• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
सिनेमा

जब हिंदुत्व बचाने की लड़ाई नक्सलवाद लड़ने लगे तो बॉक्स ऑफिस पर 'आचार्य' जैसा हादसा होगा!

    • आईचौक
    • Updated: 10 मई, 2022 02:26 PM
  • 10 मई, 2022 02:26 PM
offline
चिरंजीवी और रामचरण की तेलुगु फिल्म आचार्य केस स्टडी है. आचार्य की कहानी में प्रयोग की सारी पराकाष्ठाओं को लांघ दिया गया है.

राजनीति की तरह सिनेमा में भी हिंदुत्व का शोर कितना तगड़ा है इसे समझाने की शायद ही जरूरत पड़े. वह चौतरफा दिख रहा है. जो किसका नाम लेने से भी बचते थे अब वे भी जोर आजमाइश में जुटे हैं. लेकिन एक दिक्कत यह है कि जब कोई निर्माता-निर्देशक महज शोर से प्रेरित होकर कारोबारी फायदे में अंधा होकर दौड़ता है तो वह आचार्य जैसा हादसा ही रचता है. हिंदुत्व को भुनाने के नाम पर हादसा "द कन्वर्जन" भी है, पर चाहे जो भी हो कम से कम 'द कन्वर्जन' की अपनी जमीन वहीं दिख रही है जहां वह खाड़ी है. आचार्य के खाते यह चीज भी आती नहीं दिखती. यह बड़े स्केल की तेलुगु फिल्म है. एक हफ्ता पहले ही रिलीज हुई है.

निर्माताओं ने आचार्य की सफलता के लिए इसमें हर तरह के मसाले का इंतजाम किया था. हिंदुत्व भी है, वाममार्गी आंदोलन के लिए मशहूर मिलिशिया संगठन भी है, एक्शन मारधाड़ भी है और प्रेम वगैरह भी. सबसे बड़ा मसाला तो यह भी है कि चिरंजीवी और रामचरण के रूप में तेलुगु सुपरस्टार पिता-पुत्रों की जोड़ी भी है. बावजूद नाना प्रकार के मसाले काम नहीं आए. फिल्म हफ्तेभर में ही बॉक्स ऑफिस पर डिजास्टर साबित हुई. राजनीतिक आंदोलनों में वैचारिकी की अहमियत और उसकी थोड़ी बहुत समझ रखने वाला आम दर्शक भी फिल्म की कहानी सुनकर माथा पीट लेगा.

आचार्य.

9 दिन में 48 करोड़, नुकसान की भरपाई के लिए एग्जिबिटर्स का दबाव

शायद कोई वामपंथी आंदोलन के इस रूप पर शर्म से चेहरा ढांप लेगा. उसके कहने के लिए है भी कुछ नहीं इसमें. भारतीय सिनेमा में शायद ही किसी ने इस तरह का प्रयोग किया हो. हिंदुत्व को नक्सलवाद से बचाने की फंतासी का महाप्रयोग भी दक्षिण के खाते में गया. कहानी तो आपको बताएंगे. उससे पहले किस तरह डिजास्टर साबित हुई है उसे जान लीजिए. 29 अप्रैल को रिलीज फिल्म ने 9 दिन में वर्ल्ड वाइड सिर्फ 48.08...

राजनीति की तरह सिनेमा में भी हिंदुत्व का शोर कितना तगड़ा है इसे समझाने की शायद ही जरूरत पड़े. वह चौतरफा दिख रहा है. जो किसका नाम लेने से भी बचते थे अब वे भी जोर आजमाइश में जुटे हैं. लेकिन एक दिक्कत यह है कि जब कोई निर्माता-निर्देशक महज शोर से प्रेरित होकर कारोबारी फायदे में अंधा होकर दौड़ता है तो वह आचार्य जैसा हादसा ही रचता है. हिंदुत्व को भुनाने के नाम पर हादसा "द कन्वर्जन" भी है, पर चाहे जो भी हो कम से कम 'द कन्वर्जन' की अपनी जमीन वहीं दिख रही है जहां वह खाड़ी है. आचार्य के खाते यह चीज भी आती नहीं दिखती. यह बड़े स्केल की तेलुगु फिल्म है. एक हफ्ता पहले ही रिलीज हुई है.

निर्माताओं ने आचार्य की सफलता के लिए इसमें हर तरह के मसाले का इंतजाम किया था. हिंदुत्व भी है, वाममार्गी आंदोलन के लिए मशहूर मिलिशिया संगठन भी है, एक्शन मारधाड़ भी है और प्रेम वगैरह भी. सबसे बड़ा मसाला तो यह भी है कि चिरंजीवी और रामचरण के रूप में तेलुगु सुपरस्टार पिता-पुत्रों की जोड़ी भी है. बावजूद नाना प्रकार के मसाले काम नहीं आए. फिल्म हफ्तेभर में ही बॉक्स ऑफिस पर डिजास्टर साबित हुई. राजनीतिक आंदोलनों में वैचारिकी की अहमियत और उसकी थोड़ी बहुत समझ रखने वाला आम दर्शक भी फिल्म की कहानी सुनकर माथा पीट लेगा.

आचार्य.

