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संस्कृति

मुस्लिम भाई बकरीद पर जानवरों को मारना बंद करें

    • शेखर गुप्ता
    • Updated: 26 सितम्बर, 2015 02:07 PM
  • 26 सितम्बर, 2015 02:07 PM
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मैं दूसरे धर्म में टांग नहीं अड़ा रहा, लेकिन विनम्रतापूर्वक ये कहता हूं कि ये बर्बादी है, काफी खर्चीला, गंदगीभरा, और इससे बहुत से जानवरों की जान जाती है.

राजनीतिक रूप से सही होने के स्वीकृत मानदंड उम्‍मीद करते हैं कि एक संप्रदाय के अनुयायी दूसरों की प्रथाओं के बारे में न बोलें. मेरा मानना है कि भारतीय धर्मनिर्पेक्षता और हमारे विचार इतने परिपक्व हो गए हैं कि वो अपने मन की बात बिना संकोच के कह सकें.

शेखी बघारना और ईश्वर भक्ति एक साथ नहीं चल सकतीं. न ही बर्बादी या प्रदूषण. विशेषकर दिल्ली के स्कूली बच्चों के बीच ये सिद्धांत अब अभियान का रूप ले चुके हैं, जिसमें ध्वनि और धुंए का प्रदूषण कम करना, और दिवाली पर पटाखे कम करके फिजूल खर्च रोकना शामिल है. लेकिन पटाखे फिर भी फोड़े जाते हैं. बहुत धुंआ होता है लेकिन ध्यान देने लायक कमी आई है.

मुस्लिम समुदाय से भी ठीक ऐसा ही अभियान ईद-उल-अजहा पर जानवारों की कुर्बानी की प्रथा पर आना चाहिए. 

ये त्यौहार बहुत समय पहले हुए एक प्रसिद्ध और बेहद महत्वपूर्ण कुर्बानी की याद दिलाता है. इसका दायरा काफी बढ़ गया है. अलग अलग परिवार में कुर्बानी के लिए बड़े से बड़ा जानवर खरीदने ही होड़ है. मैं विनम्रतापूर्वक ये कहता हूं कि ये बर्बादी है, काफी खर्चीला है, गंदगी भरा है, और इससे बहुत से जानवरों की जान जाती है.

ये शाकाहार के लिए याचिका नहीं है. खाद्य श्रृंखला मे आने वाले जानवरों को मार कर खाना वैध है. लेकिन जैसे जैसे समृद्धि और धार्मिकता बढ़ रही है, हमारे धार्मिक संस्कार भी महंगे और अपव्ययी होते जा रहे हैं. ये सभी धर्मों पर लागू होता है.

ईद पर बहुत से जानवरों को बहुतायत में मारा जाता है, और उन्हें खाया भी जाये ये ज़रूरी नहीं. बहुत से ऊंटों की भी कुर्बानी दी जाती है और आप सोच सकते हैं कि उसका मीट भी कितना होगा.

मारे गए जानवरों की संख्या इतनी ज्यादा है, करीब अरबों में, कि उनकी खाल से ही पूरा अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र बदल जाये. संस्थाओं में इसे बेचकर अपने लिए संसाधन जुटाने की होड़ है. उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान में ईदही फाउंडेशन जिसे अब्दुल सत्तार ईदही चलाते हैं, जिन्हें अक्सर फादर टेरेसा भी कहा जाता है, उन्हें इस तरह...

राजनीतिक रूप से सही होने के स्वीकृत मानदंड उम्‍मीद करते हैं कि एक संप्रदाय के अनुयायी दूसरों की प्रथाओं के बारे में न बोलें. मेरा मानना है कि भारतीय धर्मनिर्पेक्षता और हमारे विचार इतने परिपक्व हो गए हैं कि वो अपने मन की बात बिना संकोच के कह सकें.

