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संस्कृति

कृष्ण केवल जन्माष्टमी तक ही नहीं बल्कि जीवन के हर पल में समाहित हैं!

    • निधिकान्त पाण्डेय
    • Updated: 19 अगस्त, 2022 08:03 PM
  • 19 अगस्त, 2022 08:02 PM
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लोग श्री कृष्ण को याद रखे हुए हैं, और बुरी बात ये है कि उनके उपदेशों को भुलाया जा रहा है. जन्माष्टमी को पूजा नहीं किसी इवेंट की तरह मनाया जाता है. हम जन्माष्टमी मनाएं और अच्छे से मनाएं. लोगों से अच्छे से बात करें, महिलाओं की इज्जत करें, सही से दोस्ती निभाएं, विरोधियों को माफ करना सीखें, प्यार करें तो ऐसा कि जैसे कृष्ण ने किया था और सबसे बड़ी बात ये कि एक इंसान जैसे बने रहें.

ये हमारा विशेष लेख कृष्ण को समर्पित है. क्योंकि कृष्ण केवल जन्माष्टमी तक ही नहीं, बल्कि जीवन के हर पल में समाहित हैं. शामिल हैं और हमें हर समय कोई न कोई शिक्षा देते ही रहते हैं. इसीलिए लेख की शुरुआत उनके गीता के ज्ञान के उस श्लोक से शुरू करता हूं जिसे गीता का सार भी कहा जाता है –

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन.

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि..

ये श्लोक आपने कई बार सुना होगा लेकिन क्या इसे गुना भी है?

क्या आपने अपने व्यवहार में इसे आजमाया है? भगवद गीता के अध्याय 2 का ये 47वां श्लोक है. जब रणभूमि में अर्जुन अपने सगे संबंधियों को देखकर, युद्ध छोड़ देना चाहते है, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें उपदेश दिया था. कहते हैं कि गीता का ये ज्ञान करीब 5000 साल पहले दिया गया था. लेकिन आज भी प्रासंगिक है. ये श्लोक समझाता है कि कभी भी आपको अपने कर्मों के फल मिलें तो उसका कारण खुद को न समझें, और अगर कोई फल न मिल रहा हो तो कर्तव्य न करने की तरफ भी कभी आसक्त होने की जरूरत नहीं है.

भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसा बहुत कुछ बताया है जिसे हमें अपने जीवन में उतारना चाहिए

बल्कि आपको क्या करना है, वही जो आपने लाखों बार सुना तो होगा लेकिन अब करना भी है. 1975 में आई फिल्म सन्यासी में भी एक गीत है जो कहता है –

कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर ऐ इंसान !

जैसे कर्म करेगा वैसे फल देगा भगवान !

ये है गीता का ज्ञान, ये है गीता का ज्ञान !'

यानी आपको सिर्फ अपना कर्म करना है, कर्तव्य निभाना है, उस कर्म का फल क्या होगा, न तो ये आपके हाथ में है और न ही आपको उसके बारे में सोचना है, आपको केवल अपना काम करते...

ये हमारा विशेष लेख कृष्ण को समर्पित है. क्योंकि कृष्ण केवल जन्माष्टमी तक ही नहीं, बल्कि जीवन के हर पल में समाहित हैं. शामिल हैं और हमें हर समय कोई न कोई शिक्षा देते ही रहते हैं. इसीलिए लेख की शुरुआत उनके गीता के ज्ञान के उस श्लोक से शुरू करता हूं जिसे गीता का सार भी कहा जाता है –

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन.

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि..

ये श्लोक आपने कई बार सुना होगा लेकिन क्या इसे गुना भी है?

