मेरा जन्म पुरानी दिल्ली में हुआ. बचपन भी यहीं बीता. आज भी मैं पुरानी दिल्ली में ही रहता हूं. यार-दोस्त, जामा मस्जिद से लेकर चांदनी चौक जैसे कई पुराने इलाकों के थे और हैं भी. हर धर्म और भाषा के दोस्त हैं. रामलीला से लेकर पंद्रह अगस्त की धूम सबसे ज्यादा इसी इलाके में रहती है. खान-पान का मुगलाई अंदाज और रौनक इसी दिल्ली में मौजूद है. लाल किले के गौरी शंकर मंदिर से लेकर फतेहपुरी मस्जिद पहुंचने तक सर्वधर्म का असली चेहरा यहां देखने को मिल जाता है.
रिक्शे पर घूमते हुए कुल्फी खाना हो या फिर खट्टी-मीठी शकरकंदी या इमली की चटनी वाले छोले-कुलचे. सब कुछ पुरानी दिल्ली की गलियों में मिल जाता है. यहां अमरक और कटारों की खटास भरी जिंदगी है तो जलेबियां की महक भी जीवन में गहरे तक उतरी हुई है. जहां इस तरह भिन्नता होगी, वहां जिंदगी में भी तरह-तरह के रंग और जायके मिलना स्वाभाविक ही है, और इसी का नाम पुरानी दिल्ली है. फिर पुरानी दिल्ली की भाषा के भी क्या कहने...बल्लीमारान की 'न आ रिया है न जा रिया है' जैसे जुमले सुनने पर कान में मिस्री घोलते हैं. तो किसी बच्चे के खीझ जाने पर उसका यह कहना 'तेरी तो.'
इसकी भाषा में घुलकर अपशब्द माने जाने वाले शब्द चाशनी की तरह बहते लगते हैं. लेकिन ऐसा कतई नहीं है कि पुरानी दिल्ली का हर शख्स हमेशा गाली-गलौज करता नजर आता है. ऐसा नहीं है कि उसकी हर बात की शुरुआत गाली के साथ होती है, और हर बात गाली के साथ खत्म होती है. अब किसी की दुखती रग छेड़ोगे तो वे शहद तो उगलेगा नहीं.
यह भी पढ़ें- फिल्म सेंसरशिप का ऐसा सच, जो अब तक सामने नहीं आया
आज रिलीज हुई सात उचक्के इस बात को स्थापित करने की कोशिश करती है कि अगर आप पुरानी दिल्ली के हैं, तो आप गाली देंगे ही. आपकी बात बिना गाली के पूरी नहीं होगी. शायद पुरानी दिल्ली और गाली का संबंध...
मेरा जन्म पुरानी दिल्ली में हुआ. बचपन भी यहीं बीता. आज भी मैं पुरानी दिल्ली में ही रहता हूं. यार-दोस्त, जामा मस्जिद से लेकर चांदनी चौक जैसे कई पुराने इलाकों के थे और हैं भी. हर धर्म और भाषा के दोस्त हैं. रामलीला से लेकर पंद्रह अगस्त की धूम सबसे ज्यादा इसी इलाके में रहती है. खान-पान का मुगलाई अंदाज और रौनक इसी दिल्ली में मौजूद है. लाल किले के गौरी शंकर मंदिर से लेकर फतेहपुरी मस्जिद पहुंचने तक सर्वधर्म का असली चेहरा यहां देखने को मिल जाता है.
रिक्शे पर घूमते हुए कुल्फी खाना हो या फिर खट्टी-मीठी शकरकंदी या इमली की चटनी वाले छोले-कुलचे. सब कुछ पुरानी दिल्ली की गलियों में मिल जाता है. यहां अमरक और कटारों की खटास भरी जिंदगी है तो जलेबियां की महक भी जीवन में गहरे तक उतरी हुई है. जहां इस तरह भिन्नता होगी, वहां जिंदगी में भी तरह-तरह के रंग और जायके मिलना स्वाभाविक ही है, और इसी का नाम पुरानी दिल्ली है. फिर पुरानी दिल्ली की भाषा के भी क्या कहने...बल्लीमारान की 'न आ रिया है न जा रिया है' जैसे जुमले सुनने पर कान में मिस्री घोलते हैं. तो किसी बच्चे के खीझ जाने पर उसका यह कहना 'तेरी तो.'
