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बॉलीवुड भारत का सिनेमा नहीं, RRR शुद्ध तेलुगु फिल्म, राजमौली ने क्या गलत कहा- जो बवाल हो रहा?

    • आईचौक
    • Updated: 17 जनवरी, 2023 02:18 PM
  • 17 जनवरी, 2023 02:18 PM
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एसएस राजमौली ने आरआरआर को बॉलीवुड से अलग तेलुगु फिल्म बता दिया तो कुछ लोगों के पेट में दर्द होने लगा है. वे भारतीयता की दुहाई दे रहे हैं. अब उनसे कौन पूछे कि बॉलीवुड भारतीयता का अग्रदूत कब था भई?

एसएस राजमौली ऐसे फिल्ममेकर साबित हो रहे हैं जिनकी फिल्म 'आरआरआर' पश्चिमी देशों में सफलता के मायने बदलते दिख रही है. आरआरआर के गाने "नाटू नाटू" ने हाल ही में गोल्डन ग्लोब्स 2023 में बेस्ट ओरिजिनल सॉंग का प्रतिष्ठित पुरस्कार जीता. फिल्म ऑस्कर में नॉमिनेट है और टीम आरआरआर हॉलीवुड में फिल्म के पक्ष में जबरदस्त कैम्पेन करते देखी जा सकती है. हर किसी की नजर में आरआरआर ही है. स्वाभाविक है कि पश्चिम उसके जादू में नाच रहा है. इस बीच आरआरआर को लेकर राजमौली के एक बयान पर बहस देखने को मिल रही है. खासकर हिंदी बेल्ट में कुछ लोग उनकी लानत-मलानत करते नजर आ रहे हैं.

बहस करने वाले वही लोग हैं जिनका मुंह तेलुगु क्षेत्र हैदराबाद में उर्दू की मनमानियों और बेतहाशा बढ़ रही अरबी संस्कृति पर सिल जाता है, मगर हॉलीवुड में राजमौली के एक वाजिब बयान भर पर हिंदी की वैशाखी लेकर विलाप करते देखे जा सकते हैं. असल में राजमौली एक प्रोग्राम में बात रख रहे थे. इस दौरान पश्चिमी पत्रकार को करेक्ट करते हुए उन्होंने बताया कि आरआरआर कोई बॉलीवुड फिल्म नहीं है. बल्कि यह एक तेलुगु फिल्म है जो भारत के दक्षिण से आती है. वे (राजमौली) जहां से हैं. अब राजमौली का यह बयान तथ्यों में पूरी तरह से साफ़ है. लेकिन इसके बहाने इंटरनेट पर उनके ऊपर आरोप लगने शुरू हो गए हैं.

एक धड़ा कह रहा कि राजमौली को ऐसा बयान नहीं देना चाहिए. ऑस्कर में उनकी फिल्म भारतीय फिल्म के रूप में गई है. वे निरर्थक भाषा का विवाद खड़ा कर रहे हैं. जिस तरह की बहस हो रही है उससे तो यही उद्देश्य पता चलता है कि बयान के जरिए हिंदी-तेलुगु भाषियों को लड़ाने की कोशिश है. हिंदी क्षेत्रों में दक्षिण भारतीय सिनेमा को कमजोर करने की कोशिशें हैं. राजमौली ने कब कहा कि उनकी फिल्म भारत का प्रतिनिधित्व नहीं करती है. उन्होंने तो बस यही करेक्ट करना चाहा कि उनकी फिल्म तेलुगु है बॉलीवुड नहीं. एक तरह से उन्होंने भारतीय सिनेमा को लेकर पश्चिम की धारणा को साफ़ करना चाहा कि भारतीय फिल्मों का मतलब सिर्फ बॉलीवुड भर नहीं है.

एसएस राजमौली ऐसे फिल्ममेकर साबित हो रहे हैं जिनकी फिल्म 'आरआरआर' पश्चिमी देशों में सफलता के मायने बदलते दिख रही है. आरआरआर के गाने "नाटू नाटू" ने हाल ही में गोल्डन ग्लोब्स 2023 में बेस्ट ओरिजिनल सॉंग का प्रतिष्ठित पुरस्कार जीता. फिल्म ऑस्कर में नॉमिनेट है और टीम आरआरआर हॉलीवुड में फिल्म के पक्ष में जबरदस्त कैम्पेन करते देखी जा सकती है. हर किसी की नजर में आरआरआर ही है. स्वाभाविक है कि पश्चिम उसके जादू में नाच रहा है. इस बीच आरआरआर को लेकर राजमौली के एक बयान पर बहस देखने को मिल रही है. खासकर हिंदी बेल्ट में कुछ लोग उनकी लानत-मलानत करते नजर आ रहे हैं.

