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सिनेमा

Sunil Dutt, जिन्होंने जिंदगी के झंझावात में भी हर किरदार को ईमानदारी से जिया

    • मुकेश कुमार गजेंद्र
    • Updated: 25 मई, 2022 10:20 PM
  • 25 मई, 2022 07:07 PM
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बेटा, पति, पिता, अभिनेता, निर्देशक, निर्माता और राजेनात, अपनी जिंदगी में हर तरह के किरदार निभाने वाले हिंदी सिनेमा के सुपरस्टार सुनील दत्त की दास्तान दिल को झकझोर देने वाली है. शोहरत की बुलंदियों पर रहने वाले इस सितारे का जीवन हमेशा झंझावात में रहा, लेकिन उन्होंने हर समस्या से संघर्ष करके एक मिसाल कायम की है.

कुछ लोगों का पूरा जीवन संघर्ष करते हुए बीत जाता है. कभी अपने लिए, तो कभी अपनों के लिए. ऐसे लोग संघर्ष करते हुए भी परिवार और समाज की जिम्मेदारियां इस कदर शिद्दत और ईमानदारी से निभाते हैं कि लोग उनकी मिसाल देने लगते हैं. ऐसी ही एक शख्सियत हिंदी सिनेमा के सुपरस्टार सुनील दत्त थे. शोहरत की बुलंदियों को छूने वाले दत्त साहब ने बचपन से लेकर मरते दम तक संघर्ष किया था. जब वो महज पांच साल के थे तो सिर से पिता का साया हट गया, जवानी में आए तो देश का बंटवारा हो गया, जिसकी वजह से उनको अपनी जन्मस्थली तक छोड़नी पड़ी. किसी तरह से पाकिस्तान से भागकर हिंदुस्तान पहुंचे. हरियाणा के यमुना नगर स्थित मंडोली गांव में परिवार बस गया. खुद लखनऊ होते हुए मुंबई पहुंचे, जहां उनका करियर और परिवार बना. फिर हमेशा-हमेशा के लिए मुंबई के होकर रह गए. लेकिन जीवन संघर्ष सतत जारी रहा.

बचपन से जवानी तक का संघर्ष...

जरा सोचिए किसी बच्चे की उम्र महज पांच साल हो और उसके पिता का निधन हो जाए. उस उम्र में तो पता भी नहीं चलता. लेकिन जैसे-जैसे वो बच्चा बड़ा होता है, उसको उसके पिता की कमी खलने लगती है. कुछ ऐसा ही हाल सुनील दत्त का रहा. बचपन में पिता को खोने के बाद जब वो उन्होंने जवानी की दहलीज पर कदम रखा तो उस धरती को छोड़ना पड़ा, जहां उन्होंने जन्म लिया था. भारत-पाक बंटवारे की वजह से उनको पाकिस्तान के पंजाब से भागकर हिंदुस्तान के हरियाणा में आकर बसना पड़ा. लेकिन जीवकोर्पाजन का जरिया न होने की वजह से उनको पहले लखनऊ और फिर बाद में मुंबई जाना पड़ा. वहां अपना गुजारा करने के लिए बस कंडक्टर की नौकरी करने लगे. कुछ दिनों बाद ऊर्दू जुबान और अच्छी आवाज की वजह से एक रेडियो कंपनी में नौकरी मिल गई. वो रेडियो सिलोन में बतौर प्रजेंटेटर काम करने लगे, जहां फिल्मी हस्तियों का आना-जाना होता था.

करियर...

कुछ लोगों का पूरा जीवन संघर्ष करते हुए बीत जाता है. कभी अपने लिए, तो कभी अपनों के लिए. ऐसे लोग संघर्ष करते हुए भी परिवार और समाज की जिम्मेदारियां इस कदर शिद्दत और ईमानदारी से निभाते हैं कि लोग उनकी मिसाल देने लगते हैं. ऐसी ही एक शख्सियत हिंदी सिनेमा के सुपरस्टार सुनील दत्त थे. शोहरत की बुलंदियों को छूने वाले दत्त साहब ने बचपन से लेकर मरते दम तक संघर्ष किया था. जब वो महज पांच साल के थे तो सिर से पिता का साया हट गया, जवानी में आए तो देश का बंटवारा हो गया, जिसकी वजह से उनको अपनी जन्मस्थली तक छोड़नी पड़ी. किसी तरह से पाकिस्तान से भागकर हिंदुस्तान पहुंचे. हरियाणा के यमुना नगर स्थित मंडोली गांव में परिवार बस गया. खुद लखनऊ होते हुए मुंबई पहुंचे, जहां उनका करियर और परिवार बना. फिर हमेशा-हमेशा के लिए मुंबई के होकर रह गए. लेकिन जीवन संघर्ष सतत जारी रहा.