क्या आपने अपने व्यवहार में इसे आजमाया है? भगवद गीता के अध्याय 2 का ये 47वां श्लोक है. जब रणभूमि में अर्जुन अपने सगे संबंधियों को देखकर, युद्ध छोड़ देना चाहते है, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें उपदेश दिया था. कहते हैं कि गीता का ये ज्ञान करीब 5000 साल पहले दिया गया था. लेकिन आज भी प्रासंगिक है. ये श्लोक समझाता है कि कभी भी आपको अपने कर्मों के फल मिलें तो उसका कारण खुद को न समझें, और अगर कोई फल न मिल रहा हो तो कर्तव्य न करने की तरफ भी कभी आसक्त होने की जरूरत नहीं है.

भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसा बहुत कुछ बताया है जिसे हमें अपने जीवन में उतारना चाहिए

बल्कि आपको क्या करना है, वही जो आपने लाखों बार सुना तो होगा लेकिन अब करना भी है. 1975 में आई फिल्म सन्यासी में भी एक गीत है जो कहता है –

कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर ऐ इंसान !

जैसे कर्म करेगा वैसे फल देगा भगवान !

ये है गीता का ज्ञान, ये है गीता का ज्ञान !'

यानी आपको सिर्फ अपना कर्म करना है, कर्तव्य निभाना है, उस कर्म का फल क्या होगा, न तो ये आपके हाथ में है और न ही आपको उसके बारे में सोचना है, आपको केवल अपना काम करते जाना है. हम भी आज के आर्टिकल में अपना कर्म करेंगे.. आपसे कृष्ण के उपदेशों की अच्छी बातें करेंगे तो पढ़िए-गुनिये श्रीकृष्ण के संदेश वाली बातों को ध्यान से, विस्तार से... क्योंकि कृष्ण आज के समय में भी प्रासंगिक हैं और कदम-कदम पर अपने कर्मों और ज्ञान से हमें अच्छा करने की प्रेरणा देते रहते हैं..

कृष्ण के ज्ञान से हमें इतना तो पता चलता है कि जीवन में पथ प्रदर्शक यानी गाइड या शिक्षक की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है. इसके लिए महाभारत की एक कथा का सहारा ले लेता हूं .. महाभारत युद्ध से पहले अर्जुन और दुर्योधन दोनों भगवान कृष्ण के पास आते हैं और उनकी सहायता और आशीर्वाद की बात करते हैं..

अब आप इसे कृष्ण की चतुराई कहें या साफगोई कि वो उन दोनों के सामने दो प्रस्ताव रखते हैं –

या तो मेरी नारायणी सेना ले लो..

या

केवल मुझे.. लेकिन मैं अस्त्रों का प्रयोग नहीं करूंगा..

अब आप इसे दुर्योधन का दुर्भाग्य कहें या दूर-दृष्टि का अभाव कि उसकी मति मारी गई और उसने सोचा कि बिना हथियार वाले अकेले कृष्ण से क्या होगा और उसने सेना लेने का निर्णय किया.. लेकिन अर्जुन ने सूझ-बूझ का परिचय दिया.. उन्हें तो अपने मार्गदर्शक, गाइड, टीचर, सारथी के रूप में सखा श्रीकृष्ण ही चाहिए थे और वही मिले, क्योंकि अर्जुन जानते थे कि युद्ध में सेना चाहे जितनी बड़ी हो लेकिन उनका उपयोग-प्रयोग कैसे करना है इसके लिए जो रणनीति बनानी होगी, मार्गदर्शन चाहिए होगा वो कृष्ण की सलाह के बिना संभव नहीं होगा.. इसीलिए आज के दौर में भी एक अच्छा गाइड और शिक्षक मिलना बहुत महत्त्व रखता है.

आप चाहें तो कुछ उदाहरण से इसे भी समझ सकते हैं... भारत की आजादी में मुख्य भूमिका निभाने वाले गांधीजी का मार्गदर्शन तो आपको याद ही होगा.. उनके साथ ही हमारे कई स्वाधीनता सेनानी, क्रांतिकारी जिन्होंने देश के लिए प्राण न्योछावर किए, वे सब हमारे देश की जनता के लिए आज भी प्रेरणा-स्रोत हैं.. आपने अक्सर बड़े-बुजुर्गों को ये कहते सुना होगा कि गीता में जीवन का सार है.