बहस करने वाले वही लोग हैं जिनका मुंह तेलुगु क्षेत्र हैदराबाद में उर्दू की मनमानियों और बेतहाशा बढ़ रही अरबी संस्कृति पर सिल जाता है, मगर हॉलीवुड में राजमौली के एक वाजिब बयान भर पर हिंदी की वैशाखी लेकर विलाप करते देखे जा सकते हैं. असल में राजमौली एक प्रोग्राम में बात रख रहे थे. इस दौरान पश्चिमी पत्रकार को करेक्ट करते हुए उन्होंने बताया कि आरआरआर कोई बॉलीवुड फिल्म नहीं है. बल्कि यह एक तेलुगु फिल्म है जो भारत के दक्षिण से आती है. वे (राजमौली) जहां से हैं. अब राजमौली का यह बयान तथ्यों में पूरी तरह से साफ़ है. लेकिन इसके बहाने इंटरनेट पर उनके ऊपर आरोप लगने शुरू हो गए हैं.

एक धड़ा कह रहा कि राजमौली को ऐसा बयान नहीं देना चाहिए. ऑस्कर में उनकी फिल्म भारतीय फिल्म के रूप में गई है. वे निरर्थक भाषा का विवाद खड़ा कर रहे हैं. जिस तरह की बहस हो रही है उससे तो यही उद्देश्य पता चलता है कि बयान के जरिए हिंदी-तेलुगु भाषियों को लड़ाने की कोशिश है. हिंदी क्षेत्रों में दक्षिण भारतीय सिनेमा को कमजोर करने की कोशिशें हैं. राजमौली ने कब कहा कि उनकी फिल्म भारत का प्रतिनिधित्व नहीं करती है. उन्होंने तो बस यही करेक्ट करना चाहा कि उनकी फिल्म तेलुगु है बॉलीवुड नहीं. एक तरह से उन्होंने भारतीय सिनेमा को लेकर पश्चिम की धारणा को साफ़ करना चाहा कि भारतीय फिल्मों का मतलब सिर्फ बॉलीवुड भर नहीं है.

आरआरआर में जूनियर एनटीआर.

क्या उन्होंने गलत कहा? यह सच्चाई है कि भारत में हिंदी के अलावा मलयाली, तमिल,  मराठी, तेलुगु, कन्नड़, असमिया, बंगाली आदि तमाम भाषाओं की समृद्ध साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत है. इन भाषाओं में श्रेष्ठ फ़िल्में बनती हैं. क्या इन फिल्मों को भारतीय नहीं कहा जाएगा? सिर्फ उर्दू फिल्मों को भारतीय कहा जाएगा. राजमौली के बयान पर कायदे से बहस यह होनी चाहिए थी कि संस्कृति-मूल्यों के लिहाज से भारतीयता का प्रतिनिधित्व कौन करता है और कैसे एजेंडाग्रस्त बॉलीवुड भारत का सिनेमाई चेहरा नहीं हो सकता. बॉलीवुड को जिस तरह राजनीतिक रूप से प्रोत्साहित किया गया, वह बेमिसाल है. बावजूद 'खाड़ी एजेंडा' में फंसी रचनात्मकता दम तोड़ चुकी है. पठान में वह साफ़-साफ़ दिख रहा है. दुनिया तो अब तक यही जानती है कि असल में बॉलीवुड ही भारतीयता का प्रतिनिधि है. पत्रकार ने उसी सोच के तहत सवाल किया था.

नेहरू जी बॉलीवुड के कुछ कपूर्स को लेकर दुनियाभर घूमते रहे और कांग्रेस की सरकारों ने स्थापित कर दिया कि भारतीय सिनेमा का नेता कौन है? कांग्रेस ने हमेशा बॉलीवुड के महानायक भी निर्धारित किए. क्या यह भी बताने की जरूरत है. दूसरी तरह देश में दक्षिण की भाषाओं या दूसरी भारतीय भाषाओं में बन रहे सिनेमा की तरफ ध्यान ही नहीं दिया गया. श्रेष्ठता के ऐसे फर्जी मानक गढ़ दिए गए कि उलटे उनका मजाक उड़ाया जाने लगा. बॉलीवुड की फिल्मों में भी दक्षिण समेत भारत की संस्कृति उसकी भाषाओं का मजाक उड़ाया जाता रहा. और वह भी सिर्फ कल्पनाओं के आधार पर. असंख्य फ़िल्में हैं. आमिर खान-सलमान खान की कल्ट 'अंदाज अपना अपना' में आमिर का किरदार अपने पिता से कहता है- "पिता जी हम चूड़ियों की दुकान खोलेंगे. मैं बेटी को चूड़ी पहनाऊंगा. आप मां को." आमिर का किरदार एक अमीर लड़की के बेडरूम में घुसने के फ़ॉर्मूले पर काम करता नजर आता है. क्या यह भारत की रोमांटिक कहानी थी? इसी फिल्म में एक जगह सलमान-आमिर के किरादों के झगड़े में कॉमिक रूपक लाने के लिए भारत-मिलाप के भावुक दृश्य का मजाक उड़ाते हुए इस्तेमाल किया गया है. जबकि दुनिया में राम और भरत जैसा भाईचारा दुर्लभ है. खोजे नहीं मिलता. बताइए भारत के किस घर में पिता और पुत्र, मां और बेटी से रोमांस करने की योजना बनाते हैं. यह भारत के किस घर से प्रेरित कहानी थी?

