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संस्कृति

ब्रूनो को पूजने वाले हम औपनिवेशिक गुलाम ना होते तो याज्ञवल्क्य का नाम भला कैसे भूल जाते?

    • अनुज शुक्ला
    • Updated: 24 मई, 2022 01:57 PM
  • 24 मई, 2022 01:55 PM
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गलती हमारी उस सोच की है कि हमने अभारतीय को हमेशा सबसे अच्छा मान लिया है. उपनिवेशवाद से ग्रस्त सोच हमारी अज्ञानता को उजागर करती है. हम अपनी चीजों को दर्ज नहीं कर पाए जो दुनिया में किसी के पास होती तो वह उसका प्रचार करता घूमता.

किसी विदेशी सत्ता के ख़त्म हो जाने के बावजूद उपनिवेशवाद जाता नहीं है. यह कई तरह का होता है और अपने पीछे बीमारियां छोड़ जाता है. निश्चित ही किसी भी सभ्य और वैज्ञानिक समाज की चेतना पर इसका असर बुरा भी पड़ सकता है. इधर सोशल मीडिया पर इतिहास की लगातार खुदाई जारी है. हर कोई तथ्य लेकर आ रहा है. तथ्यों से कुछ लोग भारत की स्थापना कर रहे हैं, और ऐसे लोग भी कम नहीं जो इन्हीं तथ्यों से भारत को खारिज भी कर रहे हैं. खारिज करना ठीक है, मगर मूर्खता में अपनी ही विरासत का मजाक उड़ाना कहां तक सही है? वैसे इंटरनेट के दौर में मजाक उड़ाना भी एक कला है. तथ्यों और दुनिया की पुरानी खोजों के हवाले से किसी धर्म, समाज, सभ्यता, वैज्ञानिकता के जरिए श्रेष्ठता की नुमाइश हो रही है. सबूत के रूप में पेश किया जा रहा है.

यह मान लेना चाहिए कि आजादी के बाद एक देश के रूप में भारत का पुनर्निर्माण नहीं हो पाया. मान लिया गया कि भारत कभी राष्ट्र था ही नहीं, क्योंकि राष्ट्र का सिद्धांत भी हमारी चेतना में यूरोप के जरिए ही 18वीं सदी में आया. ऐसा लोगों को लगता है. वैसे इसमें परेशान होने जैसा कुछ नहीं है. सिवाय इसके कि जिन चीजों को ज्ञान विज्ञान और समाज की प्रगतिशीलता का स्टैंडर्ड बताया जा रहा है- पता चलता है कि वह तो आपके पास भी हजार दो हजार साल पहले से ही मौजूद है. फिर किसी विदेशी स्थापना का क्या तुक भई? ज्ञान विज्ञान की तारीख को लेकर भला बहस का विषय ही क्या?

असल में उपनिवेश का खेल यहीं शुरू होता है और किसी को झुठलाकर अपनी श्रेष्ठता साबित करने की जिद होती है. सामजिक-बौद्धिक-धार्मिक रूप से गुलाम बनाने की कोशिशों की तिकड़म होती है. जबरदस्ती होती है. बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि किसी भूगोल में किसी समाज और सभ्यता को प्रेरणा के लिए निजी चुनाव की स्वतंत्रता ना मिले. पाकिस्तान ने भी नई धार्मिक पहचान में इसी प्रेरणा से एक ऐसी चादर ओढ़ ली, जो उसका था ही नहीं, और दुनियाभर में आज मजाक का विषय बना हुआ है.

किसी विदेशी सत्ता के ख़त्म हो जाने के बावजूद उपनिवेशवाद जाता नहीं है. यह कई तरह का होता है और अपने पीछे बीमारियां छोड़ जाता है. निश्चित ही किसी भी सभ्य और वैज्ञानिक समाज की चेतना पर इसका असर बुरा भी पड़ सकता है. इधर सोशल मीडिया पर इतिहास की लगातार खुदाई जारी है. हर कोई तथ्य लेकर आ रहा है. तथ्यों से कुछ लोग भारत की स्थापना कर रहे हैं, और ऐसे लोग भी कम नहीं जो इन्हीं तथ्यों से भारत को खारिज भी कर रहे हैं. खारिज करना ठीक है, मगर मूर्खता में अपनी ही विरासत का मजाक उड़ाना कहां तक सही है? वैसे इंटरनेट के दौर में मजाक उड़ाना भी एक कला है. तथ्यों और दुनिया की पुरानी खोजों के हवाले से किसी धर्म, समाज, सभ्यता, वैज्ञानिकता के जरिए श्रेष्ठता की नुमाइश हो रही है. सबूत के रूप में पेश किया जा रहा है.

