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Raat Akeli Hai: पितृसत्ता के लिए जितने पुरुष ज़िम्मेदार हैं उतनी ही महिलाएं भी!

    • अनु रॉय
    • Updated: 16 अगस्त, 2020 11:03 AM
  • 16 अगस्त, 2020 11:03 AM
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नेटफ्लिक्स (Netflix) पर नवाजुद्दीन सिद्दीकी (Nawazuddin Siddiqui) और राधिका आप्टे (Radhika Apte) की हालिया रिलीज फिल्म 'रात अकेली है' (Raat Akeli Hai) हमारे समाज का वो चेहरा दिखाती है जो न सिर्फ बेहद घिनौना है बल्कि जिसमें पेट्रियार्की बुरी तरह से रची बसी है.

अक्सर सोशल मीडिया (Social Media) पर बड़ी-बड़ी फ़ेमिनिस्ट (Feminist) दीदी लोग पुरुषों को कठघरे में उतार कर बेइज़्ज़त करती नज़र आती हैं. राम (Ram) से ले कर कृष्ण (Krishna) सब इन दीदियों के हाथों धोये जाते हैं. कहीं कोई घटना घटती है जिसमें पहली नज़र में गुनहगार पुरुष नज़र आता है. समाज के सभी पुरुषों को एक क़तार में खड़ा करके उनका चीरहरण कर देती हैं. उनके लिए सभी पुरुष बलात्कारी, व्यभिचारी और हिंसक होते हैं. तो मेरा सवाल अपनी नाज़ुक कंधों पर फ़ेमिनिज़म का झंडा उठाए इन दीदियों से है. आख़िर उन हिंसक, व्यभिचारी पुरुषों को तैयार कौन करता है? ईश्वर तो सिर्फ़ सृजन करता है, उन्हें भला या बुरा कौन बनाता है? क्या इस हिंसक पुरुष समुदाय के पीछे कहीं स्त्रियों का तो हाथ नहीं है. क्या आप जो अपने आप को स्त्रियों का मसीहा समझ रही हैं कहीं आप भी जाने-अनजाने में पुरुषों की एक ऐसी नस्ल को आबाद तो नहीं कर रहीं अपने बेटे, भाई या पति की ग़लतियों को छिपा कर? नहीं, अचानक ये बात ज़हन में नहीं आयी है. बीती रात मैंने नेटफ़्लिक्स (Netflix) पर राधिका आप्टे (Radhika Apte) और नवाजुद्दीन सिद्दीक़ी (Nawazuddin Siddiqui) की क्राइम-थ्रिलर फ़िल्म ‘रात अकेली है’ (Raat Akeli Hai) देखी. फ़िल्म अब ही परत दर परत दिमाग़ में खुल रही है. ये फ़िल्म क्राइम-थ्रिलर से ज़्यादा मुझे समाज का वो सच दिखाती हुई लगी जिसे जान कर हम अनजान बनें रहते हैं.

फिल्म रात अकेली में हमारे समाज का वो चेहरा दिखाया गया है जो वाक़ई बेहद घिनौना है

अब तक तो लगभग सबने ये फ़िल्म देख ही ली होगी। मैं रिव्यू नहीं करूंगी. हां, ब्रीफ़ में कहानी कहूंगी उनके लिए जिन्होंने ये फ़िल्म नहीं देखी है. फ़िल्म की शुरुआत में एक अमीर आदमी का मर्डर हो जाता है. शक के दायरे में उसका समूचा...