श्री कृष्ण ने जब अर्जुन को उपदेश दिए तो पार्थ के लिए युद्ध जीतना आसान हो गया था लेकिन वो उपदेश केवल युद्ध के लिए नहीं थे बल्कि उनमें ज्ञान का भंडार छुपा है.. हम भी गीता के ज्ञान को अपनी जिंदगी में शामिल करके अपने लक्ष्य को आसानी से पा सकते हैं..

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः.

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तरमादेतत्त्रयं त्यजेत्..

इसका सीधा अर्थ तो ये है कि तीन प्रकार के नरक के द्वार हैं जो आत्मा का नाश करने वाले हैं और वो हैं – काम यानी इच्छा, क्रोध यानी गुस्सा और लोभ यानी लालच.. जिस भी मनुष्य में ये 3 अवगुण होते हैं, वो हमेशा दूसरों को दुख पहुंचाकर अपने स्वार्थ की पूर्ति में लगे रहते हैं.. इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए.. वैसे भी आप तो जानते ही हैं कि क्रोध से भ्रम पैदा होता है. भ्रम से बुद्धि व्यग्र होती है, ऐसे में तर्क नष्ट हो जाता है और व्यक्ति कुछ भी सही सोचने-समझने के लायक नहीं रह जाता और गलतियाँ कर बैठता है इसीलिए जो व्यक्ति ज्ञान और कर्म को एक रूप में देखता है, उसी का नजरिया सही है और वही ज्ञानी हो सकता है.

एक और श्लोक देखिये

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः.

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता..

मनुष्यों को चाहिए कि वो सभी इंद्रियों- जीभ, त्वचा, आंखें, नाक, कान आदि को वश में रखे तभी उसकी बुद्धि स्थिर होती है. मनुष्य अपनी इन्द्रियों के माध्यम से ही सांसारिक सुखों का भोग करता है जैसे- जीभ को अलग-अलग स्वाद की चीजों से तृप्ति मिलती है और आँखों को सुंदर दृश्य देखना अच्छा लगता है.. श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन को नियंत्रित रखना चाहिए वरना वही हमारे लिए शत्रु की तरह काम करने लगता है..

एक और श्लोक से कुछ बातों को समझने की कोशिश करते हैं-

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:.

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते..

इसका अर्थ है कि श्रेष्ठ पुरुष यानि पद और गरिमा में बड़े व्यक्ति जैसा आचरण करते हैं, सामान्य लोग भी वैसा ही आचरण करने लगते हैं.. अगर किसी संस्थान में कोई उच्च अधिकारी पूरी मेहनत और निष्ठा से काम करे तो उन्हें आदर्श मानकर अन्य कर्मचारी भी वैसे ही काम करेंगे, लेकिन अगर उच्च अधिकारी काम को टालने लगेंगे तो कर्मचारी उनसे भी ज्यादा आलसी हो जाएंगे.

भगवान कृष्ण तो हर युग, हर काल में और हर मौके पर हमें कुछ न कुछ सिखाते हैं. कृष्ण के तमाम गुण उनको हरदिल अजीज बनाते हैं. फिर वो चाहे किसी से सारी सरहदें भुलाकर प्रेम करने की बात हो या फिर किसी की इज्जत बचाने के लिए दौड़ पड़ने का हौसला. कान्हा में एक समर्पित प्रेमी से लेकर बेहतर कूटनीतिज्ञ, एक अच्छे स्पीकर, कला प्रेमी, सूझबूझ और हास्य विनोद से भरे इंसान के वो सारे गुण मौजूद हैं जो हम अपने आदर्श में खोजते हैं. इसीलिए कृष्ण को सर्व-गुण संपन्न कहा जाता है.. इन गुणों से बहुत सी प्रेरणाएं ली जा सकती हैं.