यह मान लेना चाहिए कि आजादी के बाद एक देश के रूप में भारत का पुनर्निर्माण नहीं हो पाया. मान लिया गया कि भारत कभी राष्ट्र था ही नहीं, क्योंकि राष्ट्र का सिद्धांत भी हमारी चेतना में यूरोप के जरिए ही 18वीं सदी में आया. ऐसा लोगों को लगता है. वैसे इसमें परेशान होने जैसा कुछ नहीं है. सिवाय इसके कि जिन चीजों को ज्ञान विज्ञान और समाज की प्रगतिशीलता का स्टैंडर्ड बताया जा रहा है- पता चलता है कि वह तो आपके पास भी हजार दो हजार साल पहले से ही मौजूद है. फिर किसी विदेशी स्थापना का क्या तुक भई? ज्ञान विज्ञान की तारीख को लेकर भला बहस का विषय ही क्या?

असल में उपनिवेश का खेल यहीं शुरू होता है और किसी को झुठलाकर अपनी श्रेष्ठता साबित करने की जिद होती है. सामजिक-बौद्धिक-धार्मिक रूप से गुलाम बनाने की कोशिशों की तिकड़म होती है. जबरदस्ती होती है. बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि किसी भूगोल में किसी समाज और सभ्यता को प्रेरणा के लिए निजी चुनाव की स्वतंत्रता ना मिले. पाकिस्तान ने भी नई धार्मिक पहचान में इसी प्रेरणा से एक ऐसी चादर ओढ़ ली, जो उसका था ही नहीं, और दुनियाभर में आज मजाक का विषय बना हुआ है.

आर्यभट जिन्होंने शून्य का आविष्कार किया था. फोटो प्रतीकात्मक है.

हर समाज को अपना बेहतर इतिहास और नायक गढ़ने की आजादी है. पाकिस्तान ने गढ़ा. ऐसे नायक जो उसकी पीढ़ियों को प्रेरणा दें और उनमें आत्मविश्वास का भाव जागे. किस भूगोल और सभ्यता में क्या पहले हुआ- यह तो बाद का सवाल है. यह विशेष भौगोलिक क्षेत्र का चयन है. हां, उसे सार्वभौमिक चयन नहीं बनाया जाना चाहिए. और उस भूगोल या सभ्यता में तो बिल्कुल नहीं थोपना चाहिए जहां ज्ञान-विज्ञान के उन्हीं सिद्धांतों का प्रतिपादन पहले ही हो चुका है और उनके अपने नायक ज्यादा बेहतर और स्पष्ट रूप से कई हजार साल पहले से मौजूद हैं.

सभ्यता और संस्कृति में श्रेष्ठता के मानक और नायक हम किस आधार पर गढ़ रहे हैं?

जर्दानो ब्रूनो, वृहस्पति (चार्वाक), विलियम शेक्सपियर, याज्ञवल्क्य और कालिदास के रूप में दो भारतीय और दो अभारतीय हस्तियों के जरिए नायकों को गढ़ने और उसके पीछे उपनिवेशवादी इच्छाओं को समझने में दिक्कत नहीं होती. यह मान लिया जाए कि यूरोपीय समाज कालिदास के नाम से परिचित होगा, पर इस बात में संशय है कि वैसे ही परिचित होगा जैसे भारत में शेक्सपियर है. ब्रूनो का नाम तो शायद भारत का बच्चा-बच्चा जानता होगा. लेकिन क्या यूरोप में दस-बीस दर्जन बच्चे याज्ञवल्क्य का भी नाम जानते होंगे, इसे लेकर घोर आशंका है. और भारत में ही कितने बच्चे याज्ञवल्क्य का नाम जानते हैं.

असल में इधर इतिहास की खुदाई में ब्रूनो की मशहूर कहानी सोशल मीडिया पर खूब टहल रही है. कहानी यह है कि ब्रूनो ने पहली बार दुनिया को धरती, ब्रह्मांड और सूरज का वैज्ञानिक सच बताया. यानी- "धरती गोल है. धरती अपने केंद्र पर घूमती है. ब्राह्मांड का केंद्र सूर्य है और ब्रह्मांड अनंत है. सूर्य भी अपने अक्ष पर घूम रहा है. आदि आदि." ब्रूनो इटली का महान दार्शनिक, गणितज्ञ और खगोलशास्त्री था. उसका जन्म 1548 में हुआ था. यह वो समय है जब भारत में मुग़ल जम चुके थे. हालांकि ब्रूनो जिस समाज में था वह उसके सिद्धांतों को पचा नहीं पाया. खासकर कैथोलिक चर्च. क्योंकि उनके लिए यह नई बात थी.

