैट में होते हैं स्पेशियस रूम जबकि बिल्डर के एम्प्लॉयीज आपको कभी-कभी ये डिस्क्लेमर देते चलते हैं कि थोड़ा उन्नीस-बीस या कम-बेसी हो सकता है. ना जी ! ज्यादा का तो सवाल ही नहीं उठता. सैंपल फ्लैट में चाहे बेड और TV-फ्रिज वगैरह सब लगाकर दिखाया जा रहा हो लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि आपका बेड भी उतना ही बड़ा है उससे ज्यादा बड़ा. ये भी लोचा होता है.

सैंपल फ्लैट में अक्सर चीजें छोटी लगी होती हैं. डाइनिंग टेबल भी अक्सर 4 लोगों वाली होती है और हमें लगता है सैंपल फ्लैट में हर तरफ स्पेस ही स्पेस.लगता है जैसे सपनों का घर कुछ ऐसा ही तो था लेकिन सैंपल फ्लैट हमेशा ईंट-सीमेंट वगैरह से नहीं बने होते बल्कि कई बार पतले बोर्ड से बने होते हैं और हमें उसमें ज्यादा जगह दिखाई देती है लेकिन जब आप लोन लेने और पैसे चुकाने के बाद कभी अपना फ्लैट देखने जाएं तो पता चलती है असलियत कि कैसे मोटी दीवारों ने जगह छोटी कर दी और कैसे वो सैंपल फ्लैट वाली चमक-दमक गायब सी लग रही है.

उसके बाद आप लाख बिल्डर से लड़ते रहिये लेकिन आप खुद तो ठगा हुआ ही पाते हैं. यहां  तक तो फिर भी ठीक है. इसके बाद कुछ और खेल होते हैं.शुरू होती है पजेशन में देरी. उतनी ही देरी जितनी आपको ब्रोशर में कही गई थी, यानी उतनी देरी जितने में बिल्डर पर कुछ देनदारी ना बने लेकिन आपका क्या? आप तो 6 महीने या साल भर या जितना भी समय एक्स्ट्रा लगा. तब तक के लिए बंध गए अपने उसी किराए के घर में. और ये जो एक्स्ट्रा किराया, EMI के अलावा आप दे रहे हो इसकी भरपाई कोई नहीं करता.

आप और हम, आम इंसान कई और मसलों की तरह चुप रह जाते हैं और बिल्डर और बैंक के बीच ‘मसले’ जाते हैं. चलिए यहां  तक का मसला जाना भी हम सह लेते हैं लेकिन मामला तब फंस जाता है जब अचानक किसी सरकारी दफ्तर की NOC में दिक्कत के कारण प्रोजेक्ट फंस जाता है, क्यों? क्योंकि बिल्डर ने कोई धांधली की होती है और अथॉरिटी ने उसे नजरअंदाज. इसके कारण क्या रहे होंगे और ये काम क्या ले-देकर हुआ होगा ये बात आप अच्छी तरह समझ सकते हैं लेकिन फंसता कौन है हम-आप जैसा आम-बायर.

प्रोजेक्ट रुक जाता है लेकिन EMI नहीं रूकती. वो चलती जाती है. या यूं कहूं कि चढ़ती जाती है. आम आदमी पर अमरबेल की तरह EMI चढ़ती रहती है और उसे खाती जाती है.. यहाँ हम आपके-हमारे लिए हर अथॉरिटी से कुछ सवाल करना चाहते हैं.

जब प्रोजेक्ट विकास प्राधिकरण या शहर की अथॉरिटी से अप्रूव था और उसपर बैंक ने बिल्डर को भी देखते-समझते हुए लोन दिया था तो फिर आम-बायर EMI का बोझ क्यों भुगते? आप में से जिन लोगों ने भी लोन की प्रक्रिया झेली है वो ये जानते होंगे कि बैंक प्रोसेसिंग फीस लेता है, किसलिए? यही जानने के लिए कि सब कुछ ठीक है या नहीं. इसके अलावा एक होती है लीगल फीस जो बैंकों द्वारा वसूली जाती है जिसमें आप याद करिए कि बिल्डर और फ्लैट से संबंधित सारी लीगल बातें जांची-परखी जाती हैं, इसमें लीगल सर्वे वाला वकील फोटो वगैरह से भी वेरीफाई करता है.

अब हमारा सवाल है कि जब हमारे ही पैसे से बैंक ने सारी बातें पता भी कर लीं तो फिर बिल्डर की गलती या धोखाधड़ी का खामियाजा आम आदमी क्यों भुगतता है? जानकर बताते हैं कि कई केस ऐसे हैं जब बिल्डर के जेल चले जाने या फरार होने के केस में बिल्डिंग के काम रुक गए और आम कस्टमर, कष्ट में मर गया.. जी हां कुछ ऐसे केस सामने आये जिनमें बायर लगातार चलती-बढ़ती EMI के बोझ को सह नहीं पाए और या तो डिप्रेशन में चले गए या उन्होंने आत्महत्या कर ली.

बिल्डर की करतूतों को आम इंसान को क्यों झेलना पड़ता है? क्यों बैंक ऐसे केस में बिल्डर से वसूली नहीं करता? क्यों हर बार आम आदमी पिसता चला जाता है? बिल्डर की देनदारी आखिर कब तय होगी? कब आम इंसान को इन परेशानियों से मुक्ति मिलेगी? होना तो ये भी चाहिए कि आम-बायर की सारी EMI वाला पैसा और तय समय के बाद वाले सारे समय का उसके किराये का पैसा भी बिल्डर को देना चाहिए क्योंकि सपनों के आशियाने की आस लगाए एक गरीब या मध्यमवर्गीय परिवार का सपना जो चकनाचूर हो गया.

आम जिन्दगी में घर बनाने का ख्वाब तो लगभग सभी देखते हैं लेकिन उसे पूरा केवल कुछ लोग ही करते हैं. बाकी लोग तो अपने बाप की कमाई या उनके बनाए घर में जिन्दगी गुजार देते हैं ऐसे में बिल्डर के धोखे से आम आदमी, आम-बायर, आम-कस्टमर को कब तक दो-चार होना पड़ेगा?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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