शेखी बघारना और ईश्वर भक्ति एक साथ नहीं चल सकतीं. न ही बर्बादी या प्रदूषण. विशेषकर दिल्ली के स्कूली बच्चों के बीच ये सिद्धांत अब अभियान का रूप ले चुके हैं, जिसमें ध्वनि और धुंए का प्रदूषण कम करना, और दिवाली पर पटाखे कम करके फिजूल खर्च रोकना शामिल है. लेकिन पटाखे फिर भी फोड़े जाते हैं. बहुत धुंआ होता है लेकिन ध्यान देने लायक कमी आई है.

मुस्लिम समुदाय से भी ठीक ऐसा ही अभियान ईद-उल-अजहा पर जानवारों की कुर्बानी की प्रथा पर आना चाहिए. 

ये त्यौहार बहुत समय पहले हुए एक प्रसिद्ध और बेहद महत्वपूर्ण कुर्बानी की याद दिलाता है. इसका दायरा काफी बढ़ गया है. अलग अलग परिवार में कुर्बानी के लिए बड़े से बड़ा जानवर खरीदने ही होड़ है. मैं विनम्रतापूर्वक ये कहता हूं कि ये बर्बादी है, काफी खर्चीला है, गंदगी भरा है, और इससे बहुत से जानवरों की जान जाती है.

ये शाकाहार के लिए याचिका नहीं है. खाद्य श्रृंखला मे आने वाले जानवरों को मार कर खाना वैध है. लेकिन जैसे जैसे समृद्धि और धार्मिकता बढ़ रही है, हमारे धार्मिक संस्कार भी महंगे और अपव्ययी होते जा रहे हैं. ये सभी धर्मों पर लागू होता है.

ईद पर बहुत से जानवरों को बहुतायत में मारा जाता है, और उन्हें खाया भी जाये ये ज़रूरी नहीं. बहुत से ऊंटों की भी कुर्बानी दी जाती है और आप सोच सकते हैं कि उसका मीट भी कितना होगा.

मारे गए जानवरों की संख्या इतनी ज्यादा है, करीब अरबों में, कि उनकी खाल से ही पूरा अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र बदल जाये. संस्थाओं में इसे बेचकर अपने लिए संसाधन जुटाने की होड़ है. उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान में ईदही फाउंडेशन जिसे अब्दुल सत्तार ईदही चलाते हैं, जिन्हें अक्सर फादर टेरेसा भी कहा जाता है, उन्हें इस तरह की लाखों खालें मिलती हैं, जिससे वो अपनी गतिविधियों के लिए फंड इकट्ठा करने के लिए बेच देते हैं. ये अच्छी बात है. लेकिन इससे आपको अपव्यय और रक्तपात का अनुमान भी होता है.

यहां एक सुझाव है. ऐसी प्रथा क्यों न शुरू की जाये जहां एक पूरा समुदाय सिर्फ एक ही जानवर की कुर्बानी दे और मीट आपस में बांट ले? इससे बर्बादी नहीं होगी, गंदगी नहीं होगी और इससे जानवर भी ज़्यादा दिनों तक जी सकेंगे.

ऐसा लिखकर मैं 'दूसरे लोगों की धर्म पर टिप्पड़ी मत करो' वाले नियम को तोड़ रहा हूं, आशा करता हूं मेरे बहुत से मुसलमान दोस्त इस पर एक बहस और अभियान शुरू करेंगे. मैंने नेपाल में बड़े पैमान पर होने वाली भैंसों की बलि पर भी ऐसी ही टिप्पणी की थी.

हमारे भी कई मंदिरों में बलि की प्रथा है, जिसे प्रतीकात्मक हो जाना चाहिए. शाही या सामंती पृष्ठभूमि के बहुत से परिवार जहां बलि की प्रथा है वो अब एक बड़े से कद्दू को काटकर इसे प्रतीकात्मक रूप में मनाते हैं.

बेशक समुदाय और व्यक्ति अपने खुद के तरीके चुन सकते हैं, लेकिन आधुनिक समय के हिसाब से बदलाव एक अच्छा विचार है. कम से कम इस पर बहस से तो शुरूआत की ही जा सकती है.

मेरी ओर से सभी मुस्लिम दोस्तों को ईद मुबारक.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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