कृष्ण ने अपना बचपन ऐसा जिया कि आज भी लोग अपने बच्चों को कान्हा कहकर बुलाते हैं. उनके सेंस ऑफ ह्यूमर ने ही उन्हें ग्वालाओं से लेकर अपने लोगों के बीच अहम पहचान दिलाई. कृष्ण बचपन से ही एक सफल लीडर की तरह हर मोर्चे पर जनता की मुसीबतें अपने सिर पर लेते नजर आए. वो सिंहासन पर बैठकर राजा कभी नहीं बने. वो नेतृत्व तो सिखाते हैं लेकिन उनकी पहुंच सत्ता नहीं बल्कि जनता के बीच रही. आज भी लोग अपने लीडर में यही गुण खोजते हैं.

एक अच्छा स्पीकर हमें हताशा के उस दौर से बाहर निकाल सकता है. जहां हम मुसीबत के सामने हथियार डाल देते हैं. लेकिन एक अच्छे स्पीकर में कृष्ण जैसे योग और ज्ञान का समागम होना बहुत जरूरी है. कुरुक्षेत्र के रण में हताश अर्जुन को श्रीमद्भगवत गीता का उपदेश देकर कृष्ण मानव समाज को ज्ञान और योग की ही शिक्षा देते हैं. कृष्ण समाजसेवी और क्रांतिकारी किरदार हैं जो जुर्म के खिलाफ आवाज उठाकर बड़े बने. कृष्ण ने भयंकर हालातों से अपने गोकुल, अपने गांव को सुरक्षित रखा. अत्याचार करने वालों में अगर अपना मामा भी है तो कृष्ण ने उनका भी वध किया. साथ ही हमें सिखाया कि जुर्म के खिलाफ आवाज उठाने की कोई उम्र नहीं होती.

जब कुरुक्षेत्र में एक तरफ कौरवों की सेना थी तो दूसरी तरफ अर्जुन के रथ के सारथी बने कृष्ण पूरे आत्मविश्वास से मुस्कुरा रहे थे. उन्हें पता था कि युद्ध जीतने के लिए सिर्फ संख्या की नहीं, मनोबल और कूटनीति की जरूरत है. जीवन यूं तो अकेला भी बीत सकता है लेकिन अगर जीवन में कृष्ण जैसा मित्र हो, दोस्त हो तो सुदामा के भाग्य भी संवर जाते हैं. सुदामा के पांव पखारते कृष्ण हमें उस आदर्श में स्थापित होने की सीख देते हैं ताकि हम पद, प्रतिष्ठा और मान पाकर अपने उन दोस्तों और लोगों को न भूलें जो जिन्दगी की दौड़ में परिस्थितिवश या किसी अन्य कारण से वहां तक नहीं पहुंच पाए.

आज भी लोग प्रेम की मिसाल देते हैं तो राधा और कृष्ण का नाम जरूर लाते हैं. एक ऐसा युगल जो प्रेम में तो है लेकिन पूर्ण समर्पण भाव से. कृष्ण के प्रेम में डूबी गोपियां और रास रचाते कृष्ण आध्यात्‍मिकता और श्रृंगार का अनूठा संगम हैं. जो हमें सिखाते हैं कि जीवन में रस है, श्रंगार है, प्रेम है साथ ही साथ अध्यात्मिकता और समर्पण भी. एक आवाज में अपने चाहने वाले के पास पहुंच जाने वाले सुपर मैन को कौन भुला सकता है भला.

अगर भरे बाजार में किसी की आबरू नीलाम हो रही हो तो वो अपने मन के कृष्ण को ही बुलाएगी. लेकिन एक आवाज में उस तक पहुंचने वाला ही असल मायने में भगवान श्री कृष्ण का सबसे प्रिय और करीबी हो सकता है. भगवान कृष्ण द्रौपदी की एक आवाज में उन तक भरी सभा में पहुंच जाते हैं. कृष्ण किसी एक व्यक्ति का नाम है भी और नहीं भी. श्री कृष्ण खुद कहते हैं- ‘मैं अव्यक्त हूं, अजन्मा हूं.’ इसलिए कृष्ण को समझने के लिए कृष्ण होना पड़ता है.

