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Two Finger Test पीड़िता संग बार-बार रेप जैसा, आश्चर्य कि अब तक जारी कैसे रहा!

    • आईचौक
    • Updated: 31 अक्टूबर, 2022 09:40 PM
  • 31 अक्टूबर, 2022 09:38 PM
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सुप्रीम कोर्ट ने रेप केस में टू फिंगर टेस्ट करने पर रोक लगा दी है. कोर्ट ने कहा कि ऐसा करने वालों को दोषी माना जाएगा. दरअसल, इस टेस्ट प्रक्रिया के दौरान जो गतिविधियां की जाती हैं, वो पीड़िता के साथ दोबारा रेप करने जैसी होती है. इस वजह से सर्वोच्च अदालत को इसे बैन करना पड़ा है.

रेप केस की पुष्टि के लिए किए जाने वाले टू फिंगर टेस्ट के इस्तेमाल पर देश की सर्वोच्च अदालत ने पाबंदी लगा दी है. कोर्ट ने सख्त लहजे में कहा है कि रेप केस की जांच की ये प्रक्रिया गैर कानूनी है, इसे करने वाल शख्स भी बराबर का दोषी है. ऐसे में जो भी ये जांच करते हुए पकड़ा जाए, उसके खिलाफ आईपीसी की संबंधित धाराओं में कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए. जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस हेमा कोहली की बेंच ने भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय को निर्देशित किया है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि किसी भी स्थिति में किसी रेप पीड़िता का टू फिंगर टेस्ट न हो सके. इसके साथ ही कोर्ट ने इस पर दुख भी जताया कि ये अमानवीय जांच आज तक जारी रही है.

यहां सवाल ये खड़ा होता है कि ये टू फिंगर टेस्ट क्या है? इस टेस्ट में ऐसा क्या है, जिसे लेकर सुप्रीम कोर्ट इतनी सख्त नजर आ रही है? अभी तक इस टेस्ट का इस्तेमाल क्यों किया जा रहा था? आइए सबसे पहले ये जानते हैं कि ये टेस्ट क्या है. दरअसल, रेप पीड़िता द्वारा पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराने के बाद सबसे पहले मेडिकल के लिए ले जाया जाता है. इस दौरान कई तरह के टेस्ट किए जाते हैं, ताकि ये साबित किया जा सके कि उक्त पीड़िता के साथ बलात्कार हुआ है या नहीं? इसी दौरान टू फिंगर टेस्ट सबसे ज्यादा किया जाता है. चूंकि इस टेस्ट को करना आसान है. इसे मैन्युअली चेक करने के तुरंत बाद ही जांचकर्ता नतीजे पर पहुंच जाता है. समय ज्यादा नहीं लगता है.

डॉक्टर पीड़िता के प्राइवेट पार्ट में दो उंगली डालकर टेस्ट करते हैं

टू फिंगर टेस्ट के दौरान अस्पताल में डॉक्टर रेप पीड़िता के प्राइवेट पार्ट में अपनी दो उंगली डालकर टेस्ट करते हैं. इसके जरिए ये पता करने की कोशिश की जाती है कि पीड़िता वर्जिन है या नहीं. यदि जांच के दौरान पीड़िता के प्राइवेट पार्ट में डॉक्टर...

रेप केस की पुष्टि के लिए किए जाने वाले टू फिंगर टेस्ट के इस्तेमाल पर देश की सर्वोच्च अदालत ने पाबंदी लगा दी है. कोर्ट ने सख्त लहजे में कहा है कि रेप केस की जांच की ये प्रक्रिया गैर कानूनी है, इसे करने वाल शख्स भी बराबर का दोषी है. ऐसे में जो भी ये जांच करते हुए पकड़ा जाए, उसके खिलाफ आईपीसी की संबंधित धाराओं में कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए. जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस हेमा कोहली की बेंच ने भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय को निर्देशित किया है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि किसी भी स्थिति में किसी रेप पीड़िता का टू फिंगर टेस्ट न हो सके. इसके साथ ही कोर्ट ने इस पर दुख भी जताया कि ये अमानवीय जांच आज तक जारी रही है.

यहां सवाल ये खड़ा होता है कि ये टू फिंगर टेस्ट क्या है? इस टेस्ट में ऐसा क्या है, जिसे लेकर सुप्रीम कोर्ट इतनी सख्त नजर आ रही है? अभी तक इस टेस्ट का इस्तेमाल क्यों किया जा रहा था? आइए सबसे पहले ये जानते हैं कि ये टेस्ट क्या है. दरअसल, रेप पीड़िता द्वारा पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराने के बाद सबसे पहले मेडिकल के लिए ले जाया जाता है. इस दौरान कई तरह के टेस्ट किए जाते हैं, ताकि ये साबित किया जा सके कि उक्त पीड़िता के साथ बलात्कार हुआ है या नहीं? इसी दौरान टू फिंगर टेस्ट सबसे ज्यादा किया जाता है. चूंकि इस टेस्ट को करना आसान है. इसे मैन्युअली चेक करने के तुरंत बाद ही जांचकर्ता नतीजे पर पहुंच जाता है. समय ज्यादा नहीं लगता है.

