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'असगर वजाहतों' की विचारधारा साफ है, आसानी से समझ सकते हैं 'गांधी-गोडसे एक युद्ध' का मकसद

    • डा. सत्येंद्र प्रताप सिंह
    • Updated: 20 जनवरी, 2023 11:12 PM
  • 20 जनवरी, 2023 08:29 PM
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असगर वजाहत के नाटक पर एक फिल्म आ रही है 'गांधी-गोडसे एक युद्ध'. फिल्म का मकसद जो भी हो, नाटक में यही झलकता है कि यह ऐतिहासिक रूप से धार्मिक घृणा की शिकार मानसिकता में लिखा गया है.

राजकुमार संतोषी के निर्देशन में गांधी गोडसे एक युद्ध फिल्म अगले हफ्ते 26 जनवरी के दिन रिलीज किया जाना है. असल में गांधी गोडसे एक युद्ध फिल्म की पूरी कहानी का केंद्र असगर वजाहत के नाटक गोडसे@गांधी.कॉम है. इसमें गांधी को गोडसे द्वारा गोली मारने के बाद की घटनाओं की राजनीतिक व्याख्या है. यह छिपी बात नहीं कि असगर वजाहत के नाटक की पहली लाइन से ही महात्मा गांधी, नाथूराम गोडसे और जवाहरलाल नेहरू, कांग्रेस और तमाम ऐतिहासिक किरदारों के जरिए इतिहास की एक घटना को वर्तमान के लबादे में परोसने की कोशिश है. धार्मिक आधार पर भारत विभाजन के बाद गांधी की स्थिति और गोडसे की मनोस्थिति को अपनी विशेष विचारधारा का आधार बनाकर वजाहत साब ने उभारने का प्रयास किया है.

जाहिर सी बात है कि नाटक को पढ़ने-देखने वाला या इस पर जो फिल्म आ रही है- उसे देखने वाला पॉपकॉर्न खाते हुए भी बता सकता है कि असल में असगर वजाहत साहब का मकसद क्या है या उनकी विचारधारा क्या है. जिसे और स्पष्टता चाहिए वह वजाहत साब के तमाम लिखे से होकर गुजर सकता है. या फिर उनकी फेसबुक पोस्टों को देख सकता है. उर्दू के लिए परेशान और अकबर-औरंगजेब के लिए चिंतित एक वरिष्ठ हिंदी साहित्यकार की दिलचस्पियां कितना विराट और अनंत है- आसानी से समझा जा सकता है. खैर यहां सोशल पोस्ट नहीं, नाटक की बात हो रही है जिस पर गांधी गोडसे एक युद्ध आधारित है.

गांधी गोडसे एक युद्ध.

पहली लाइन से ही तय है विजुअल बनाने की खतरनाक कोशिश

यह नाटक असल में 18 सीन में बंटा हुआ है. जहां पहले सीन में रेडियो के माध्यम से महात्मा गांधी पर हमले को लेकर उद्घोषणा होती है. 15 दिन अस्पताल में रहने के बाद गांधी जी स्वयं से खुद का इलाज करते हैं. वह गोडसे से मिलने जेल जाते हैं जहां वह अपनी पारंपरिक छवि के अनुसार गोडसे को...

राजकुमार संतोषी के निर्देशन में गांधी गोडसे एक युद्ध फिल्म अगले हफ्ते 26 जनवरी के दिन रिलीज किया जाना है. असल में गांधी गोडसे एक युद्ध फिल्म की पूरी कहानी का केंद्र असगर वजाहत के नाटक गोडसे@गांधी.कॉम है. इसमें गांधी को गोडसे द्वारा गोली मारने के बाद की घटनाओं की राजनीतिक व्याख्या है. यह छिपी बात नहीं कि असगर वजाहत के नाटक की पहली लाइन से ही महात्मा गांधी, नाथूराम गोडसे और जवाहरलाल नेहरू, कांग्रेस और तमाम ऐतिहासिक किरदारों के जरिए इतिहास की एक घटना को वर्तमान के लबादे में परोसने की कोशिश है. धार्मिक आधार पर भारत विभाजन के बाद गांधी की स्थिति और गोडसे की मनोस्थिति को अपनी विशेष विचारधारा का आधार बनाकर वजाहत साब ने उभारने का प्रयास किया है.

जाहिर सी बात है कि नाटक को पढ़ने-देखने वाला या इस पर जो फिल्म आ रही है- उसे देखने वाला पॉपकॉर्न खाते हुए भी बता सकता है कि असल में असगर वजाहत साहब का मकसद क्या है या उनकी विचारधारा क्या है. जिसे और स्पष्टता चाहिए वह वजाहत साब के तमाम लिखे से होकर गुजर सकता है. या फिर उनकी फेसबुक पोस्टों को देख सकता है. उर्दू के लिए परेशान और अकबर-औरंगजेब के लिए चिंतित एक वरिष्ठ हिंदी साहित्यकार की दिलचस्पियां कितना विराट और अनंत है- आसानी से समझा जा सकता है. खैर यहां सोशल पोस्ट नहीं, नाटक की बात हो रही है जिस पर गांधी गोडसे एक युद्ध आधारित है.