भारत में कृष्ण को लेकर लोगों की कई मान्यताएं हैं. कृष्ण कई लोगों के लिए भगवान हैं कई लोगों के लिए प्रेमी हैं तो कई उन्हें छलिया भी कहते हैं. माखन चोर से लेकर मुरली मनोहर.. ये ऐसे नाम हैं जो कृष्ण के बहुआयामी व्यक्तित्व को दर्शाते हैं. कृष्ण को विष्णु का अवतार कहा जाता है. लेकिन यहां रहते हुए उन्होंने वो सब ही किया जो एक इंसान करता है. उन्होंने लोगों को बताया कि प्रेम कैसे किया जाता है, महाभारत के युद्ध में अर्जुन को गीता का सार समझाया.

कृष्ण को लेकर भारत में कई धारावाहिक बने, कृष्ण के कुछ किरदार तो इतने महान हो गए कि जब वो आम जिंदगी में दिखते थे तो लोगों को लगता था कि साक्षात कृष्ण प्रकट हो गए हैं और लोग उनके पैर छूकर आशीर्वाद लेते थे. देश जन्माष्टमी मना रहा है... अपने माखन चोर को याद कर रहा है उनके लिए व्रत रख रहा है लेकिन कृष्ण होने का मतलब इतने भर से नहीं है.. कृष्ण ने जो समझाया था क्या हमारा समाज उनके उपदेशों पर ही चल रहा है. हम गीता को मानने वाले लोग हैं लेकिन गीता में कहां लिखा है कि किसी स्कूल में एक दलित बच्चा मास्टर जी के पीने का पानी नहीं पी सकता है...

गीता में ये भी नहीं लिखा है कि किसी दलित बच्चे के पानी पी लेने पर उसकी पीट-पीटकर हत्या कर दी जाए.... सच्चाई तो यही है कि कृष्ण को भगवान नहीं इंसान ही समझा जाता है तभी तो उनके बारे में अक्सर कहा जाता है कि अगर आधुनिक युग में प्रभावशाली व्यक्तित्व किसी का है तो वो श्री कृष्ण का है. महिला सशक्तिकरण से लेकर अन्याय के विरुद्ध कमजोर वर्गों की आवाज उठाने को श्रीकृष्ण ने सिर्फ सराहा ही नहीं बल्कि उनका मार्गदर्शन भी किया. संसार में मित्रता को सबसे ज्यादा पवित्र रिश्ता माना जाता है. आज भी दोस्ती का उदाहरण कोई देता है तो सबसे पहले कृष्ण-सुदामा का ही नाम आता है.

आज अपने समाज में कृष्ण को बस भगवान बनाकर पूजा जाता है, लेकिन एक इंसान के रूप में कृष्ण हमारे लिए ज्यादा प्रभावी थे. एक महिला के साथ कैसे निभाया जाता है उसकी रक्षा कैसे की जाती है, एक महिला से प्रेम कर उसे अमर कैसे बनाया जा सकता है.. ये हमें कृष्ण ने सिखाया है.. महाभारत में जब द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था तो सारे महारथी चुपचाप तमाशा देख रहे थे.. कोई द्रौपदी को बचाने नहीं आया.. कृष्ण ही आये..

आज क्या हो रहा है हमारे समाज में.. महिलाओं का रेप कर दिया जाता है.. छोटी बच्चियों का रेप कर दिया जाता है लेकिन कोई कुछ नहीं बोलता.. सब तमाशा देखते हैं.. कहने को कानून है, पुलिस है, न्याय है लेकिन होता क्या है? कहीं किसी महिला को न्याय मिल रहा होता है और उसी वक्त कहीं किसी दूसरी महिला के साथ रेप हो रहा होता है. और हां... न्याय मिलने में भी तो टाइम लगता है.. तबतक तो पता नहीं कितनी बार उस लड़की के साथ जुबानी रेप होता है... एक ही सवाल को अलग-अलग तरह से पूछकर उसे परेशान किया जाता है पर यहां बचाने वाला कोई कृष्ण नहीं है...

