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The Trial Review: इस वेब सीरीज को देखना किसी ट्रायल से कम नहीं है!

    • प्रकाश कुमार जैन
    • Updated: 22 जुलाई, 2023 06:16 PM
  • 22 जुलाई, 2023 06:16 PM
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The Trial Web series Review in Hindi: कुल मिलाकर आठ एपिसोड का तक़रीबन सात घंटे का शो पहले दो एपिसोड के बाद थोड़ा बहुत फ़ास्ट फॉरवर्ड कर देखा जा सकता है. यदि व्यूअर अभिनय पर पारखी नजर रखता है तो थोड़ी बहुत होती कोफ़्त को नजरअंदाज करते हुए देख ही सकते हैं.

प्यार धोखा है. कानून धोखा है. राउंड द कॉर्नर धोखा ही धोखा है. हां, धोखे को अनदेखा कर सीरीज देखने का जोखिम व्यूअर्स खूब उठा रहे हैं, क्योंकि तक़रीबन सभी मेल फीमेल कलाकारों की अदाकारी धोखा नहीं देती. 'द ट्रायल' के बारे में सब कुछ अच्छा नहीं होए हुए भी टुकड़ों टुकड़ों में बहुत कुछ है कि बात करना बनता है. सुपर्ण वर्मा एंड हुसैन दलाल, अब्बास दलाल और सिद्धार्थ कुमार की राइटर टीम ने इंडियन व्यूअर्स के लिए मल्टी-सीजन कानूनी ड्रामा 'द गुड वाइफ' को 'द ट्रायल: प्यार, कानून, धोखा' के रूप में रूपांतरित किया है. लेकिन कहानी में बारीकियों को नजरअंदाज किया जाना या उनका नजरअंदाज हो जाना भारी पड़ गया है, अन्यथा सीरीज मास्टरपीस रीमेक बन सकती थी.

तमाम विसंगतियां हैं जिस वजह से कानूनी दांव पेंचों के मार्फ़त कहानी को कसे जाने का प्रयास विफल होता नजर आता है. मसलन वह एडवोकेट, जो केस दर केस जीतती है, एक जुवेनाइल की गिरफ्तारी के ठीक बाद अपनी टीम की सदस्य से थाने का पता और चार्जशीट की कॉपी एक साथ मांगती है तो स्क्रिप्ट लिखने वालों की बुद्धि पर बस तरस ही आता है. एफआईआर की कॉपी तो फिर भी समझ आती है, लेकिन चार्जशीट? वह तो जांच पड़ताल के बाद पुलिस अदालत में दाखिल करेगी न, जिसके लिए पर्याप्त समय मिलता है उसे.

 यह शो नोयोनिका सेनगुप्ता (काजोल) की कहानी है, जो एक होनहार वकील है, जिसे शादी और बच्चों के बाद अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी थी, और अब अपने पति की गिरफ्तारी के बाद उसे पेशे में लौटना पड़ा है. लेकिन इस महिला वकील की कहानी जमीनी नहीं है. वह घर का खर्च चलाने को अपने पति की मर्सिडीज बेच देती है. बच्चों की स्कूल की फीस छह छह महीने नहीं भर पाती है, वह किराये के जिस घर में रहती है, उसकी साज सज्जा और उसके विस्तार के हिसाब से मुंबई में उसका मासिक किराया डेढ़ दो लाख रुपये से कम नहीं होना...

प्यार धोखा है. कानून धोखा है. राउंड द कॉर्नर धोखा ही धोखा है. हां, धोखे को अनदेखा कर सीरीज देखने का जोखिम व्यूअर्स खूब उठा रहे हैं, क्योंकि तक़रीबन सभी मेल फीमेल कलाकारों की अदाकारी धोखा नहीं देती. 'द ट्रायल' के बारे में सब कुछ अच्छा नहीं होए हुए भी टुकड़ों टुकड़ों में बहुत कुछ है कि बात करना बनता है. सुपर्ण वर्मा एंड हुसैन दलाल, अब्बास दलाल और सिद्धार्थ कुमार की राइटर टीम ने इंडियन व्यूअर्स के लिए मल्टी-सीजन कानूनी ड्रामा 'द गुड वाइफ' को 'द ट्रायल: प्यार, कानून, धोखा' के रूप में रूपांतरित किया है. लेकिन कहानी में बारीकियों को नजरअंदाज किया जाना या उनका नजरअंदाज हो जाना भारी पड़ गया है, अन्यथा सीरीज मास्टरपीस रीमेक बन सकती थी.

तमाम विसंगतियां हैं जिस वजह से कानूनी दांव पेंचों के मार्फ़त कहानी को कसे जाने का प्रयास विफल होता नजर आता है. मसलन वह एडवोकेट, जो केस दर केस जीतती है, एक जुवेनाइल की गिरफ्तारी के ठीक बाद अपनी टीम की सदस्य से थाने का पता और चार्जशीट की कॉपी एक साथ मांगती है तो स्क्रिप्ट लिखने वालों की बुद्धि पर बस तरस ही आता है. एफआईआर की कॉपी तो फिर भी समझ आती है, लेकिन चार्जशीट? वह तो जांच पड़ताल के बाद पुलिस अदालत में दाखिल करेगी न, जिसके लिए पर्याप्त समय मिलता है उसे.

