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संस्कृति

ज्ञानवापी पुनरुद्धार: अत्याचार का उपचार करना हमारा अधिकार भी, कर्त्तव्य भी

    • डॉ. अरुण प्रकाश
    • Updated: 19 मई, 2022 05:28 PM
  • 19 मई, 2022 05:28 PM
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शंकराचार्य की प्रेरणा के बाद कई प्राचीन मंदिरों के घंटे पुनः बजने लगे. ऐसा इस देश ने बहुत बार देखा है. हमारे ज्ञान केंद्र और मंदिर छीने गए, अपवित्र हुए. लेकिन उचित समय आने पर उन्हें पुनर्प्रतिष्ठा मिली. हालांकि कभी प्रतिक्रिया स्वरूप दूसरे धर्म/पंथ को दंडित नहीं किया गया. बस अपनी पुनर्प्रतिष्ठा कर ली गई.

काशी की संरचना एक महायंत्र की तरह है और ज्ञानवापी उसका नाभिक है. ज्ञानवापी स्थल प्राचीन समय में शिक्षा की शिवालयी व्यवस्था थी. विश्वेश्वर महादेव का मंदिर और उसके प्रांगण में एक पाठशाला. इसका स्वरूप कितना विराट रहा होगा इसकी झलक स्कन्दपुराण में मिलती है. हालांकि, उसका ठीक आंकलन असंभव है. बिखरे पत्तियों से वृक्ष के रूप का आभास हो सकता है, सम्पूर्ण आंकलन नहीं. लेकिन, यह आभास भी प्रदीप्त है. इतिहासकारों का कहना है कि औरंगजेब ने मंदिर व पाठशालाएं तोड़ने के लिए एक विभाग की स्थापना की और उस विभाग के लिए धन, कर्मचारी व सैनिक टुकड़ी उपलब्ध कराई गई. इसी विभागीय अभियान के तहत औरंगजेब की धर्मान्धता का शिकार अविनाशी काशी भी हुई. म्लेच्छों के आक्रमण से अविमुक्ति का यह क्षेत्र दूषित हुआ. महायंत्र की ऊर्जा विचलित हो गई. हिंदू ऊर्जा व ज्ञान के केंद्र को बचाने में असफल रहे, लेकिन उसका महत्व उनके मन में बना रहा. इसीलिए इस स्थान की पुनर्प्रतिष्ठा के प्रयास चलते रहे.

 ज्ञानवापी अकेला स्थान नहीं है. भारत के कई प्राचीन मंदिर बीच में वर्षों तक खंडहर रहे हैं.

भारत के प्राण परंपरा में है, और परंपरा के प्राण सातत्य में. यह सततता सांसों की तरह घटित होती रहना जरूरी है. हालांकि सातत्य को सुनिश्चित करना दुरूह है, जब निरंतर प्रहार होते रहे हों. इसीलिए, हमारे पूर्वजों ने पुनर्जागरण की प्रविधि अपनाई. जो जहां रुक गया था, उसे छोड़ा नहीं वहीं से लेकर आगे बढ़े. विधर्मी इसे जानते हैं. इसीलिए, उनका हमेशा प्रयास है कि इस प्रवाह को रोकें. जबकि उन्हें पता होना चाहिए कि प्रवाह को रोकना प्रलय का कारण बनता है. वह अपने साथ, अवरोध के हर निशान बहा ले जाता है. आज प्रवाह इतना प्रबल हो गया है कि वह अवरोधों को बहा ले जाने को आतुर है. यह कोई पहली बार नहीं है. भारत यदि प्रकाश में रत है तो उसके मूल में पुनर्जागरण की यही प्रविधि है.

काशी की संरचना एक महायंत्र की तरह है और ज्ञानवापी उसका नाभिक है. ज्ञानवापी स्थल प्राचीन समय में शिक्षा की शिवालयी व्यवस्था थी. विश्वेश्वर महादेव का मंदिर और उसके प्रांगण में एक पाठशाला. इसका स्वरूप कितना विराट रहा होगा इसकी झलक स्कन्दपुराण में मिलती है. हालांकि, उसका ठीक आंकलन असंभव है. बिखरे पत्तियों से वृक्ष के रूप का आभास हो सकता है, सम्पूर्ण आंकलन नहीं. लेकिन, यह आभास भी प्रदीप्त है. इतिहासकारों का कहना है कि औरंगजेब ने मंदिर व पाठशालाएं तोड़ने के लिए एक विभाग की स्थापना की और उस विभाग के लिए धन, कर्मचारी व सैनिक टुकड़ी उपलब्ध कराई गई. इसी विभागीय अभियान के तहत औरंगजेब की धर्मान्धता का शिकार अविनाशी काशी भी हुई. म्लेच्छों के आक्रमण से अविमुक्ति का यह क्षेत्र दूषित हुआ. महायंत्र की ऊर्जा विचलित हो गई. हिंदू ऊर्जा व ज्ञान के केंद्र को बचाने में असफल रहे, लेकिन उसका महत्व उनके मन में बना रहा. इसीलिए इस स्थान की पुनर्प्रतिष्ठा के प्रयास चलते रहे.

