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यही है न्याय के देवता का न्याय...

    • पारुल चंद्रा
    • Updated: 16 जनवरी, 2016 04:44 PM
  • 16 जनवरी, 2016 04:44 PM
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महिलाओं का मासिक धर्म उन्हें अशुद्ध करार देता है. लेकिन इसके साथ हर स्त्री जन्म लेती है. इसी धर्म की वजह से वो सृजन करती है ऐसे महापुरुषों का जिनकी मूर्तियां मंदिरों में सजाकर उनकी पूजा की जाती है.

देश में असहिष्णुता के नए आयाम स्थापित हो रहे हैं. एक महिला ने असहिष्णु होने का परिचय देते हुए महाराष्ट्र के शिंगणापुर शनि मंदिर में प्रवेश कर पूजा अर्चना कर डाली.

इस मंदिर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है. यहां महिलाएं शनि देव की पूजा नही कर सकतीं. ठीक उसी तरह जैसे केरल के सबरीमाला मंदिर और पद्मनाभस्वामी मंदिर जिसमें महिलाएं पूजा नहीं कर सकतीं. ये कमोबेश उसी तरह की बात है जैसे अंग्रेजों के राज में कुछ होटलों के बाहर लिखा होता था- 'indians and dogs are not allowed'. प्रशंसा करनी होगी उस महिला की जिसने ये हिम्मत कर शनि देव की पूजा की. वो बात और है कि उसके बाद शनि देव का शुद्धिकरण किया गया. क्योंकि धर्म के ठेकेदारों का मानना था कि शनिदेव महिला के स्पर्श करने से अशुद्ध हो गए.

क्या है नजरिया- सारा खेल नजरिये का है, और नजरिये के मूल में होती है सम्मान और अपमान की भावना. कट्टर धर्मावलंबी किसी भी धर्म की मूल भावना का सम्मान करें, यानी धर्म लोगों को एक दूसरे से जोड़ता है, भेद नहीं करता और नफरत नहीं प्यार करना सिखाता है. इस मामले को अगर इस हिसाब से देखें तो हो सकता है, चूंकि शनिदेव न्याय के देवता हैं और उनके नाम पर इतने वर्षों तक महिलाओं के साथ अन्याय हो रहा था, जो उन्हें स्वीकार्य नहीं था, इसीलिए उन्होंने उस महिला को मंदिर में प्रवेश करने की प्रेरणा दी, और वो महिला शनिदेव का पूजन कर सकी. अब यहां एक और मान्यता को जोड़ देते हैं, वो ये कि इस सृष्टि में एक पत्ता भी ईश्वार की मर्जी के बिना नहीं हिल सकता तो जाहिर है कि ईश्वर भी यही चाहते हैं कि महिलाओं के साथ ये अन्याय अब खत्म हो.

जब अढैया और साढ़ेसाती महिला पुरूष का भेद नहीं करते तो महिलाओं से पूजा का अधिकार कैसे छीना जा सकता है. भगवान न तो अमीर-गरीब, छोटे-बड़े का भेद करते हैं और न ही महिला और पुरूष का, ये समाज के ठेकेदारों के दिमाग की उपज है. वैसे टैक्निकली देखें तो ये भगवान के बारे में कहा जाता है कि 'वो अशुद्ध हो गए', जबकि भगवान एक ऐसी...

देश में असहिष्णुता के नए आयाम स्थापित हो रहे हैं. एक महिला ने असहिष्णु होने का परिचय देते हुए महाराष्ट्र के शिंगणापुर शनि मंदिर में प्रवेश कर पूजा अर्चना कर डाली.

इस मंदिर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है. यहां महिलाएं शनि देव की पूजा नही कर सकतीं. ठीक उसी तरह जैसे केरल के सबरीमाला मंदिर और पद्मनाभस्वामी मंदिर जिसमें महिलाएं पूजा नहीं कर सकतीं. ये कमोबेश उसी तरह की बात है जैसे अंग्रेजों के राज में कुछ होटलों के बाहर लिखा होता था- 'indians and dogs are not allowed'. प्रशंसा करनी होगी उस महिला की जिसने ये हिम्मत कर शनि देव की पूजा की. वो बात और है कि उसके बाद शनि देव का शुद्धिकरण किया गया. क्योंकि धर्म के ठेकेदारों का मानना था कि शनिदेव महिला के स्पर्श करने से अशुद्ध हो गए.