गांधी गोडसे एक युद्ध.

पहली लाइन से ही तय है विजुअल बनाने की खतरनाक कोशिश

यह नाटक असल में 18 सीन में बंटा हुआ है. जहां पहले सीन में रेडियो के माध्यम से महात्मा गांधी पर हमले को लेकर उद्घोषणा होती है. 15 दिन अस्पताल में रहने के बाद गांधी जी स्वयं से खुद का इलाज करते हैं. वह गोडसे से मिलने जेल जाते हैं जहां वह अपनी पारंपरिक छवि के अनुसार गोडसे को माफ़ कर देते हैं. इस सीन में नाटककार यानी वजाहत साब सरदार पटेल के मुंह से गोडसे का परिचय कराते हैं. या यूं कहे दक्षिणपंथ की पूरी विचारधारा पर एक 'सिली' हमला करता है. (……पूना का है……वहां से एक मराठी अखबार निकालता था. सावरकर उसके गुरू हैं, हिंदू महासभा से भी उसका संबंध है. ये वही है जिसने प्रार्थना सभा में बम विस्फोट किया था.)

ये संवाद नाटक में नाटकीयता को कम बल्कि एक साधारण दक्षिणपंथी विचार के विरोधी का उद्बोधन ज्यादा मालूम पड़ता है. मजेदार यह हैं कि कांग्रेस और तमाम सेकुलर विचारधारा पटेल की विरासत से बचती दिखती है मगर यहां वजाहत ने पटेल के जरिए एक बंटवारा की कोशिश की है. असल में पटेल के मुंह से जो कुछ बुलवाया गया वह कोई और नहीं बल्कि असगर वजाहत का निजी उद्बोधन है और वह शायद किसी मकसद से चाहते हैं कि यह निजी उद्बोधन जनता का उद्बोधन बन जाए. बावजूद कि जनता को चुनने का विकल्प नहीं दिया जाता. पटेल के रास्ते वजाहत के परिचय से नाटक में यह साफ़ भी हो जाता है. खैर.

दूसरे सीन में गोडसे को विलेन बनाने का एक परंपरागत प्रयास है. इसमें कुछ भी नया नहीं है. सालों से यह बड़े सेकुलर लेखक ऐसा लिखते आ रहे हैं. यहां लेखक से अपेक्षा थी मौलिकता की मगर उनके लेखन पर उनकी राजनीति यहाँ भी हावी है. तीसरे सीन में कांग्रेस के आपसी मतभेदों और हैदराबाद के निजाम को क्लीन चिट देना- रजाकारों पर दोष मढ़ने के अलावा कुछ विशेष नहीं है.

इसी तरह पांचवें सीन में गोडसे को गांधी जी द्वारा माफ़ किए जाने पर भी उसके हृदय में परिवर्तन नहीं दिखाई पड़ता है. सिर्फ इसलिए कि नाटककार अपनी कल्पना में दक्षिणपंथ को हर लिहाज से अमानवीय ही मानते हैं. स्वाभाविक है उसमें सुधार या बदलाव नहीं देख सकते. और उनका यह लेखन भी गोडसे की हरकत के पीछे की चिंताओं का जवाब देते नजर नहीं आती. बंटवारे से उपजे एक भी सवाल को छुआ तक नहीं गया है. गोडसे की हरकत को न्यायपूर्ण नहीं कहा जा सकता. मगर जब कोई उस ऐतिहासिक घटना पर विचार बनाने की कोशिश कर रहा है, उससे उम्मीद की जाती है वह ईमानदार रहेगा. क्या गोडसे के विचार वैसे ही आए हैं जैसे गोडसे सोचता था- या यहां भी गोडसे के विचार असगर वजाहत ही तय कर रहे हैं. सच्चाई यही है कि यहां भी वजाहत साहब ही गोडसे का विचार तय कर रहे हैं. गोडसे का विचार सालों से ऐसे ही तय किया जाता रहा है.