हम राधे-कृष्ण कहते हैं.. राधा से कन्हैया ने प्रेम किया था, शादी रुक्मिणी से की थी.. लेकिन राधा उनके साथ हमेशा के लिए जुड़ गईं. कृष्ण कभी बदले की कार्रवाई करने में यकीन नहीं रखते थे, वो तो क्षमा करने में विश्वास रखते थे लेकिन अगर कोई सीमा लांघ रहा होता था तो कृष्ण उसे छोड़ते भी नहीं थे. शिशुपाल कृष्ण को गाली देता रहा और कृष्ण उसे समझाते रहे लेकिन 99 अपशब्दों के बाद शिशुपाल का खेल खत्म कर दिया गया..

कृष्ण यहां हमें सिखाते हैं कि विरोधी और दुष्टों को भी मौका देना चाहिए सुधरने का.. लेकिन हमारे समाज और हमारी राजनीति में ऐसा देखने को नहीं मिलता. आज समाज में कोई किसी को माफ करने के लिए तैयार नहीं है. विरोधियों को तो लोग जितनी जल्दी हो बस निपटाना चाहते हैं. कुछ लोगों के अनुसार कृष्ण ही महाभारत युद्ध के लिए जिम्मेदार थे लेकिन ऐसा नहीं था.. कृष्ण की चेतावनी में रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं-

मैत्री की राह बताने को,

सबको सुमार्ग पर लाने को,

दुर्योधन को समझाने को,

भीषण विध्वंस बचाने को,

भगवान् हस्तिनापुर आये,

पांडव का संदेशा लाये.

‘दो न्याय अगर तो आधा दो,

पर, इसमें भी यदि बाधा हो,

तो दे दो केवल पाँच ग्राम,

रक्खो अपनी धरती तमाम.

हम वहीं खुशी से खायेंगे,

परिजन पर असि न उठायेंगे!

कृष्ण तो विनती करते हैं कि मैं दोस्ती के लिए आया हूं अगर तुम राज्य का आधा हिस्सा नहीं दे सकते तो सिर्फ पांच गांव दे दो पांडव उसी में रह लेंगे... साथ ही कृष्ण दुर्योधन के बंदी बना लेने वाले बयान पर उसे चुनौती भी देते हैं और ये भी बतलाते हैं कि देखो मैं कौन हूं.. इसे दिनकर ने कुछ इस तरह से लिखा है...

हरि ने भीषण हुंकार किया,

अपना स्वरूप-विस्तार किया,

डगमग-डगमग दिग्गज डोले,

भगवान् कुपित होकर बोले-

‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,

हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे.

यह देख, गगन मुझमें लय है,

यह देख, पवन मुझमें लय है,

मुझमें विलीन झंकार सकल,

मुझमें लय है संसार सकल.

अमरत्व फूलता है मुझमें,

संहार झूलता है मुझमें.

‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,

भूमंडल वक्षस्थल विशाल,

भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,

मैनाक-मेरु पग मेरे हैं.

दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,

सब हैं मेरे मुख के अन्दर.

‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,

मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख.

श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व किसी ब्राह्मण्ड से कम नहीं.. श्रीकृष्ण सबके हैं... काश दुर्योधन को ये बात समझ आती. मीराबाई ने तो श्रीकृष्ण की भक्ति के कारण आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया और इसके लिए विष का प्याला पीना भी सहर्ष स्वीकार किया. श्रीकृष्ण ने इंसानों को एक अनोखा जीवन दर्शन दिया, जीने की शैली सिखलाई. उनका पूरा जीवन चमत्कारों से भरा-पूरा है इसके बावजूद वो हमारे बहुत करीब लगते हैं, हमारे जैसे ही लगते हैं. वो भगवान हैं लेकिन इंसान उनसे सीख सकता है कि कैसे सफल हुआ जाए, उनके ये सीखा जा सकता है कि जिंदगी में दोस्ती कैसी निभाई जाए और कैसे प्रेम किया जाए.