बचपन से जवानी तक का संघर्ष...

जरा सोचिए किसी बच्चे की उम्र महज पांच साल हो और उसके पिता का निधन हो जाए. उस उम्र में तो पता भी नहीं चलता. लेकिन जैसे-जैसे वो बच्चा बड़ा होता है, उसको उसके पिता की कमी खलने लगती है. कुछ ऐसा ही हाल सुनील दत्त का रहा. बचपन में पिता को खोने के बाद जब वो उन्होंने जवानी की दहलीज पर कदम रखा तो उस धरती को छोड़ना पड़ा, जहां उन्होंने जन्म लिया था. भारत-पाक बंटवारे की वजह से उनको पाकिस्तान के पंजाब से भागकर हिंदुस्तान के हरियाणा में आकर बसना पड़ा. लेकिन जीवकोर्पाजन का जरिया न होने की वजह से उनको पहले लखनऊ और फिर बाद में मुंबई जाना पड़ा. वहां अपना गुजारा करने के लिए बस कंडक्टर की नौकरी करने लगे. कुछ दिनों बाद ऊर्दू जुबान और अच्छी आवाज की वजह से एक रेडियो कंपनी में नौकरी मिल गई. वो रेडियो सिलोन में बतौर प्रजेंटेटर काम करने लगे, जहां फिल्मी हस्तियों का आना-जाना होता था.

करियर बनाने के लिए संघर्ष...

रेडियो सिलोन में ही काम करने के दौरान साल साल 1953 में उनकी मुलाकात फिल्म निर्देशक रमेश सहगल से हुई. सहगल साहब को सुनील दत्त बहुत पसंद आए. उन्होंने उनको अपनी अपकमिंग फिल्म 'रेलवे प्लेटफॉर्म' में काम करने का ऑफर दे दिया. दत्त साहब तुरंत तैयार हो गए. इस तरह उनको बॉलीवुड में अपना पहला ब्रेक मिला. ये फिल्म साल 1955 में रिलीज हुई. इसके बाद साल 1956 में उनको पता चला कि महबूब खान 'मदर इंडिया' बना रहे हैं. इसमें नर्गिस पहले से ही बतौर हीरोइन फाइनल हो चुकी थीं. हीरो की तलाश जारी है. इसके लिए ऑडिशन हो रहे हैं. सुनील दत्त बिना देर किए वहां पहुंच गए. हालांकि, महबूब जब स्टारकास्ट फाइनल कर रहे थे तो उनके दिमाग में पहला नाम दिलीप कुमार का था. लेकिन नर्गिस की आपत्ति के बाद जब ऑडिशन हुए तो सुनील दत्त की एक्टिंग महबूब और नर्गिस दोनों को बहुत पसंद आई. इस तरह फिल्म में उनकी एंट्री हो गई.

फिल्म 'मदर इंडिया' की रिलीज के बाद सुनील दत्त रातों-रात सुपरस्टार बन गए. फिल्म ऑस्कर के लिए नामित हुई. इसके बाद 1950 और 1960 के बीच कई सफल फिल्मों में अभिनय किया. इसमें साधना (1958), इंसान जाग उठा (1959), सुजाता (1959), मुझे जीने दो (1963), खानदान (1965), मेरा साया (1966), पड़ोसन (1967), गुमराह (1963), वक्त (1965) और हमराज़ (1967) जैसी फिल्में शामिल हैं. दत्त साहब बेहतरीन अभिनेता के साथ कुशल निर्माता-निर्देशक भी थे. उनको कई अवॉर्ड मिले. इनमें साल 1963 में फिल्मफेयर पुरस्कार, 1964 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, साल 1965 में फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार, साल 1968 में पद्म श्री पुरस्कार, साल 1995 में फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड, 1998 में राजीव गांधी राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, 1999 में स्क्रीन लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड और 2001 में ज़ी सिने लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड शामिल है.