भारत में भी यहूदियों जैसे नरसंहार की कोशिशें, बस कोई शेक्सपियर नहीं बन पाया

कोई ईमानदार लेखक होता तो यहां एक मौलिक विचार या बहस स्थापित करने की कोशिश जरूर करता. लेकिन नहीं है तो इसका मतलब है कि लेखक को दूसरी विचारधाराओं से घोर आपत्ति है. उसके पास कोई जगह नहीं है. पूरे नाटक में नाटककार कई जगह पर गोडसे को "हिंदू हृदय सम्राट" व "ब्राह्मण" लिखकर मानो गोडसे के धार्मिक और जातीय पहचान को उभारना चाहता हो, इसके पीछे का उद्देश्य केवल लेखक ही जानता है. उद्देश्य क्या है? असल में वामपंथी (पूरा अफगानिस्तान एक समय वामपंथी ही था) लेखक यहां शेक्सपियर से प्रेरित रहे हैं. शेक्सपियर के यहां भी यह अरब और तुर्क के रास्ते पहुंची है. शेक्सपियर की ऐतिहासिक कृति है- मर्चेंट ऑफ़ वेनिस. इसमें एक यहूदी पात्र है शाइलॉक. शेक्सपियर ने शाइलॉक के जरिए उसका इतना चरित्र हनन किया कि समूचे यूरोप में यहूदियों को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है. हिंदी के सतही ज्ञानियों का कोई भी लिखा पढ़ लीजिए. भारतीय धर्मों और देवताओं और महापुरुषों के खिलाफ कोई भी कैम्पेन देख लीजिए. रामचरित मानस पर कुतर्क ही देख लीजिए.

भारत का सौभाग्य है कि सतही लेखक शेक्सपियर नहीं थे. लोकप्रिय भाषा और विचार नहीं थे. वरना तो जैसे यूरोप में शाइलॉक की वजह से यहूदियों का नरसंहार किया गया- भारत की हर गली में हिंदुओं के नरसंहार होते. बावजूद कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान जहां तथागत के अवशेष एक लापता स्तूफ़ में दबे पड़े हैं, कश्मीर, पश्चिम बंगाल, असम, और केरल आदि जगहों पर भारत के 'कॉपी शेक्सपियरों' के लिखे की वजह से नरसंहार हो रहे हैं. उन्हीं नरसंहारों की चर्चा होती है तो तमाम लेखक बुद्धिजीवियों को वह प्रोपगेंडा नजर आता है.

वजाहत को गोडसे नहीं गांधी से भी दिक्कत है और यहीं उनकी पोल खुल जाती है

खैर. वजाहत के नाटक में गोडसे के माध्यम से सावरकर और गुरूजी का भी नाम बीच में लाकर लेखक ने असल में किसी विचारधारा को नहीं बल्कि हिंदुत्व को ही कठघरे में खड़ा कर देते हैं. और असल में वजाहत जी का यही मूल उद्देश्य भी है. नाटक तो एक बहाना भर है. बाकी हिंदुत्व की विचारधारा को निशाना बनाना ही उनका लक्ष्य है. एकसूत्री लक्ष्य किस तरह है- उनके लिखे साहित्य, उनके बोले और उनकी सोशल मीडिया सक्रियता से पता चल जाता है. शायद गालिब ने इसी वजह से लिखा हो-

"हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन, दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है"

मजेदार यह है कि चाहकर भी वजाहत छिपा नहीं पाए हैं कि उनकी घृणा गोडसे भर से नहीं है. नाटक में गांधी जी के नारी के प्रतीक दृष्टिकोण के बहाने उनकी सनातनी आस्था पर भी सवाल उठाया है. नाटक की सीन 11 में कस्तूरबा के बहाने भी गांधी जी को नाटककार कठघरे में खड़ा करता है. नवीन और सुशीला के प्रसंग के जरिए भी लेखक उन पर प्रश्न उठाता है और अपनी लेखकीय ईमानदारी साबित करना चाहता है. सीन 17 में नाटककार गोडसे के मुख से फिर कहलवाता हैं. शायद लेखक को लगा हो कि पाठक भूल गया होगा. जुसे फिर याद दिलवाता है कि मैंने हिंदुत्व की रक्षा के लिए तुम्हारा (गांधी) वध किया.

सीन 18 में कुछ विशेष नहीं दिखता हैं. बस गोडसे की विचारधारा को गांधी के बहाने अपनी विचारधारा से चुनौती देते हुए दिखता है. और गांधी की आस्था को भी नहीं छोड़ता. यानी वजाहत को गोडसे और गांधी दोनों से दिक्कत है. पर दिक्कत किससे नहीं है यह नहीं बताता. उसके लिए उनका फेसबुक पेज चेक करिए. सोशल मीडिया लोगों के अंदर क्या चल रहा है- पता लगाने का ज्यादा बेहतर टूल है. नाटक पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि लेखक अपने उद्देश्य को छिपाकर अंत तक इंतजार नहीं करना चाहता. बल्कि पहले सीन से ही उद्देश्य लेकर आगे बढ़ता है. जबरदस्ती के संवादों ने भाषा को जटिल बना दिया है. भाषा भी सतही ही है. काश कि लेखक ने इसे उर्दू में लिखा होता तो दिल्ली से दोहा तक और हैदराबाद से कराची तक पढ़ा जाता.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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