अक्सर सोशल मीडिया (Social Media) पर बड़ी-बड़ी फ़ेमिनिस्ट (Feminist) दीदी लोग पुरुषों को कठघरे में उतार कर बेइज़्ज़त करती नज़र आती हैं. राम (Ram) से ले कर कृष्ण (Krishna) सब इन दीदियों के हाथों धोये जाते हैं. कहीं कोई घटना घटती है जिसमें पहली नज़र में गुनहगार पुरुष नज़र आता है. समाज के सभी पुरुषों को एक क़तार में खड़ा करके उनका चीरहरण कर देती हैं. उनके लिए सभी पुरुष बलात्कारी, व्यभिचारी और हिंसक होते हैं. तो मेरा सवाल अपनी नाज़ुक कंधों पर फ़ेमिनिज़म का झंडा उठाए इन दीदियों से है. आख़िर उन हिंसक, व्यभिचारी पुरुषों को तैयार कौन करता है? ईश्वर तो सिर्फ़ सृजन करता है, उन्हें भला या बुरा कौन बनाता है? क्या इस हिंसक पुरुष समुदाय के पीछे कहीं स्त्रियों का तो हाथ नहीं है. क्या आप जो अपने आप को स्त्रियों का मसीहा समझ रही हैं कहीं आप भी जाने-अनजाने में पुरुषों की एक ऐसी नस्ल को आबाद तो नहीं कर रहीं अपने बेटे, भाई या पति की ग़लतियों को छिपा कर? नहीं, अचानक ये बात ज़हन में नहीं आयी है. बीती रात मैंने नेटफ़्लिक्स (Netflix) पर राधिका आप्टे (Radhika Apte) और नवाजुद्दीन सिद्दीक़ी (Nawazuddin Siddiqui) की क्राइम-थ्रिलर फ़िल्म ‘रात अकेली है’ (Raat Akeli Hai) देखी. फ़िल्म अब ही परत दर परत दिमाग़ में खुल रही है. ये फ़िल्म क्राइम-थ्रिलर से ज़्यादा मुझे समाज का वो सच दिखाती हुई लगी जिसे जान कर हम अनजान बनें रहते हैं.

फिल्म रात अकेली में हमारे समाज का वो चेहरा दिखाया गया है जो वाक़ई बेहद घिनौना है

अब तक तो लगभग सबने ये फ़िल्म देख ही ली होगी। मैं रिव्यू नहीं करूंगी. हां, ब्रीफ़ में कहानी कहूंगी उनके लिए जिन्होंने ये फ़िल्म नहीं देखी है. फ़िल्म की शुरुआत में एक अमीर आदमी का मर्डर हो जाता है. शक के दायरे में उसका समूचा परिवार है और इस केस की गुत्थी सुलझाने का ज़िम्मा नवाजुद्दीन साहब के सिर है क्योंकि वही इन्स्पेक्टर हैं. बाक़ी अगर आप फ़िल्म देखेंगे तो समझ जाएंगे.

ख़ैर, तो मैं कह रही थी कि समाज में जब किसी लड़की का बलात्कार होता है, कोई मॉलेस्ट होता है या किसी स्त्री पर उसका पति हाथ उठाता है तो हम पहली नज़र में ही जिसने ये कुकर्म किया है उसे दोषी मान कर सज़ा सुना कर निश्चिंत हो जाते हैं. हम उस दोषी के पीछे यानि उसके बैकग्राउंड को समझने की कोशिश ही नहीं करते हैं.

जैसे अभी भी ये लिखते हुए मेरे दिमाग़ में उस मासूम सुदीक्षा का चेहरा घूम रहा जो अपनी मेहनत के दम पर करोड़ों की स्कॉलरशिप हासिल करके अमेरिका में पढ़ाई करने गयी थी. अभी छुट्टियों में वापिस अपने गांव लौटी थी. एक सांझ को वो अपने भाई के साथ बाइक से कहीं का रही थी और रास्ते में कुछ लड़के उसे छेड़ने लगे, बाइक को चेस करने लगे और फिर उसका ऐक्सिडेंट हो गया और उस ब्रिल्यंट लड़की की कहानी उसी सड़क पर ख़त्म हो गयी.

