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संस्कृति

...और टूट गई 400 साल पुरानी ये परंपरा

    • पारुल चंद्रा
    • Updated: 21 जनवरी, 2016 06:37 PM
  • 21 जनवरी, 2016 06:37 PM
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ऐतिहासिक फैसले लेना आसान नहीं होता, लेकिन समाजिक विकास और स्वर्णिम भविष्य की कल्पनाओं को साकार रूप देने के लिए अगर कुछ नियमों में बदलाव किए जाएं तो ये घाटे का सौदा नहीं है.

देश के कई बड़े प्राचीन मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश को लेकर बहस जारी है, वहीं 400 सालों की परंपरा को दरकिनार कर एक मंदिर अब महिलाओं और दलितों के लिए अपने द्वार खोल रहा है.

बदलाव अच्छे हैं

गढ़वाल के जौनसर बावर स्थित प्राचीन परशुराम मंदिर में 400 सालों से ये प्रथा चली आ रही थी. मंदिर में महिलाओं और दलितों का आना मना था. लेकिन मंदिर प्रबंधन समिति ने एक अहम बैठक में ये निर्णय लेते हुए मंदिर के इतिहास में एक स्वर्णिम पन्ना जोड़ दिया. अब यहां महिलाएं और दलित बिना रोक टोक अपनी आस्था के दिये जला सकते हैं. मंदिर समिति ने समझदारी दिखाते हुए ये फैसला लिया और जो कहा उसकी जितनी तारीफ की जाए कम है.

उन्होंने कहा कि- 'हमें समय के साथ चलना होगा, और ये फैसला समय के साथ खुद को बदलने की कोशिश का हिस्सा है. ये क्षेत्र विकास कर रहा है, हमारे यहां साक्षरता की दर बढ़ी है, और लोग बदलाव चाहते हैं. पुरानी मान्यताओं के कारण दलित मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते थे. हम उन्हें ये बताना चाहते हैं कि ईश्वर के सामने सब समान हैं और पूजा अर्चना की किसी भी जगह प्रवेश करने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता.'

इतना ही नहीं मानवता की मिसाल देते हुए मंदिर समिति ने एक और ऐतिहासिक निर्णय लिया. सदियों से चली आ रही पशु बलि की प्रथा पर भी उन्होंने रोक लगा दी है.

ये भी पढ़ें- यही है न्याय के देवता का न्याय...

धर्म के ठेकेदार भी लें सबक

सदियों पहले धर्म के ठेकेदारों ने कुछ नियम बनाए जो आज परंपराओं के नाम से जाने जाते हैं. ये नियम धीरे-धीरे हर पीढ़ी को परंपरा बताकर सौंप दिए गए, जिनका पालन करना ही धर्म है, ये समझाया गया. पर ये पौराणिक परंपराएं ऊंच-नीच और छूत-अछूत के आधार पर इंसान...

देश के कई बड़े प्राचीन मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश को लेकर बहस जारी है, वहीं 400 सालों की परंपरा को दरकिनार कर एक मंदिर अब महिलाओं और दलितों के लिए अपने द्वार खोल रहा है.

बदलाव अच्छे हैं

गढ़वाल के जौनसर बावर स्थित प्राचीन परशुराम मंदिर में 400 सालों से ये प्रथा चली आ रही थी. मंदिर में महिलाओं और दलितों का आना मना था. लेकिन मंदिर प्रबंधन समिति ने एक अहम बैठक में ये निर्णय लेते हुए मंदिर के इतिहास में एक स्वर्णिम पन्ना जोड़ दिया. अब यहां महिलाएं और दलित बिना रोक टोक अपनी आस्था के दिये जला सकते हैं. मंदिर समिति ने समझदारी दिखाते हुए ये फैसला लिया और जो कहा उसकी जितनी तारीफ की जाए कम है.

उन्होंने कहा कि- 'हमें समय के साथ चलना होगा, और ये फैसला समय के साथ खुद को बदलने की कोशिश का हिस्सा है. ये क्षेत्र विकास कर रहा है, हमारे यहां साक्षरता की दर बढ़ी है, और लोग बदलाव चाहते हैं. पुरानी मान्यताओं के कारण दलित मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते थे. हम उन्हें ये बताना चाहते हैं कि ईश्वर के सामने सब समान हैं और पूजा अर्चना की किसी भी जगह प्रवेश करने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता.'

इतना ही नहीं मानवता की मिसाल देते हुए मंदिर समिति ने एक और ऐतिहासिक निर्णय लिया. सदियों से चली आ रही पशु बलि की प्रथा पर भी उन्होंने रोक लगा दी है.

ये भी पढ़ें- यही है न्याय के देवता का न्याय...

धर्म के ठेकेदार भी लें सबक

सदियों पहले धर्म के ठेकेदारों ने कुछ नियम बनाए जो आज परंपराओं के नाम से जाने जाते हैं. ये नियम धीरे-धीरे हर पीढ़ी को परंपरा बताकर सौंप दिए गए, जिनका पालन करना ही धर्म है, ये समझाया गया. पर ये पौराणिक परंपराएं ऊंच-नीच और छूत-अछूत के आधार पर इंसान में फर्क करती हैं. उनकी आस्था में फर्क करती हैं. पुरुषों को श्रेष्ठ और महिलाओं को कमतर बताती हैं. ऐसी परंपराओं में बदलाव लाना समाज के लिए बेहद जरूरी हैं.

इस तरह के ऐतिहासिक फैसले लेना आसान नहीं होता, आलोचनाएं और नाराजगी झेलनी पड़ती है. लेकिन समाजिक विकास और स्वर्णिम भविष्य की कल्पनाओं को साकार रूप देने के लिए अगर कुछ नियमों में बदलाव किए जाएं तो ये घाटे का सौदा नहीं है. भारत के सभी मंदिरों को परशुराम मंदिर समिति के इस फैसले से सीख लेनी चाहिए और पुरानी परंपराओं को नई सोच के साथ बदल लेना चाहिए.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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