9 दिन में 48 करोड़, नुकसान की भरपाई के लिए एग्जिबिटर्स का दबाव

शायद कोई वामपंथी आंदोलन के इस रूप पर शर्म से चेहरा ढांप लेगा. उसके कहने के लिए है भी कुछ नहीं इसमें. भारतीय सिनेमा में शायद ही किसी ने इस तरह का प्रयोग किया हो. हिंदुत्व को नक्सलवाद से बचाने की फंतासी का महाप्रयोग भी दक्षिण के खाते में गया. कहानी तो आपको बताएंगे. उससे पहले किस तरह डिजास्टर साबित हुई है उसे जान लीजिए. 29 अप्रैल को रिलीज फिल्म ने 9 दिन में वर्ल्ड वाइड सिर्फ 48.08 करोड़ का कारोबार किया है. तेलुगु या दक्षिण के बॉक्स ऑफिस पर नजर रखने वालों को पता है कि रामचरण और चिरंजीवी जैसे सितारों की किसी फिल्म के कलेक्शन को तेलुगु फिल्म सर्किल में क्या समझा जा रहा होगा.

सिनेमाघरों में फिल्म दिखाने वाले एग्जीबिटर इतने निराश हैं कि सरेआम दुखड़ा रोते नजर आ रहे हैं. चिरंजीवी समेत आचार्य के मेकर्स से नुकसान के भरपाई की मांग कर रहे हैं. निवेशक सिनेमाघरों में आचार्य से हुए नुकसान की भरपाई के लिए ओटीटी पर समय से पहले रिलीज कर रहे ताकि ओटीटी से ही 'भागते भूत की लंगोट' हासिल की जा सके. फिल्म अमेजन प्राइम वीडियो पर 20 मई को स्ट्रीम की जाएगी.  

खैर यह सबकुछ शायद जिस कहानी की वजह से हुआ हो आइए उसके बारे में भी जान लेते हैं. असल में निर्देशक कोरातावा सीवा की यह कहानी तीन किरदारों को केंद्र में लेकर दिखाई गई है. कहानी तीन गांवों की है. इसमें से एक गांव में मंदिर भी है जिसके प्रति तीनों गांवों में श्रद्धा है. हालंकि मंदिर ताकतवर बसवा (सोनू सूद) के कब्जे में है. बसवा बाहुबल से मनमानी करता है. लोगों को मंदिरों में आने से रोकता है. कुल मिलाकर मंदिर पर उसकी मर्जी के अलावा कुछ नहीं है. गांववालों को यह बात बुरी लगती है. रामचरण सिद्ध की भूमिका में हैं जो बसवा के अत्याचार के खिलाफ खड़ा हो जाता है. वह कहता है कि धर्म की जगह पर अधर्म नहीं होने देगा.

मंदिर के लिए कॉमरेडों की जंग दिखती है कहानी में

हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि बसवा और सिद्ध के मामले में आचार्य को टांग अड़ाने के लिए आना पड़ता है. आचार्य यानी चिरंजीवी कुमार नक्सली लीडर हैं. सिद्ध भी बसवा का सिपाही बना नजर आता है. पूजा हेगड़े, सिद्ध के लव इंटरेस्ट के रूप में दिखती हैं. कुल मिलाकर कहानी यही है तीन गांवों के आम लोगों की दिली इच्छा के मुताबिक़ हिंदुत्व को बचाने के लिए आचार्य और उसके कॉमरेड बसवा के खिलाफ मोर्चा खोल देते हैं. निष्कर्ष आप समझ ही सकते हैं. आचार्य ने तो रामचरण की आरआरआर की सफलता का नशा भी काफूर कर दिया होगा.

फिल्म का कारोबारी हासिल साफ़ बता रहा है कि भला बेसिरपैर इस कहानी को देखने दर्शक क्यों ही आते. मसाले तब काम आते हैं जब लोगों को थोड़ा सा लॉजिक भी मिले. निश्चित ही वामधारा का आंदोलन के लिए खड़ा होना हैरानी का विषय नहीं है. अफगानिस्तान के तमाम तालिबानी कुछ समय पहले कर्रा कॉमरेड ही थे. रूस-यूक्रेन की लड़ाई तो ईसाई दुनिया में पोप और रूस के सर्वोच्च धर्मगुरु के बीच की जंग के रूप में भी दिख रही है. रूस में जार साम्राज्य ढहा था, ईसाइयत नहीं. माओ का चीन जहां भी बिजनेस करने जाता है- कन्फ्यूशियस सेंटर साथ लेकर जाता है. पाकिस्तान में भी कन्फ्यूशियस सेंटर के भविष्य को लेकर वह उम्मीद से है बावजूद कि वहां इस्लाम की जड़ें गहरी धंसी हैं.

तेलुगु दर्शकों ने निर्माताओं को बता दिया कि रूस, चीन, पाकिस्तान आदि में आचार्य की कहानी हो सकती है लेकिन अभी भारत का वामपंथ कम से कम हिंदुत्व की लड़ाई लड़ने की छूट नहीं देता. फिल्म हिट हो जाती तो ऐसे सिलसिले की बढ़ने की आशंका थी. वामपंथी दर्शकों को शुक्रिया कहें.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    सत्तर के दशक की जिंदगी का दस्‍तावेज़ है बासु चटर्जी की फिल्‍में
  • offline
    Angutho Review: राजस्थानी सिनेमा को अमीरस पिलाती 'अंगुठो'
  • offline
    Akshay Kumar के अच्छे दिन आ गए, ये तीन बातें तो शुभ संकेत ही हैं!
  • offline
    आजादी का ये सप्ताह भारतीय सिनेमा के इतिहास में दर्ज हो गया है!
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