• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
संस्कृति

आस्था, बलिदान और त्याग का महापर्व है ईद-उल-जुहा

    • एम जे वारसी
    • Updated: 22 अगस्त, 2018 10:49 AM
  • 11 सितम्बर, 2016 06:45 PM
offline
जानवर की कुर्बानी तो सिर्फ एक प्रतीक भर है. दरअसल, इस्लाम धर्म जिंदगी के हर क्षेत्र में कुर्बानी मांगता है. इसमें धन व जीवन की कुर्बानी, नरम बिस्तर छोड़कर कड़कती ठंड या भीषण गर्मी में बेसहारा लोगों की सेवा के लिए जान की कुर्बानी वगैरह ज्यादा महत्वपूर्ण हैं.

इस्लामी साल में दो ईदें मनाई जाती हैं- ईद-उल-जुहा और ईद-उल-फितर. ईद-उल-फितर को मीठी ईद कहते हैं. जबकि ईद-उल-जुहा को बकरीद या फिर इसे बड़ी ईद भी कहा जाता है. वैसे तो हर पर्व त्योहार से जीवन की सुखद यादें जुड़ी होती हैं लेकिन ई-उल-फितर और ईद-उल-जुहा से मुसलामानों यानी इस्लाम धर्म के मानने वालों का ख़ास रिश्ता है..

दुनिया में कोई भी कौम आपको ऐसी नहीं मिलेगी जो कोई एक खास दिन त्योहार के रूप में न मनाती हो. इन त्योहारों से एक तो धर्म का विशेष रूप देखने को मिलता है और अन्य सम्प्रदायों व तबकों के लोगों को उसे समझने और जानने का. इस्लाम का मतलब होता है ईश्वर के समक्ष, मनुष्यों का पूर्ण आत्मसमर्पण और इस आत्मसमर्पण के द्वारा व्यक्ति, समाज तथा मानवजाति की 'शान्ति व सुरक्षा' की उपलब्धि. यह अवस्था आरंभ काल से तथा मानवता के इतिहास हज़ारों वर्ष के लंबे सफ़र तक हमेशा से मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता रही है.

इस्लाम धर्म में पांच ऐसे अरकान हैं जिन्हें हर मुसलमान को पूरा करना है. हज उनमें से आखिरी फर्ज माना जाता है. मुसलमानों के लिए जिंदगी में एक बार हज करना जरूरी है अगर उसके पास हज पर जाने लायक धन है. हज पूरा होने की खुशी में ईद-उल-जुहा का त्योहार मनाया जाता है.

 कुर्बानी और त्याग का त्योहार

यह कुर्बानी या बलिदान का त्योहार भी है. इस्लाम में बलिदान का बहुत अधिक महत्व है. कहा गया है कि अपनी सबसे प्यारी चीज अल्लाह की राह में खर्च करो. अल्लाह की राह में खर्च करने का मतलब नेकी और भलाई के कामों में खर्च करना है.

यहूदी, ईसाई और इस्लाम तीनों ही धर्म के पैगंबर हजरत इब्राहीम ने कुर्बानी का जो उदाहरण दुनिया के सामने रखा था, उसे आज भी परंपरागत रूप...

इस्लामी साल में दो ईदें मनाई जाती हैं- ईद-उल-जुहा और ईद-उल-फितर. ईद-उल-फितर को मीठी ईद कहते हैं. जबकि ईद-उल-जुहा को बकरीद या फिर इसे बड़ी ईद भी कहा जाता है. वैसे तो हर पर्व त्योहार से जीवन की सुखद यादें जुड़ी होती हैं लेकिन ई-उल-फितर और ईद-उल-जुहा से मुसलामानों यानी इस्लाम धर्म के मानने वालों का ख़ास रिश्ता है..

दुनिया में कोई भी कौम आपको ऐसी नहीं मिलेगी जो कोई एक खास दिन त्योहार के रूप में न मनाती हो. इन त्योहारों से एक तो धर्म का विशेष रूप देखने को मिलता है और अन्य सम्प्रदायों व तबकों के लोगों को उसे समझने और जानने का. इस्लाम का मतलब होता है ईश्वर के समक्ष, मनुष्यों का पूर्ण आत्मसमर्पण और इस आत्मसमर्पण के द्वारा व्यक्ति, समाज तथा मानवजाति की 'शान्ति व सुरक्षा' की उपलब्धि. यह अवस्था आरंभ काल से तथा मानवता के इतिहास हज़ारों वर्ष के लंबे सफ़र तक हमेशा से मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता रही है.