इसका नतीजा यह हुआ कि ब्रूनो पर लगभग "ईशनिंदा" जैसे आरोप लगे. उससे माफी माँगने को कहा गया. मगर ब्रूनो को अध्ययन में मिले निष्कर्षों पर पूरा भरोसा था और वह अड़ा रहा. एक अकेला ब्रूनो तत्कालीन अंधे समाज का सामना नहीं कर सका और उसे जिंदा जलाकर मारने की सजा दी गई. 17 फ़रवरी 1600 में उसे जलाकर मार दिया गया. यह बर्बरता की हद है. ब्रूनो की मौत के करीब दो सौ साल बाद (1800 में ) सौरमंडल में सातवां ग्रह खोजा गया. और जब उसकी बात वैज्ञानिक रूप से सच हो गई चर्च ने माफी भी मांगी. उसकी प्रतिमा इटली में मिल जाएगी और वह वहां का नायक है. होना ही चाहिए. यह वही दौर है जब भारत से अलग समूची दुनिया में धरती के आकार को लेकर अलग-अलग स्थापनाएं प्रचलित थी. चपटी, चौकोर, नारंगी हर तरह की.

धरती और ब्रह्मांड पर ज्ञान के मामले में भारत से कोई आगे नहीं था, यह तब का सच है 

अब लौटते हैं भारत में. ब्रूनो से करीब 3200 वर्ष पहले हमारे यहां एक दार्शनिक हुए याज्ञवल्क्य. याज्ञवल्क्य को "शतपथ ब्राह्मण" की रचना के लिए जाना जाता है. "बृहदारण्यक उपनिषद" असल में शतपथ ब्राह्मण का ही एक हिस्सा है. जो उपनिषदों में महत्वपूर्ण है. होमर और अरस्तु जैसे दार्शनिक भी याज्ञवल्क्य के बाद हुए जिन्हें लेकर यूरोप मानता है कि इन्हीं दोनों ने सबसे पहले कहा था- "धरती गोल है." जबकि इन दोनों से कई सौ साल पहले ही याज्ञवल्क्य यह बार बार बता चुके थे- "धरती गोल है." उनके लिखे ग्रंथों में धरती के गोल आकार का विवरण है.

याज्ञवल्क्य को माना जाता है कि वह शास्त्रार्थ परंपरा के ऋषि या दार्शनिक थे, जो भी ठीक लगे समझ लें. याज्ञवल्क्य को भारत की दार्शनिक परंपरा में "नेति नेति" यानी "यह नहीं, यह भी नहीं" के व्यवहार का प्रवर्तक माना जाता है. जनक के दरबार में उनके शास्त्रार्थ का जिक्र आता है. मत्स्यपुराण, विष्णु पुराण, और वायु पुराण में भी उनका जिक्र मिलता है. बाद में कौटिल्य के अर्थशास्त्र में याज्ञवल्क्य के प्रभाव की झलक दिखती है. कुल मिलाकर याज्ञवल्क्य इस कोटि के विचारक हैं कि उनका बहुत सारा काम नजर आता है. यह भी जान लीजिए कि उस दौर में जो ऋषि मुनि थे वही वैज्ञानिक थे. वही चिकित्सक और उपकरण बनाने वाले.

ब्रूनो से कई हजार साल पहले ऋग्वेद में ब्रह्मांड का विवरण मिलता है.

"सृष्टि से पहले सत नहीं था, असत भी नहीं. अंतरिक्ष भी नहीं, आकाश भी नहीं था, छिपा था क्या, कहां किसने देखा था. उस पल तो अगम अटल जल भी कहां था."

यह ब्रह्मांड का विवरण है. वेद कहता है कि ब्रह्मांड ईश्वर ने नहीं रचा. ईश्वर के होने भर से वह रचता गया. ब्रूनो से कई हजार साल पहले. यह पता नहीं है कि ऋगवेद में इस निष्कर्ष का प्रतिपादन किस दार्शनिक ने किया था. माना जाता है कि वेदों को कई सदियों में अलग अलग दार्शनिक ऋषियों ने लिखा है. अब से कुछ साल पहले भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग ने लगभग इसी चीज को लेकर निष्कर्ष दिया था- "ब्राह्मांड भौतिक नियमों का नतीजा है इसे किसी ईश्वर ने नहीं रचा." प्राचीन भारतीय खगोलशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र में ब्रूनो से कई हजार साल पहले धरती की कालगणना तक दर्ज है. हजारों साल पहले नव ग्रह खोज लिए गए. ग्रहण की गणना थी लेकिन निष्कर्ष अवैज्ञानिक था. जो आज भी प्रचलन में है. सवाल है क्या भारत को खगोलशास्त्र के एक सामान्य सिद्धांत के लिए ब्रूनो जैसे नायक की जरूरत है जिस पर बड़े बड़े मीडिया संस्थानों के ना जाने कितने इन्फोग्राफ टहलते दिखते हैं? हां ब्रूनो की हत्या हमारी दिलचस्पी का विषय हो सकता है, वह कैसा समाज था जो अपने ही दार्शनिक की हत्या कर रहा था.