इसकी भाषा में घुलकर अपशब्द माने जाने वाले शब्द चाशनी की तरह बहते लगते हैं. लेकिन ऐसा कतई नहीं है कि पुरानी दिल्ली का हर शख्स हमेशा गाली-गलौज करता नजर आता है. ऐसा नहीं है कि उसकी हर बात की शुरुआत गाली के साथ होती है, और हर बात गाली के साथ खत्म होती है. अब किसी की दुखती रग छेड़ोगे तो वे शहद तो उगलेगा नहीं.
यह भी पढ़ें- फिल्म सेंसरशिप का ऐसा सच, जो अब तक सामने नहीं आया
आज रिलीज हुई सात उचक्के इस बात को स्थापित करने की कोशिश करती है कि अगर आप पुरानी दिल्ली के हैं, तो आप गाली देंगे ही. आपकी बात बिना गाली के पूरी नहीं होगी. शायद पुरानी दिल्ली और गाली का संबंध दिखाने के चक्कर में वे सारी सीमाएं लांघ गए. फिल्म में इतनी गालियां दे डालीं कि अगर सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पहलाज निहलाणी थोड़ा सख्त हो जाते और बीप करने पर कुछ ज्यादा फोकस कर लेते तो सात उचक्के बिना डायलॉग वाली फिल्म हो सकती थी. शायद मलिकज़ादा मंजूर अहमद के इस शेर 'चेहरे पे सारे शहर के गर्द-ए-मलाल है/ जो दिल का हाल है वही दिल्ली का हाल है' का जिक्र करना माकूल रहेगा.
क्या 'सात उचक्को' की है पुरानी दिल्ली? |
फिल्म में हंसाने के लिए गालियों का जमकर प्रयोग किया गया है. एक समय देखकर ऐसा लगता है कि फिल्म में इतनी गालियां हैं कि पुरानी दिल्ली के लोग जैसे घरों में न रहकर, परिवारों का हिस्सा न होकर सिर्फ सड़कों पर घूमते शोहदे हैं.
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डायरेक्टर ने दिमाग अच्छा लगाया. पुरानी दिल्ली का सिर्फ एक ही पक्ष दिखाने पर उनका फोकस ज्यादा रहा और इसी चक्कर में उनकी ध्यान कहानी से चूक कर सिर्फ गालियों पर ही फोकस हो गया. अगर उन्होंने पुरानी दिल्ली की असली जिंदगी पर ज्यादा फोकस किया होता तो और फिल्म को और मजबूती के साथ पेश कर पाते. शायद उन्हें डेल्ही बैली से सबक लेना चाहिए था.
उसमें भी पुरानी दिल्ली दिखाई गई थी. उसमें गालियों का इस्तेमाल किया गया था. लेकिन ऐसा कुछ नहीं था कि पुरानी दिल्ली के लोग बिना गाली के बात ही नहीं करते हैं. शायद डायरेक्टर को यह बात याद रखनी चाहिए थी कि यह वही दिल्ली है जहां पहले शहर के सारे रईस, फनकार और शाही लोग रहा करते थे.
यहां का कल्चर गालियों से भी आगे है. गालियां जीवन का एक हिस्सा हो सकती हैं लेकिन सब कुछ यही गालियां ही नहीं हैं. डायरेक्टर साहेब पुरानी दिल्ली को लेकर चाहे जो भी भ्रांति पाले हुए हों लेकिन मैं तो इतना ही कहना चाहता हूं, शेख इब्राहीम ज़ौक़ के इस शेर के हवाले से....
'इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर'
सात उचक्के का ट्रेलर...इसके डॉयलॉग आपको आपत्तिजनक लग सकते हैं...
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