इस्लाम धर्म में पांच ऐसे अरकान हैं जिन्हें हर मुसलमान को पूरा करना है. हज उनमें से आखिरी फर्ज माना जाता है. मुसलमानों के लिए जिंदगी में एक बार हज करना जरूरी है अगर उसके पास हज पर जाने लायक धन है. हज पूरा होने की खुशी में ईद-उल-जुहा का त्योहार मनाया जाता है.

 कुर्बानी और त्याग का त्योहार

यह कुर्बानी या बलिदान का त्योहार भी है. इस्लाम में बलिदान का बहुत अधिक महत्व है. कहा गया है कि अपनी सबसे प्यारी चीज अल्लाह की राह में खर्च करो. अल्लाह की राह में खर्च करने का मतलब नेकी और भलाई के कामों में खर्च करना है.

यहूदी, ईसाई और इस्लाम तीनों ही धर्म के पैगंबर हजरत इब्राहीम ने कुर्बानी का जो उदाहरण दुनिया के सामने रखा था, उसे आज भी परंपरागत रूप से याद किया जाता है. हजरत मोहम्मद साहब का आदेश है कि कोई व्यक्ति जिस भी परिवार,समाज, शहर या मुल्क में रहने वाला है, उस व्यक्ति का फर्ज है कि वह उस देश, समाज, परिवार की हिफाजत के लिए हर कुर्बानी देने को तैयार रहे. इसका मतलब यह है कि इस्लाम व्यक्ति को अपने परिवार, अपने समाज के दायित्वों को पूरी तरह निभाने पर जोर देता है.

ईद-उल-फितर की तरह ईद-उल-जुहा में भी गरीबों और मजलूमों का खास ख्याल रखा जाता है. इसी मकसद से ईद-दल-जुहा के समान यानी कि कुर्बानी के समान के तीन हिस्से किए जाते हैं. एक हिस्सा खुद के लिए रखा जाता है, बाकी दो हिस्से समाज में जरूरतमंदों में बांटने के लिए होते हैं, जिसे तुरंत बांट दिया जाता है.

यह भी पढ़ें- मुस्लिमों के बिना कैसी होती दुनिया? इस सवाल का जवाब हुआ वायरल

ईद-उल-जुहा का इतिहास काफी पुराना है. भारत में भी ईद-उल-जुहा का त्योहार मनाने का रिवाज़ बहुत पुराना है. मुग़ल बादशाह जहांगीर अपनी प्रजा के साथ मिलकर ईद-उल-जुहा मनाते थे. गैर मुस्लिमों के सम्मान में ईद वाले दिन शाम को दरबार में उनके लिए विशेष शुद्ध शाकाहारी भोजन हिंदू बावर्चियों द्वारा ही बनाए जाते थे. बड़ी चहल-पहल रहती थी. बादशाह दरबारियों और आम प्रजा के बीच इनाम-इकराम भी खूब बांटते थे.

इस्लाम धर्म के अनुसार हर व्यक्ति को ईदुल अज़हा के दिन सुबह सवेरे गुस्ल करना चाहिए. हैसियत के मुताबिक अच्छे कपडे पहनना और खुशबू लगाना चाहिए जो की सुन्नत है. नमाज़ ईदुल अज़हा से पहले कुछ नहीं खाना चाहिए. नमाज़ खुले मैदान में अदा करनी चाहिये. नमाज़ के लिये निहायत सुकून के साथ ऊंची आवाज़ से तकबीरात पढ़ते हुए जाना चाहिये. इस बात का ख्याल रखना चाहिये कि जिन इलाकों में हैसियत वाले लोग ज़्यादा हों वहां तो जितने दिन चाहें कुर्बानी का गोश्त रखकर खायें लेकिन जहां फ़कीर, गरीब, और मोहताज वगैरा ज़्यादा हों जो कुर्बानी नहीं कर सकते, वहां कुर्बानी करने वालों को गोश्त जमा करने की बजाये यह कोशिश करनी चाहिये कि कुर्बानी ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचे.

ईदुल अज़हा में छुपे हुऐ कुर्बानी के ज़ज़्बे का मकसद तो यह है कि इसका फ़ायदा गरीबों तक पंहुचें, उनको अपनी खुशी में शामिल करने का खास इंतजाम किया जायें. ताकि उस एक दिन तो कम से कम उनको अपने नज़र अंदाज़ किये जाने का एहसास न हो और वह कुर्बानी के गोश्त के इंतजार में दाल-चावल खाने पर मजबूर न हों.

 कुर्बानी का असल मकसद गरीबों की मदद..