कृष्ण की छवि एक सखा की है जिसे यमुना के किनारे ग्वाले के साथ शरारत या गोपियों के साथ रास रचाते अच्छा लगता था. वो कभी-कभी मां को भी परेशान करते और कभी गले लग अपनी गलती मानते मां से प्यार करने लगते. भगवान श्रीकृष्ण को बहुत से लोग कपटी भी कहते हैं. हालांकि ये सही नहीं है. राजनीति और युद्ध में कूटनीति का सहारा लेना छल नहीं होता. लोग अक्सर महाभारत के युद्ध का उदाहरण देकर ऐसा कहते हैं. चाणक्य का एक वाक्य है कि 'यदि अच्छे उद्देश्य के लिए गलत मार्ग का चयन किया जाए तो ये अनुचित नहीं है. मार्ग कैसा भी हो लेकिन उद्देश्य सत्य और धर्म की जीत के लिए ही होना चाहिए.'

श्रीकृष्ण की बात हो ही रही है तो उनकी 16,000 रानियों की भी बात कर लेते हैं. अक्सर इसके बारे में लोग कई तरह की बातें बोलते हैं. श्रीकृष्ण की जिन 16,000 पटरानियों के बारे में कहा जाता है, दरअसल वे सभी भौमासुर (नरकासुर) के यहां बंधक बनाई गई महिलाएं थीं जिनको श्रीकृष्ण ने मुक्त कराया था. ये महिलाएं किसी की मां थीं, किसी की बहन तो किसी की पत्नियां थीं जिनको भौमासुर अपहरण करके ले गया था. सामाजिक मान्यताओं के चलते भौमासुर द्वारा बंधक बनाकर रखी गई इन नारियों को कोई भी अपनाने को तैयार नहीं था, तब अंत में श्रीकृष्ण ने सभी को आश्रय दिया.

ऐसी स्थिति में उन सभी महिलाओं ने श्रीकृष्ण को ही अपना सबकुछ मानते हुए उन्हें पति रूप में स्वीकार कर लिया. श्रीकृष्ण उन्हें अपने साथ द्वारिकापुरी ले आए. कहा जाता है कि ये महिलाएं किसी भी पुरुष से विवाह करने के लिए स्वतंत्र थीं, कइयों ने ऐसा किया भी. आज समाज में कई तरह की चीजें हो रही हैं. लोगों के जीने का नजरिया बदल गया है. भगवान को पहले जैसे पूजा जाता था वैसा अब नहीं है...

अब पूजने का तरीका बदल गया है.. लेकिन अच्छी बात ये है कि लोग श्री कृष्ण को याद रखे हुए हैं, और बुरी बात ये है कि उनके उपदेशों को भुलाया जा रहा है. जन्माष्टमी को पूजा नहीं किसी इवेंट की तरह मनाया जाता है. हम जन्माष्टमी मनाएं और अच्छे से मनाएं... लोगों से अच्छे से बात करें, महिलाओं की इज्जत करें, सही से दोस्ती निभाएं, विरोधियों को माफ करना सीखें, प्यार करें तो ऐसा कि जैसे कृष्ण ने किया था और सबसे बड़ी बात ये कि एक इंसान जैसे बने रहें.. भगवान श्रीकृष्ण होने का मतलब यही है...

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत.

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्.

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

कृष्ण हमारे बीच आएंगे या शायद हैं.. ये आपको विचार करना है क्योंकि हम उनके उपदेशों पर अमल करके, उनकी तरह कर्म करके समाज को अच्छा बनाने का प्रयास तो कर ही सकते हैं.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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