प्रेमी से पति बनने तक का संघर्ष...

सभी जानते हैं कि अभिनेत्री नरगिस दत्त उनकी प्रेमिका थीं, जिनसे उन्होंने बाद में शादी कर लिया था. दोनों की पहली मुलाकात तो वैसे रेडियो सिलोन के स्टूडियो में ही हो गई थी, लेकिन दूसरी मुलाकात फिल्म 'दो बिघा' के सेट पर हुई. तीसरी मुलाकात फिल्म 'मदर इंडिया' के ऑडिशन के दौरान हुई थी. फिल्म में उन्होंने नर्गिस के बिगड़ैल-गुस्सैल बेटे का किरदार निभाया था. इस फिल्म की शूटिंग के दौरान घटी दो घटनाओं ने दोनों को बहुत करीब ला दिया. पहली घटना सेट पर घटी. दरअसल, हुआ ये कि गुजरात के बिलिमोर गांव में फिल्म 'मदर इंडिया' का सेट लगा हुआ था. वहां एक सीन को फिल्माए जाने के लिए चारों ओर पुआल बिछाए गए थे. पुआलों में आग लगा दी गई. देखते-देखते आग चारों ओर फैल गई. अचानक आवाज आई कि नरगिस आग में फंस गई हैं. सुनील दत्त ने अपनी जान पर खेलकर दहकते अंगारों के बीच से नर्गिस को बाहर निकालकर उनकी जान बचाई.

इस घटना में दत्त साहब बुरी तरह जल गए. उनको तुरंत अस्पताल में भर्ती कराया गया. कहते हैं कि सुनील जितने दिन अस्पताल में भर्ती रहे, नरगिस उनसे मिलने रोज आती रहीं. दोनों के बीच खूब बातें हुआ करती थीं. बातों और मुलाकातों ने नर्गिस के मन में इश्क का बीज बो दिया. उसी दौरान दूसरी घटना घटी. सुनील दत्त की छोटी बहन अपनी एक साल की बच्ची के साथ उनके घर रहा करती थीं. एक दिन पता चला कि उनको ग्लैंड हो गया है. इसे लेकर सुनील परेशान हो गए. शूटिंग के वक्त भी उदास से रहने लगे. एक रोज देर रात जब घर वापस लौटे तो बहन ने बताया कि नर्गिस आई थीं. सुनील हैरान रह गए. बहन ने बताया कि नरगिस उनको लेकर डॉक्टर के पास गई थीं. तीन दिन बाद ऑपरेशन की डेट मिली है. यहां तक कि नर्गिस ने यह भी कहा कि जब तक सुनील की बहन अस्पताल में रहेंगी वो उनकी एक साल की बेटी को अपने साथ रखेंगी. इस घटना ने सुनील दत्त का दिल जीत लिया. उनको लगा वो जैसी लाइफ पार्टनर चाहते थे, मिल गई. एक दिन उन्होंने चलती कार के अंदर नर्गिस को प्रपोज कर दिया. नरगिस ने भी स्वीकार कर लिया.

नरगिस तो सुनील दत्त से शादी के लिए तैयार हो गई हैं, लेकिन समस्या ये आई कि मां से कैसे इजाजत ली जाए. सुनील की मां थोड़े पुराने ख्यालात की थीं. उनसे जब एक्टर ने अपनी शादी के लिए इजाजत मांगी तो उन्होंने कहा, 'सुनील तुम आज जो भी हो खुद की बदौलत हो, इसलिए अपने जीवन का अहम डिसिजीन भी खुद ही करो.' बस फिर क्या था सुनील-नर्गिस के मन में खुशी की लहर दौड़ गई. दोनों कलाकारों ने शादी कर ली. नर्गिस प्यार से सुनील को बिरजू कहा करती थीं. फिल्म मदर इंडिया में सुनील के किरदार के नाम बिरजू ही था. नर्गिस को जब कैंसर हुआ तो सुनील दत्त ने उनके इलाज के लिए भारत से अमेरिका एक कर दिया था. उनके आखिरी समय में यहां तक कि डॉक्टरों के मना करने के बाद उनका वेंटिलेटर सपोर्ट नहीं हटाने दिया, ताकि कुछ पल और नर्गिस को जिंदा रख सकें. वो नर्गिस से बहुत प्यार करते थे. अंतिम वक्त तक उनका साथ दिया था.