क्या है नजरिया- सारा खेल नजरिये का है, और नजरिये के मूल में होती है सम्मान और अपमान की भावना. कट्टर धर्मावलंबी किसी भी धर्म की मूल भावना का सम्मान करें, यानी धर्म लोगों को एक दूसरे से जोड़ता है, भेद नहीं करता और नफरत नहीं प्यार करना सिखाता है. इस मामले को अगर इस हिसाब से देखें तो हो सकता है, चूंकि शनिदेव न्याय के देवता हैं और उनके नाम पर इतने वर्षों तक महिलाओं के साथ अन्याय हो रहा था, जो उन्हें स्वीकार्य नहीं था, इसीलिए उन्होंने उस महिला को मंदिर में प्रवेश करने की प्रेरणा दी, और वो महिला शनिदेव का पूजन कर सकी. अब यहां एक और मान्यता को जोड़ देते हैं, वो ये कि इस सृष्टि में एक पत्ता भी ईश्वार की मर्जी के बिना नहीं हिल सकता तो जाहिर है कि ईश्वर भी यही चाहते हैं कि महिलाओं के साथ ये अन्याय अब खत्म हो.

जब अढैया और साढ़ेसाती महिला पुरूष का भेद नहीं करते तो महिलाओं से पूजा का अधिकार कैसे छीना जा सकता है. भगवान न तो अमीर-गरीब, छोटे-बड़े का भेद करते हैं और न ही महिला और पुरूष का, ये समाज के ठेकेदारों के दिमाग की उपज है. वैसे टैक्निकली देखें तो ये भगवान के बारे में कहा जाता है कि 'वो अशुद्ध हो गए', जबकि भगवान एक ऐसी शक्ति हैं जो किसी भी रूप में हो अशुद्ध हो ही नहीं सकते, धर्म के ठेकेदार ही तो हैं जो भगवान और स्त्री की शुद्धता और अशुद्धता का निर्णय कर रहे हैं. वो ही कह रहे हैं कि ये नीच जात का है तो मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकता, महिला है तो मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकती.

महिला प्रधानमंत्री हो सकती है, राष्ट्रपति हो सकती है, देश में, शहरों में आईपीएस बनकर नेताओं से अपमानित हो सकती है और सबसे बढ़कर मां हो सकती हैं, जिसे हमारे ज्ञानी ध्यानियों ने भगवान के समकक्ष माना है तो उसकी आस्था पर पाबंदी क्यों ? धर्मग्रंथों में बताया गया है कि रामायण में सीता के कारण युद्ध, तो द्रोपदी के कारण महाभारत हुई यानी महिलाओं को प्रारंभ से ही हेय माना जाता रहा है. उन्हें जर और जमीन के साथ विवाद का प्रमुख कारण भी बताया जाता है. क्या अब इसे बदलने की जरूरत नहीं है?

सोच बदलने की सख्त जरूरत है- जिस दौर में ये पाबंदियां लगाई गई होंगी उस दौर में महिलाओं की सामाजिक स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है. समय बदल रहा है महिलाओं को अब अधिकारों से और अधिक वंचित नहीं किया जा सकता. हम 21वीं सदी की ओर बढ़ रहे हैं. आवश्यकतानुसार संविधान में संशोधन किए जा सकते हैं तो इस तरह की पाबंदियों में शिथिलता भी समय की जरूरत है. महिलाओं का मासिक धर्म उन्हें अशुद्ध करार देता है, अगर ये धर्म है तो ये वो धर्म है जिसके साथ हर धर्म और जाति की स्त्री जन्म लेती है.

इसी धर्म की वजह से वो सृजन करती है ऐसे महापुरुषों का जिनकी मूर्तियां मंदिरों में सजाकर उनकी पूजा की जाती है. और उन्हीं माओं के लिए हम कहते हैं कि वो अशुद्ध हैं! जिसने जन्म दिया है उसका अब और अधिक अपमान मत करिये. सनद रहे कि स्त्री केवल आपकी माता नहीं है, बल्कि वो उन देवताओं की भी माता है जिसकी आप उपासना करते हैं, जिसके नाम पर आप उन्हें अपमानित करते हैं. जाहिर है उन देवताओं को भी स्त्री का अपमान स्वीकार्य नहीं होगा.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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