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भारतीय सिनेमा में किरदारों के प्रोफेशन को कभी तवज्जो नहीं मिली

    • आईचौक
    • Updated: 09 अक्टूबर, 2017 09:55 PM
  • 09 अक्टूबर, 2017 09:55 PM
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फिल्म प्रोड्यूसर तर्क देते हैं कि एक मेज के इर्द-गिर्द बैठे लोगों को देखने के लिए कोई भी पैसा खर्च नहीं करेगा. एक वकील, जासूस या क्रिमिनल फिल्मों को दिलचस्प बनाते हैं. लेकिन अब दर्शकों का रूझान बदल रहा है.

मेनस्ट्रीम की कुछ गिनी-चुनी फिल्में ही हैं जो खाने के केंद्र में रखकर बनाई गई हो. इस हफ्ते रिलीज हुई शेफ भी इस कड़ी में नया फेज शुरू कर सकती है. इसके पहले 'चीनी कम' में अमिताभ बच्चन और 'रामजी लंदनवाले' में आर माधवन शेफ की भूमिका में थे.

प्रोफेशन

हिंदी सिनेमा में किसी भी कहानी का लोकेशन या उसका संदर्भ बहुत महत्वपूर्ण होता है. शायद यही वजह है कि बीआर चोपड़ा ने अपनी फिल्म नया दौर के लिए प्रमाणिक स्थानों पर शूट करना जरूरी समझा. क्योंकि प्रमाणिक स्थलों के बगैर परंपरागत जीवन पर औद्योगिकीकरण के प्रभाव को दिखाने से कहानी का प्रभाव कम हो जाता.

अगर किसी फिल्म की सेटिंग उसकी विशिष्टता में चार चांद लगाती है तो वहीं मुख्य किरदार का पेशा भी कहानी में अहम किरदार निभाता है. तेरे घर के सामने फिल्म का ही उदाहरण लें. इस फिल्म की कहानी में कुछ नया नहीं था. फिल्म की कहानी का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. लड़की और लड़के के पिता के बीच कट्टर दुश्मनी है. लेकिन फिल्म का हीरो (देव आनंद) अपनी प्रेमिका (नूतन) के पिता (हरिंद्रनाथ चट्टोपाध्याय) के यहां ही आर्किटेक्ट की नौकरी करता था. साथ ही उसे खुद उसके पिता (ओमप्रकाश) ने अगल-बगल के प्लॉटों में घर बनाने का काम सौंपा था. ये पृष्ठभूमि ही पूरी फिल्म की जान है.

लेकिन फिर भी अधिकांश हिंदी फिल्मों में हीरो के काम को ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती. जब तक कि हीरो कोई पुलिस ऑफिसर, वकील या डॉक्टर नहीं हो. नतीजन ज्यदातर फिल्मों में मुख्य किरदार एक ही तरह के किरदार निभाते चले गए. एक समय ऐसा भी आया जब हिंदी सिनेमा में 'हीरो' की परिभाषा नाचने, गाने तक ही सीमित रह गया, न की उसके एक्शन की वजह से हीरो का तमगा मिलता.

अगर लोकप्रिय सिनेमा के आधार पर समाज को समझा जाए तो क्या ये माना जाए कि कुछ साल पहले तक ज्यादातर भारतीय बड़े पैमाने पर पुलिस ऑफिसर, वकील, डॉक्टर या अमीर व्यापारियों की संतान ही होते थे. जो सिर्फ अपने प्यार को पाने के लिए दुनिया लांघते थे? 1990 के दशक में एमबीए छात्रों...

मेनस्ट्रीम की कुछ गिनी-चुनी फिल्में ही हैं जो खाने के केंद्र में रखकर बनाई गई हो. इस हफ्ते रिलीज हुई शेफ भी इस कड़ी में नया फेज शुरू कर सकती है. इसके पहले 'चीनी कम' में अमिताभ बच्चन और 'रामजी लंदनवाले' में आर माधवन शेफ की भूमिका में थे.

प्रोफेशन

हिंदी सिनेमा में किसी भी कहानी का लोकेशन या उसका संदर्भ बहुत महत्वपूर्ण होता है. शायद यही वजह है कि बीआर चोपड़ा ने अपनी फिल्म नया दौर के लिए प्रमाणिक स्थानों पर शूट करना जरूरी समझा. क्योंकि प्रमाणिक स्थलों के बगैर परंपरागत जीवन पर औद्योगिकीकरण के प्रभाव को दिखाने से कहानी का प्रभाव कम हो जाता.