 यह शो नोयोनिका सेनगुप्ता (काजोल) की कहानी है, जो एक होनहार वकील है, जिसे शादी और बच्चों के बाद अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी थी, और अब अपने पति की गिरफ्तारी के बाद उसे पेशे में लौटना पड़ा है. लेकिन इस महिला वकील की कहानी जमीनी नहीं है. वह घर का खर्च चलाने को अपने पति की मर्सिडीज बेच देती है. बच्चों की स्कूल की फीस छह छह महीने नहीं भर पाती है, वह किराये के जिस घर में रहती है, उसकी साज सज्जा और उसके विस्तार के हिसाब से मुंबई में उसका मासिक किराया डेढ़ दो लाख रुपये से कम नहीं होना चाहिए. लेकिन, वह बार बार अपनी लाचारी की तरफ इशारा करती है, कैसे हजम हो मेकर्स की यह बड़ी गलती? खासकर तब जब रियलिटी ड्रामा शो का टैग लगा हो. लेखन की विसंगतियों की वजह से कमियां और भी हैं. शो विशिष्ट होने के लिए लेखन का विशिष्ट होना नितांत जरूरी है; कहानी इतनी सतही नहीं रखी जा सकती. नेपोटिज़्म वाला कार्ड बेतुका सा लगता है. फीमेल लीड सीरीज के फेमिनिज्म का परचम भी धराशायी होता नजर आता है जब फीमेल लीड लॉ फर्म की महिला सहकर्मी पुलिस इंस्पेक्टर के साथ सिर्फ इसलिए हमबिस्तर होती है कि उसे अपने मतलब की जानकारी निकालनी है. हालांकि दो युवा बेटियों की सिंगल मदर नोयोनिका का कार्यालय से घर तक का, जहां दकियानूसी सास भी है, चलता संघर्ष इंगेज करता है.

दूसरी तरफ महत्वाकांक्षी प्रशिक्षु धीरज (गौरव पांडे) का किरदार भी अच्छा क्रिएट हुआ है जो नोयोनिका को अपने प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखता है और मानता है कि विशाल (अली खान) के साथ उसकी दोस्ती के कारण वह दौड़ में आगे है. सिर्फ वो ही क्यों, लॉ फर्म की मालकिन महिला होते हुए भी नोयोनिका के टैलेंट को इस बिना पर नजरअंदाज करती रहती है कि उसके पार्टनर विशाल की वह कभी गर्लफ्रेंड रही थी और शायद अभी भी दोनों के बीच कुछ चल रहा है. देखा जाए तो गलत ना तो गौरव है और ना ही फर्म की मालकिन गलत है. वर्तमान पति और भूतपूर्व प्रेमी के बीच घुट रही महिला का किरदार ही तो है काजोल का और ऐसे कई पल हैं भी शो में.  शो काबिले तारीफ है मीडिया के एंकरों के वल्चरिज्म को दिखाने के लिए जिसके लिए एक फेमस क्रिकेटर की आत्महत्या का प्रसंग क्रिएट किया गया है. इसमें उसकी गर्लफ्रेंड का मीडिया ट्रायल रूपी विद्रूप बखूबी उभरता है. कोर्ट रूम के कुछ दृश्य फेमस टीवी सीरीज 'गिल्टी माइंडस' की तर्ज पर कानूनी नाटकों की चतुर और मनोरंजक प्रकृति से मेल खाते हैं  - एक भ्रूण और जीवन बीमा से जुड़ा मामला और एक कॉलेज छात्र को हत्या के लिए गिरफ्तार किए जाने के बारे में एक मामला विशेष रूप से दिलचस्प है. हालांकि, लेखन टीम ने कुछ अच्छे संवाद भी सीरीज में लिखे हैं, मसलन, 'सबको सब कुछ नहीं मिलता, कुछ लोगों को कामयाबी मिलती है और कुछ लोगों को रिश्ते.' या फिर 'हर चिल्लाने वाला सही नहीं होता और हर ख़ामोश रहने वाला गलत भी नहीं होता.' और वकीलों की बहस के बीच आया संवाद, 'हमें एक क्लाइंट को डिफेंड करना है सच्चाई को नहीं.'    द ट्रायल सीरीज में काजोल अपने किरदार में प्रभावशाली है. उसने एक वकील एक मां एक पत्नी हर किरदार में जान डाल दी है. काजोल के साथ साथ जिशू सेनगुप्ता, शीबा चड्ढा, कुबरा सैत, अली खान, आमिर अली और गौरव पांडे ने भी खूब अच्छा काम किया है. खासकर अली खान और कुबरा सैत लाजवाब हैं. कुल मिलाकर आठ एपिसोड का तक़रीबन सात घंटे का शो पहले दो एपिसोडों के बाद थोड़ा बहुत फ़ास्ट फॉरवर्ड कर देखा जा सकता है और यदि व्यूअर अभिनय पर पारखी नजर रखता है तो थोड़ी बहुत होती कोफ़्त को नजरअंदाज करते हुए देख ही ले; काजोल तो है ही, साथ में अली खान, गौरव पण्डे, कुबरा सैत, सेनगुप्ता आदि सभी कह रहे हैं 'हम किसी से कम नहीं'.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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