किसी लड़की के बेडरूम में घुसने की योजना पर काम, भारत में कौन सा प्रेम कहा जाएगा? क्या यह 72 हूरों की मानसिकता से उपजी सोच नहीं कही जाएगी. और ऐसी सोच को दुनिया में भारत की सोच बताकर किस फिल्म इंडस्ट्री ने परोसा? माफ़ करिए ऋषि कपूर की हिना और शाहरुख खान की पहेली जैसी फ़िल्में ऑस्कर में भारत की तरफ से किस आधार पर भेजी जाती रहीं. दर्जनों फिल्मों का लेखाजोखा है. सरकारी गैर सरकारी प्रयासों से बॉलीवुड को पश्चिम में भारत का चेहरा बनाकर परोसा गया. उनमें कौन सी भारतीयता थी या ऑस्कर के लायक कौन सा सिनेमाई आर्ट था, कोई बता सकता है क्या? और भारत पाकिस्तान की काल्पनिक प्रेम कहानी कब ऑस्कर में भेजी गई थी. जब कश्मीर के इतिहास में जिहादी आतंकवाद चरम पर था. क्या लोगों को समझ नहीं आता कि वह क्या था?

आरआरआर की सच्चाई यह है कि उसे तेलुगु भाषियों ने ही बनाया है. फिल्म पर पूरी तरह से भारतीयता की छाप है. और सबसे अहम बात कि उन्हें किसी राजनीति और सरकार ने इस काबिल नहीं बनाया. बल्कि आज की तारीख में समूचा भारत उनकी फ़िल्में देख रहा है. असल में उनके बेहतरीन काम को देख रहा है. खोज खोजकर देख रहा है. पश्चिम आज उनकी फिल्मों की तारीफ़ कर रहा है. उसे लग रहा है कि यह भी असल में बॉलीवुड से निकली फिल्म ही होगी. उसे तो मालूम भी नहीं कि भारत में बॉलीवुड से अलग समृद्ध फिल्मों के कई उद्योग हैं. तेलुगु समेत दक्षिण के सिनेमा का 'सूर्य' अपनी मेहनत से इस मुकाम तक पहुंचा है. उन्होंने देश में विभाजक भाषाई दीवार को ढहा दिया है. अच्छी फिल्म और बुरी फिल्म का फर्क खड़ा किया. भारतीय संस्कृति और अभारतीय संस्कृति में बनी फिल्मों का फर्क भी सामने रखा. सफलता के कीर्तिमान गढ़े. बेवजह की घृणा और विवाद पैदाकर के नहीं. शोर्टकट रास्ते नहीं, बल्कि दर्शकों को प्रभावित किया. फिर गोल्डनग्लोब या ऑस्कर तक पहुंचे हैं. संघर्ष से उपजी एक स्वाभाविक गति.

और वे आरआरआर को फिल्मों को रीप्रजेंट भी भारतीय अंदाज में ही कर रहे हैं. याद नहीं आता कि बॉलीवुड का कौन सा सितारा और कब- लुंगी धोती में हॉलीवुड के मंचों पर नजर आता था. फिल्मों में तो पहनते नहीं. आरआरआर पूरी तरह से भारतीय फिल्म है. तेलुगु फिल्म है. तेलुगु, मराठी, तमिल, मलयाली या कन्नड़ आदि भाषाएं उतनी ही भारतीय हैं जितनी हिंदी. हिंदी का जितना महत्व है उससे रत्तीभर कम महत्व दूसरी भारतीय भाषाओं का नहीं है. बल्कि कई मायनों में ज्यादा है. हिंदी से श्रेष्ठ है. कम से कम उन्होंने भाषा और संस्कृति के नाम पर वित्तपोषित फर्जी के समझौते तो नहीं किए.

बॉलीवुड को पहले अपनी भारतीयता चेक करनी चाहिए. भारतीयता के लिए योगदान चेक करना चाहिए. तब जाकर भाषा के बहाने रोना रोएंगे तो बात समझी जाएगी. वर्ना तो विभाजक सिद्धांतों को भारत खूब जानता है. बॉलीवुड के पास कोई सैद्धांतिक व्यावहारिक तर्क नहीं है कि वह भारत और भारतीयता पर दावा करे.

भारत विरोधियों को चाहिए कि नाटू नाटू और श्री वल्ली के मूल गानों को सुने और उसकी धुन का मजा लें. शांति मिलेगी.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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