अब मुझे बताइए क्या सुदीक्षा की मौत के ज़िम्मेवार सिर्फ़ बाइक सवार वो दो लड़के ही हैं ? नहीं. सुदीक्षा की मौत के ज़िम्मेवार उन लड़कों की माएं और उनके घर की बाक़ी की स्त्रियां भी हैं. सज़ा उन सबको मिलनी चाहिए. क्या उन लड़कों की बहन या मां या चाची-बुआ सबको पता नहीं होगा कि उनका लड़का कितना नीच है. क्या उन लड़कों ने पहली बार सुदीक्षा को ही छेड़ा होगा? नहीं. वो लड़के सबसे पहले अपने घर की किसी लड़की को छेड़े होंगे. उस लड़की ने या तो शर्म या डर के मारे ये बात अपने घर वालों को नहीं बताई होगी. और अगर बताई भी होगी तो पुत्र मोह में आ कर बेटे की मां ने उस बात को छिपा लिया होगा.

मैंने सिर्फ़ एक उदाहरण दिया है. बलात्कारी या छेड़खानी करने वाले लड़के/मर्द ऐसे ही माँ की आंचल के साये में तैयार किए जाते हैं. कई बार बेटे के बदले उस जगह पर पति या ससुर होते हैं. औरतें घर की इज़्ज़त बची रहे इसलिए दूसरे लड़कियों की इज़्ज़त तार-तार होने देती हैं. फिर कई बार उनका ख़ुद का लालच इतना बढ़ जाता है कि बेटी के साथ अगर कुछ हुआ है और सामने वाला उसकी एवज़ में अगर मोटी रक़म या बेटी के इज़्ज़त के बदले बेटे की ज़िंदगी संवारने की बात कहे तो बेटियों को चुप करवा देती हैं.

कई बार वो मज़बूर भी होती हैं क्योंकि समाज मर्द को नहीं बल्कि उनकी लड़की को चरित्रहीन साबित कर देगा तो कई बार वो जान बूझ कर स्वार्थी हो जाती हैं लेकिन फिर वही बात आ जाती है कि समाज क्या सिर्फ़ मर्दों से बनता है? लड़की को चरित्रहीन क्या सिर्फ़ पुरुष ठहराते हैं? घर में ही बेटा बहू को मार रहा होता है क्या सास कभी अपने बेटे को रोकने जाती है? अपवाद की कहानी मुझे सुनाइएगा मत. ठीक न. मैं देश के अलग-अलग हिस्सों में रही हूं और मैंने देखा है लगभग कमोबेश बेटे के लिए अंधा प्रेम हर मां के दिल में.

तो अब मुझे बताइए कि क्या पेट्रीआर्क़ी के लिए सिर्फ़ पुरुष कोसे जाने चाहिए? क्यों न उन स्त्रियों को भी बराबर का ज़िम्मेवार माना जाए देश में लड़कियों की बदहाल स्तिथि के लिए. सोचिएगा.

जानती हूं कि जो मैं लिख रही हूं वो बहुत से लोगों को कड़वा लगेगा लेकिन हक़ीक़त उससे बदल नहीं जाएगा. ऐसी ही कड़वी बात फ़िल्म ‘रात अकेली है’ भी कहती है. जिसमें एक मां जानती है कि उसकी बेटी के साथ उसके किसी अपने ने क्या किया है लेकिन बजाय बेटी को इंसाफ़ दिलवाने के वो चुनती है बेटे कि खुशियां. बेटे की ज़िंदगी का ऐश-ओ-आराम. और फिर आयरनी यही है कि फ़िल्म के अंत में उस मां को एहसास हो जाता है लेकिन हक़ीक़त में ऐसी मांओं को कभी एहसास नहीं होता.

वो बेटियों के ऊपर बेटों को ही चुनती हैं. तो जब तक माएं नहीं बदलेंगी ये समाज नहीं बदलेगा. देश निर्भया और सुदीक्षा जैसी बेटियों को खोता रहेगा. पढ़ कर इसे भूलिएगा नहीं अपने गिरेबान में झांकिएगा ज़रा.

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