अगर किसी फिल्म की सेटिंग उसकी विशिष्टता में चार चांद लगाती है तो वहीं मुख्य किरदार का पेशा भी कहानी में अहम किरदार निभाता है. तेरे घर के सामने फिल्म का ही उदाहरण लें. इस फिल्म की कहानी में कुछ नया नहीं था. फिल्म की कहानी का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. लड़की और लड़के के पिता के बीच कट्टर दुश्मनी है. लेकिन फिल्म का हीरो (देव आनंद) अपनी प्रेमिका (नूतन) के पिता (हरिंद्रनाथ चट्टोपाध्याय) के यहां ही आर्किटेक्ट की नौकरी करता था. साथ ही उसे खुद उसके पिता (ओमप्रकाश) ने अगल-बगल के प्लॉटों में घर बनाने का काम सौंपा था. ये पृष्ठभूमि ही पूरी फिल्म की जान है.

लेकिन फिर भी अधिकांश हिंदी फिल्मों में हीरो के काम को ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती. जब तक कि हीरो कोई पुलिस ऑफिसर, वकील या डॉक्टर नहीं हो. नतीजन ज्यदातर फिल्मों में मुख्य किरदार एक ही तरह के किरदार निभाते चले गए. एक समय ऐसा भी आया जब हिंदी सिनेमा में 'हीरो' की परिभाषा नाचने, गाने तक ही सीमित रह गया, न की उसके एक्शन की वजह से हीरो का तमगा मिलता.

अगर लोकप्रिय सिनेमा के आधार पर समाज को समझा जाए तो क्या ये माना जाए कि कुछ साल पहले तक ज्यादातर भारतीय बड़े पैमाने पर पुलिस ऑफिसर, वकील, डॉक्टर या अमीर व्यापारियों की संतान ही होते थे. जो सिर्फ अपने प्यार को पाने के लिए दुनिया लांघते थे? 1990 के दशक में एमबीए छात्रों की एक बड़ी खेप दिखाई दी. लेकिन इस समय की लोकप्रिय हिंदी फिल्मों को देखते हुए ये मान लेना चाहिए कि ऐसी कोई भी घटना सच नहीं थी.

किरदार

हिंदी सिनेमा में हर चीज की तरह मुख्य किरदारों के काम को भी प्राथमिकता नहीं दी जाती थी. 1970 के मध्य तक हमारी सिनेमा में महिलाओं के लिए कैरेक्टर ईजाद करने की कोई कोशिश नहीं की गई. इस बात पर भी तर्क-वितर्क हो सकता है कि अगर सिर्फ कुछ निश्चित प्रकार के हिंदी फिल्मों ने ही समाजिक परिवेश पर कब्जा जमा रखा था तो निश्चित रूप से कुछ व्यवसायों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया है. और दरअसल पूरे विश्व में यही होता है.

किरदारों के प्रोफेशन के प्रति फिल्म इंडस्ट्री का रवैया बदल रहा है

अमेरिका की जॉब सर्च इंजन मॉन्सटर ने एक आर्टिकल में लिखा कि कैसे कई स्क्रीनराईटर कुछ प्रोफेशन को ही दिखाते हैं. उनके लिए पत्रकार शराब पीने, तेजी से बात करने, रिस्क लेने वाले, हेल्दी रिलेशनशीप नहीं बना पाने वाले होते हैं. साथ ही पुरूष कैरेकटर बुद्धिमान, संवेदनशील, सुंदर, पैशेनेट होते हैं. उदाहरण के लिए- Sleepless in Seattle, Indecent Proposal, The Lake House, Intersection, Jungle Fever, The Last Kiss, Breaking and Entering, Love, Actually and My Super Ex-Girlfriend फिल्मों को देख लें.

परिवर्तन

प्रोड्यूसर या स्टूडियो के अधिकारी ये तर्क देते हैं कि एक मेज के इर्द-गिर्द बैठे लोगों को देखने के लिए कोई भी पैसा खर्च नहीं करेगा. इसलिए एक वकील, एक जासूस या एक क्रिमिनल फिल्मों को दिलचस्प बनाते हैं. लेकिन अब बदलते समय के साथ दर्शकों का रूझान भी बदल रहा है. यही कारण है कि अब हमारी फिल्मों में हीरो के किरदार शेफ, एक छोटे शहर के दुकान का मालिक (दम लगाके हइशा में आयुष्मान खुराना) चोरी की शौकीन (सिमरन में कंगना रनौट), एक सिनेमाटोग्राफर (डियर जिंदगी में आलिया भट्ट), जैसे किरदारों ने जगह बना ली है.

सच ये है कि दर्शकों अपने पैसे कई जगहों पर खर्च करते हैं थियटर, ऑनलाइन, और इस तरह के पात्र उन्हें संतुष्टी देते हैं.

(Mail Today से साभार)

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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