ईद-उल-अजहा का त्योहार हजरत इब्राहिम (अ.) और उनके पुत्र हजरत इस्माईल (अ.) की याद में मनाया जाता है, जो खुदा के हुक्म पर बिना किसी हिचक के अपने प्यारे बेटे इस्माइल की कुर्बानी देने के लिए तैयार हो गए थे. अल्लाह का हुक्म होते ही हजरत इब्राहिम अपने पुत्र को कुर्बान करने के लिये आबादी से बहुत दूर ले गये और आंख पर पट्टी बांधकर गले पर छुरी चला दी. लेकिन अल्लाह के हुक्म से छुरी नहीं चली और हजरत इब्राहिम अल्लाह के इम्तहान में कामयाब हो गए.

अल्लाह तआला को ये अदा इतनी पसंद आयी कि कयामत तक आने वाले मुसलमानों के लिये यादगार की चीज इबादत के शक्ल में करार दिया. दस जिलहिज्जा से बाहर जिल हिज्जा तक मुसलमान कुर्बानी कर सकते हैं. अल्लाह के पास कुर्बानी से बढ़कर कोई पसंदीदा अमल नहीं हो सकता. मुसलमान यह त्योहार हर साल बड़े ही मुर्सरत और सौहार्द से मनाते हैं.

ईद-उल-जुहा इस्लाम धर्म में विश्वास करने वाले लोगों का एक प्रमुख त्योहार है. इश्वर की राह में अपनी सबसे प्रिय वस्तु का त्याग करना इस त्योहार की विशेषता है. यह इंसान के मन में ईश्वर के प्रति विश्वास की भावना को बढ़ाता है. परस्पर प्रेम, सहयोग और ग़रीबों की सेवा करने का आनंद इस त्योहार के साथ जुड़ा हुआ है. पूरे विश्व में लोग ईद के दिन मिलजुल कर खाना-पीना खाते हैं, गरीब लोगों की मदद करते हैं तथा हर इंसान अपनी किसी बुरी आदत का त्याग करने का प्रण करता है.

जानवर की कुर्बानी तो सिर्फ एक प्रतीक भर है. दरअसल इस्लाम धर्म जिंदगी के हर क्षेत्र में कुर्बानी मांगता है. इसमें धन व जीवन की कुर्बानी, नरम बिस्तर छोड़कर कड़कती ठंड या भीषण गर्मी में बेसहारा लोगों की सेवा के लिए जान की कुर्बानी वगैरह ज्यादा महत्वपूर्ण बलिदान हैं.

इस्लाम धर्म के मानने वालों और इसमें विश्वास रखने वालों के मुताबिक अल्लाह हजरत इब्राहिम की परीक्षा लेना चाहते थे और इसीलिए उन्होंने उनसे अपने बेटे इस्माइल की कुर्बानी देने के लिए कहा. विश्वास की इस परीक्षा के सम्मान में दुनियाभर के मुसलमान इस अवसर पर अल्लाह में अपनी आस्था दिखाने के लिए जानवरों की कुर्बानी देते हैं. कुर्बानी का असल अर्थ यहां ऐसे बलिदान से है जो दूसरों के लिए दिया गया हो.

ईदुल अज़हा के दिन ऐसा लगता है कि मानों यह मुसलमानों का ही नहीं, हर भारतीय का पर्व है. वैसे बड़ी ईद (ईद-उज़-जुहा) और छोटी ईद दोनों भिन्न होते हुए भी सामाजिक रूप से समान होती हैं. ईद की विशेष नमाज पढ़ना, पकवानों का बनना,मित्रों से मिठाई बांटना, नए कपड़े पहनना, सगे-संबंधियों, मित्रों के घर जाना आदि दोनों में समान हैं. भारत की यह परम्परा रही है कि यहां हमेशा से सभी त्योहार प्रेम और भाईचारे के साथ मनाया जाता है. यहां सभी लोग आपस में शांत भाव से एक दूसरे का सम्मान करते हुए त्योहार मनाते हैं.

यह भी पढ़ें- मुस्लिम भाई बकरीद पर जानवरों को मारना बंद करें

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    गीता मय हुआ अमेरिका... कृष्‍ण को अपने भीतर उतारने का महाभियान
  • offline
    वो पहाड़ी, जहां महाकश्यप को आज भी है भगवान बुद्ध के आने का इंतजार
  • offline
    अंबुबाची मेला : आस्था और भक्ति का मनोरम संगम!
  • offline
    नवाब मीर जाफर की मौत ने तोड़ा लखनऊ का आईना...
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