डॉक्टर पीड़िता के प्राइवेट पार्ट में दो उंगली डालकर टेस्ट करते हैं

टू फिंगर टेस्ट के दौरान अस्पताल में डॉक्टर रेप पीड़िता के प्राइवेट पार्ट में अपनी दो उंगली डालकर टेस्ट करते हैं. इसके जरिए ये पता करने की कोशिश की जाती है कि पीड़िता वर्जिन है या नहीं. यदि जांच के दौरान पीड़िता के प्राइवेट पार्ट में डॉक्टर की उंगलियां आसानी से चली जाती हैं तो ये माना जाता है कि वो वर्जिन नहीं है. इसी आधार पर डॉक्टर अपनी रिपोर्ट दे देता था. लेकिन आज के जमाने में जब वर्जिनिटी कोई विषय नहीं रह गई है, तब इस तरह के टेस्ट से रेप का पता करना अमानवीय ही नहीं निजता का हनन भी है. यहां तक कि इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी सही नहीं पाया गया है. यही वजह है कि इस जांच प्रक्रिया की लंबे समय से बहुत ज्यादा आलोचना होती रही है.

टू फिंगर टेस्ट रेप के बाद पीड़िता संग दोबारा रेप करने जैसा है

सही मायने में देखा जाए तो टू फिंगर टेस्ट रेप के बाद पीड़िता के साथ दोबारा रेप करने जैसा है. आईपीसी की धारा 376 के तहत रेप तभी माना जाता है जब किसी महिला के साथ जबरन शारीरिक संबंध बनाया जाए. इस दौरान सेक्शुअल ऑर्गन में पेनेट्रेशन होना जरूरी है. इस तरह टू फिंगर टेस्ट के दौरान भी ऊंगलियों के जरिए पेनेट्रेशन किया जाता है. ये भले ही पीड़िता की मूक सहमति या मजबूरी का फायदा उठाकर किया जाता है, लेकिन उनके साथ बार-बार रेप करने जैसा है. आईपीसी की धारा 375 के तहत कोई पति भी अपनी पत्नी की इच्छा के खिलाफ जाकर उसके साथ यौन संबंध बनाता है, तो उसे रेप की कैटेगरी में रखा जाता है. इसमें सजा का प्रावधान वही है, जो कि धारा 376 में है.

टू फिंगर टेस्‍ट पीड़िता को शारीरिक-मानसिक चोट पहुंचाता है

ऐसा पहली बार नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने इस टेस्ट पर बैन लगाया है. इससे पहले 2013 में लिलु राजेश बनाम हरियाणा राज्‍य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने टू फिंगर टेस्‍ट को असंवैधानिक करार दिया था. कोर्ट ने इसे रेप पीड़‍िता की निजता और उसके सम्‍मान का हनन करने वाला करार देते हुए कहा था कि यह शारीरिक और मानसिक चोट पहुंचाने वाला है. यह टेस्‍ट पॉजिटिव भी आ जाए तो नहीं माना जा सकता है कि संबंध सहमति से बने हैं. सुप्रीम कोर्ट के बैन के बाद भी शर्मिंदा करने वाला यह टू फिंगर टेस्‍ट होता रहा है. 2019 में ही करीब 1500 रेप सर्वाइवर्स और उनके परिजनों ने कोर्ट में शिकायत की थी. इसमें कहा गया था कि देश की सर्वोच्‍च न्यायालय के आदेश के बावजूद यह टेस्‍ट हो रहा है. इस याचिका में टेस्‍ट को करने वाले डॉक्‍टरों का लाइसेंस कैंसिल करने की मांग की गई थी. 2014 में भारत ने भी इसे अवैज्ञानिक बताते हुए एक गाइडलाइन जारी की थी.

'टू फिंगर टेस्‍ट का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, इसे बंद करें'

सुप्रीम कोर्ट ने एक रेप केस में अपना फैसला सुनाते हुए कहा है, "कोर्ट ने रेप केस में टू फिंगर टेस्ट नहीं करने का कई बार आदेश दिया है. इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. इसके बजाय यह महिलाओं को बार-बार रेप की तरह ही प्रताड़ित करता है. यह टेस्ट गलत धारणा पर आधारित है कि एक सेक्शुअली एक्टिव महिला का बलात्कार नहीं किया जा सकता है. एक पीड़िता की गवाही का संभावित मूल्य उसके यौन इतिहास पर निर्भर नहीं करता है. यह सुझाव देना पितृसत्तात्मक और सेक्सिस्ट है कि एक महिला पर विश्वास नहीं किया जा सकता है जब वह कहती है कि उसके साथ केवल इसलिए बलात्कार किया गया क्योंकि वह सेक्सुअली एक्टिव है. इसे मेडिकल पाठ्यक्रम से भी हटा दिया जाना चाहिए.''

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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