एक पिता के रूप में संघर्ष...

सुनील दत्त के तीन बच्चे हैं, संजय दत्त, प्रिया दत्त और नम्रता दत्त. संजय सबसे बड़े हैं. पत्नी नर्गिस के निधन के वक्त संजू को छोड़कर दोनों बच्चियां छोटी थीं. संजू जवान थे, लेकिन वो नशे की आगोश में आ चुके थे. शराब, सिगरेट और यहां तक कि ड्रग्स भी लेने लगे. बतौर पिता दत्त साहब ने बहुत मजबूती से संजय दत्त का साथ दिया था. ड्रग्स की लत छुड़ाने से लेकर मुंबई बम धमाके में उनका नाम आने के बाद उनके लिए पैरवी करने तक, उन्होंने दिन-रात एक कर दिया था. यहां तक कि अपने राजनीतिक विरोधी शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे से तक मिलने गए, ताकि किसी तरह संजू को निर्दोष साबित कर दिया जाए. हालांकि, ये मामला कोर्ट में चला और संजय को सजा हुई. अपनी सजा काटने के बाद अब वो जेल से बाहर अपनी नॉर्मल जिंदगी बीता रहे हैं. एक वक्त था जब संजय दत्त को लेकर वो बहुत चिंतित रहा करते थे. इसकी वजह से उनका राजनीतिक करियर भी प्रभावित हुआ था.

एक राजनेता के रूप में संघर्ष...

सुनील दत्त फिल्मी दुनिया से राजनीति के क्षेत्र में आए अकेले ऐसे अभिनेता थे, जिन्होंने आदर्श कायम किया था. उन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत साल 1984 से की थी. मुंबई की उत्तर-पश्चिम लोकसभा सीट से उन्हें सफलता मिली. उन्हें कांग्रेस की टिकट पर सांसद चुना गया. विभाजन की त्रासदी झेलने वाले दत्त साहब ताउम्र हिंदू-मुस्लिम भाईचारे के पैरोकार बने रहे. विभाजन के दौरान हुए दंगों में उनके एक मुस्लिम दोस्त ने ही उनकी और परिवार की जान बचाई थी. ये बात उनके दिल में घर कर गई थी. वो धर्मभेद में विश्वास नहीं करते थे. धर्मनिरपेक्षता, शांति और सद्भाव जैसे जीवन मूल्यों के प्रति जीवन भर समर्पित रहने वाले सुनील दत्त राजीव गांधी के कहने पर राजनीति में आए थे. देश में अभिनेता से राजनेता बने किसी दूसरे शख़्स में ऐसी खासियत शायद ही होगी. 1991 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद जब मुंबई में दंगे भड़के, तब सुनील दत्त ने लोगों की खूब मदद की थी.

सुनील दत्त शांति और सामाजिक सद्भाव को लेकर लंबी-लंबी पदयात्राएं करने के लिए जाने थे. इन यात्राओं में उनकी बेटी प्रिया दत्त जरूर उनके साथ होती थीं. साल 1987 में उन्होंने पंजाब में उग्रवाद की समस्या के समाधान के लिए मुंबई से अमृतसर के स्वर्ण मंदिर तक 2000 किलोमीटर की पैदल यात्रा की थी. इसके अगले साल 1988 में उन्होंने जापान के नागासाकी से हिरोशिमा तक विश्व शांति और परमाणु हथियारों को नष्ट करने को लेकर 500 किलोमीटर की पैदल यात्रा की थी. साल 1990 में उन्होंने बिहार के भागलपुर दंगे के बाद सांप्रदायिक शांति कायम करने के लिए वहां का दौरा किया था. इसके बाद उन्होंने धार्मिक सद्भाव बनाने के लिए फैज़ाबाद से अयोध्या तक की पदयात्रा की थी. सामाजिक स्तर पर सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए उनके नेतृत्व में कांग्रेस के अंदर सद्भावना के सिपाही नाम से एक विंग तैयार किया गया था. दत्त साहब मनोहन सरकार में कैबिनेट मंत्री भी थे.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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