 ज्ञानवापी अकेला स्थान नहीं है. भारत के कई प्राचीन मंदिर बीच में वर्षों तक खंडहर रहे हैं.

भारत के प्राण परंपरा में है, और परंपरा के प्राण सातत्य में. यह सततता सांसों की तरह घटित होती रहना जरूरी है. हालांकि सातत्य को सुनिश्चित करना दुरूह है, जब निरंतर प्रहार होते रहे हों. इसीलिए, हमारे पूर्वजों ने पुनर्जागरण की प्रविधि अपनाई. जो जहां रुक गया था, उसे छोड़ा नहीं वहीं से लेकर आगे बढ़े. विधर्मी इसे जानते हैं. इसीलिए, उनका हमेशा प्रयास है कि इस प्रवाह को रोकें. जबकि उन्हें पता होना चाहिए कि प्रवाह को रोकना प्रलय का कारण बनता है. वह अपने साथ, अवरोध के हर निशान बहा ले जाता है. आज प्रवाह इतना प्रबल हो गया है कि वह अवरोधों को बहा ले जाने को आतुर है. यह कोई पहली बार नहीं है. भारत यदि प्रकाश में रत है तो उसके मूल में पुनर्जागरण की यही प्रविधि है.

ज्ञानवापी अकेला स्थान नहीं है. भारत के कई प्राचीन मंदिर बीच में वर्षों तक खंडहर रहे हैं. फिर, पुनर्जागरण ने उन्हें प्रदीप्त किया. एक समय में बौद्ध उत्कर्ष देखकर नहीं लगता था कि सनातन का अनादि प्रवाह अनंत तक चलेगा. लौ मद्धिम हो रही थी. तभी आद्य शंकराचार्य आये और बुझते दीये को तेल से भर दिया. शंकराचार्य की प्रेरणा के बाद कई प्राचीन मंदिरों के घंटे पुनः बजने लगे. ऐसा इस देश ने बहुत बार देखा है. हमारे ज्ञान केंद्र और मंदिर छीने गए, अपवित्र हुए. लेकिन उचित समय आने पर उन्हें पुनर्प्रतिष्ठा मिली. हालांकि कभी प्रतिक्रिया स्वरूप दूसरे धर्म/पंथ को दंडित नहीं किया गया. बस अपनी पुनर्प्रतिष्ठा कर ली गई.

मैं इससे सहमत हूं कि बदले की भावना भयानक है. लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं है. बदले की कार्रवाई तब कही जाती जब हिन्दू अरब देशों में मस्जिद उन्मूलन का अभियान चलाते. बुख़ारा और समरकंद में बुलडोजर चलते. यहां तो हम अपने ऊपर लगे अत्याचार के चिन्ह भर मिटा रहे हैं. अपने घाव पर पट्टी बांध रहे हैं.

ध्यान रहे, हमें अपने ऊपर हुए अत्याचार से उबरने का अधिकार है. विरूपण को रूपवान करने का अधिकार है. अपने ऊपर लगे आघात को उपचारित करने का अधिकार है. ज्ञानवापी का पुनरुद्धार इसी अत्याचार से उबरना है. आघात का उपचार है. इससे उस सततता को सुनिश्चित करना है जो सदियों से चली आ रही है. यहां कुछ गलत तब होता जब मंदिर तोड़े जाने की प्रतिक्रिया में हिन्दू समुदाय कोई मस्जिद तोड़ता. या उस समुदाय को दंडित करने का प्रयास करता. उनका अधिकार भंग करता. ऐसा तो कुछ नहीं किया जा रहा. अपने ऊपर हुए आघात का उपचार, विरूपण को रूप देना हमारा अधिकार भी है और कर्तव्य भी. इसके लिए प्रतीक्षा लंबी हो सकती है, लेकिन सातत्य टूटता नहीं.

वट जैसे विशाल वॄक्ष का बीज महीनों धूल और धूप में पड़े रहकर अनुकूल मौसम की प्रतीक्षा करता है. गोदे गिरने में और मानसून आने में महीनों का अंतराल है. इस प्रतीक्षा में बीज अपनी वट-संभावनाएं सहेजे पड़ा रहता है. हमारे लिए भी अब अनुकूल मौसम है. ज्ञानवापी का पुनरुद्धार हो. ऊर्जा के इस महायंत्र को पुनर्जीवित किया जाए. इसी में सर्वकल्याण है.

और हां, इतिहास और वर्तमान कोई दो पाट नहीं है. वह एक ही सतत प्रवाह के पड़ाव हैं. किसी प्रवाह को निरंतर बहने के लिए उद्गम से अविच्छिन्न रूप से जुड़े रहना जरूरी है. भारत को अपनी यह सततता बनाये रखनी होगी. जो जहां छूटा है, उसे वहीं से लेकर आगे बढ़ना होगा. विरूपण ठीक करने होंगे. ज्ञानवापी का पुनरुद्धार भारत की सततता के लिए अपरिहार्य है.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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