जबकि भारत की चिंतन परंपरा में अजित केशकंबली और बृहस्पति जैसे नास्तिक दार्शनिक भी मिलते हैं जिन्होंने "चार्वाक दर्शन" के जरिए ईश्वर की सत्ता और तमाम पाखंडों को ध्वस्त कर क्रांति मचा दी थी. वे अपने दौर में तो ब्रूनो, अरस्तु, सुकरात, होमर से कहीं-कहीं ज्यादा क्रांतिकारी रहे होंगे. उनका काम देख लीजिए. देवता तक नास्तिक दर्शन के प्रभाव से डर गए थे. चार्वाक का असर कितना रहा होगा यह ना जाने कितने पुराणों में आपको मिल जाएगा. मजेदार यह है कि इन दार्शनिकों को मारा नहीं गया बल्कि ऋषि का दर्जा देकर सम्मानित किया गया.

शेक्सपियर इग्लैंड का कालिदास नहीं बना, हमने किसे चुना?

गलती हमारी उस सोच की है कि हमने अभारतीय को हमेशा सबसे अच्छा मान लिया है. उपनिवेशवाद से ग्रस्त सोच हमारी अज्ञानता को उजागर करती है. हम अपनी चीजों को दर्ज नहीं कर पाए जो दुनिया में किसी के पास होती तो वह उसका प्रचार करता घूमता. हमने अपने नायकों या विद्वानों को या तो भगवान् मानकर पूजा या उनके काम से अनजान ही बने रहे. कभी खोज का प्रयास भी नहीं किया. शायद यह उस उपहास का असर भी हो जिसमें कहा गया कि भारत एक सांप बिच्छुओं का देश है. भारतीय चेतना में उपनिवेशवाद कितना गहरा धंस चुका है इसे कालिदास और शेक्सपियर के उदाहरण से भी समझना मुश्किल नहीं है.  

महान अंग्रेजी कवि और नाटककार शेक्सपियर इग्लैंड में 23 अप्रैल 1564 को जन्मा था. उसके जीवनकाल में ही ब्रूनो इटली में फांसी में चढ़ाया गया था. शेक्सपियर के अंग्रेजी नाटक इतिहास प्रसिद्ध हैं. उपनिवेशवाद का शायद ही इससे भद्दा मजाक देखने को मिलेगा. कालिदास भी संस्कृत के महान नाटककार थे. अभिज्ञानशाकुंतलम्,  मेघदूतम्, मालविकाग्निमित्रम् जैसे उसके नाटक विश्व प्रसिद्ध हुए. मध्यकाल में फारसी के जरिए कालिदास का नाटक यूरोपीय भाषाओ में अनुवाद किया गया. कालिदास को पढ़ने के बाद यूरोपीय साहित्य के दिग्गज पागल हो गए. ऐसा लिखा गया- वह भी इतने सौ साल पहले. सांप बिच्छुओं के देश में.

कम से कम डेढ़ हजार साल पहले कालिदास पैदा हुए थे. सोचिए उन्होंने किस दौर की दुनिया में लिखा जिस पर यूरोप पागल हो रहा था. बावजूद इसके यूरोपीय सोच ने उसे "भारत का शेक्सपियर" कहा. हम आज भी कालिदास को भारत का शेक्सपियर कहते हुए बहुत अच्छा महसूस करते हैं. कायदे से तो होना यह चाहिए था कि शेक्सपियर को "इग्लैंड का कालिदास" कहा जाता. देशकाल का न्याय तो यही कहता है. लेकिन महान ब्रिटिश समाज ने वो नायक गढ़ा, जो उनका था और आज भी हम उनके नायकों से खुद को दबा हुआ और बहुत तंग पाते हैं. यह उसी ब्रिटिश चेतना का असर है.

हालांकि बाद में कालिदास के हासिल को ख़त्म करने के लिए कई तरह के दुराग्रह हुए. भारतीय समाज का ठीकरा एक लेखक के ऊपर फोड़ा गया. यह उसकी कल्पनाभर थी या हकीकत. कालिदास की वजह से वह स्वयं और संस्कृत को लगभग अछूत की तरह ट्रीट किया जाता है. उसके नाटक के निम्नवर्गीय किरदारों और उनकी भाषा की वजह से. जबकि आधुनिक दौर में बनने वाली फिल्मों में जब उसी तरह की चीजों का इस्तेमाल होता है, रियलिस्टिक सिनेमा के नाम पर उसकी वाहवाही की जाती है. पुरस्कार दिए जाते हैं.

कालिदास जैसे भी हैं, हैं तो भारत के ही ना. हम उन्हें भारत का शेक्सपियर क्यों कहें?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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