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इस शादी... में जरूर जाइए, लेकिन याद रहे ईगो घर में रखा हो

    • मनीष जैसल
    • Updated: 15 नवम्बर, 2017 12:43 PM
  • 15 नवम्बर, 2017 12:43 PM
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बॉलीवुड में सामाजिक मुद्दों पर फिल्में बनना कोई नई बात नहीं है. हालिया रिलीज फिल्म मेरी शादी में जरूर आना भी एक सामाजिक फिल्म है. दर्शक भी इस फिल्म को खासा पसंद कर रहे हैं.

हमारे समाज में अरेंज मैरिज आज भी सभ्यता की परिचायक मानी जाती है. समाज में सभ्य बने रहने के लिए युवाओं को इसे अपनाया जाना मजबूरी भी बन जाती है. बावजूद इसके प्रतिरोध के स्वर हमारे समाज, हमारी फिल्मों में देखने को मिलते हैं. बदलते दौर में अरेंज मैरिज का तरीका भी बदला है. युवा उसे लव की शक्ल देने की कोशिशें भी कर रहे हैं. इसी पर बनी एक फिल्म बीते दिनों बॉक्स ऑफिस में आई है. लैंगिक असमानता, दहेज और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को रोमांस, नफरत और बदले के स्वर के साथ पेश करती एक खूबसूरत फिल्म है 'शादी में जरूर आना'.

फिल्म दो भागों में बंटी है. जिनमें दो कहानियां हैं. जो परस्पर एक दूसरे से मिलती भी हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों की निम्न, मध्यम और उच्च परिवारों में लैंगिक असमानता का स्तर लगभग एक सा है. दहेज तीनों में आम है और ओहदे पर पहुंचा हर व्यक्ति भ्रष्टाचार कर ही रहा है. कई संवादों में इसे प्रमाणित करने की कोशिश भी की गई है. फिल्म ऐसे ही विषय पर एक संदेश देती है. सूरज बड़जात्या की फिल्मों की तरह यहां शांतिप्रिय संयुक्त परिवार नहीं है, जहां सब कुछ फिक्स्ड है. मिश्रा और शुक्ला परिवार के बहाने समाज में फैली दहेज जैसी कुरीति को पर्दे पर एक अलग दृष्टि से रखा गया है. जो एक्सेप्टेबल है.

फिल्म में हमारे समाज की बड़ी चुनौतियों को पेश किया गया है

आम परिवारों की तरह यहां दोनों की अपनी खूबियां और खामियां हैं. वर पक्ष पढ़ा लिखा है, इसीलिए दहेज की मांग को जस्टिफ़ाई करता है. वहीं वधू पक्ष की स्थिति में सुधार सामाजिक बदलाव का नमूना है. लड़की का पिता बेटी की पढ़ाई तो पूरी करा देता है, लेकिन नौकरी करने का निर्णय ससुराल पक्ष पर छोडता है. आज कई घरों की यही कहानी है. यही फिल्म का मूल सार भी है.

फिल्म की कहानी में क्लर्क सत्येंद्र मिश्रा...

हमारे समाज में अरेंज मैरिज आज भी सभ्यता की परिचायक मानी जाती है. समाज में सभ्य बने रहने के लिए युवाओं को इसे अपनाया जाना मजबूरी भी बन जाती है. बावजूद इसके प्रतिरोध के स्वर हमारे समाज, हमारी फिल्मों में देखने को मिलते हैं. बदलते दौर में अरेंज मैरिज का तरीका भी बदला है. युवा उसे लव की शक्ल देने की कोशिशें भी कर रहे हैं. इसी पर बनी एक फिल्म बीते दिनों बॉक्स ऑफिस में आई है. लैंगिक असमानता, दहेज और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को रोमांस, नफरत और बदले के स्वर के साथ पेश करती एक खूबसूरत फिल्म है 'शादी में जरूर आना'.

फिल्म दो भागों में बंटी है. जिनमें दो कहानियां हैं. जो परस्पर एक दूसरे से मिलती भी हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों की निम्न, मध्यम और उच्च परिवारों में लैंगिक असमानता का स्तर लगभग एक सा है. दहेज तीनों में आम है और ओहदे पर पहुंचा हर व्यक्ति भ्रष्टाचार कर ही रहा है. कई संवादों में इसे प्रमाणित करने की कोशिश भी की गई है. फिल्म ऐसे ही विषय पर एक संदेश देती है. सूरज बड़जात्या की फिल्मों की तरह यहां शांतिप्रिय संयुक्त परिवार नहीं है, जहां सब कुछ फिक्स्ड है. मिश्रा और शुक्ला परिवार के बहाने समाज में फैली दहेज जैसी कुरीति को पर्दे पर एक अलग दृष्टि से रखा गया है. जो एक्सेप्टेबल है.

फिल्म में हमारे समाज की बड़ी चुनौतियों को पेश किया गया है

आम परिवारों की तरह यहां दोनों की अपनी खूबियां और खामियां हैं. वर पक्ष पढ़ा लिखा है, इसीलिए दहेज की मांग को जस्टिफ़ाई करता है. वहीं वधू पक्ष की स्थिति में सुधार सामाजिक बदलाव का नमूना है. लड़की का पिता बेटी की पढ़ाई तो पूरी करा देता है, लेकिन नौकरी करने का निर्णय ससुराल पक्ष पर छोडता है. आज कई घरों की यही कहानी है. यही फिल्म का मूल सार भी है.

फिल्म की कहानी में क्लर्क सत्येंद्र मिश्रा उर्फ सत्तु (राजकुमार राव), पीसीएस की तैयारी कर रही आरती शुक्ला ( कृति खरबंदा), तथा दोनों के परिवार हैं. राजकुमार क्लर्क हैं तो उनकी शादी में दहेज की मांग स्वाभाविक है. इसे उत्तर प्रदेश के लोग बेहतरी से समझ सकते हैं. आरती पढ़ी लिखी है, पर पितृसत्तात्मक सोच वाले बाबू जी के डर से कुछ बोल नहीं पाती. छिप छिपा कर पीसीएस परीक्षा देती है और अपनी ही शादी के दिन पीसीएस की सफलता भी पा जाती है. आरती की बहन जो खुद इस समाज का मर्दवादी रवैया सहन कर रही थी, उसे इस जंजाल से बचाने की सफल कोशिश करती है और उसे इस क्लर्क रूपी मनुष्य से शादी को इंकार कर अपना सपना चुनने को कहती है. कई अन्य हिन्दी फिल्मों में ये किस्से हम पहले ही देख चुके हैं.

बस इसी के साथ रोमांस खत्म, नफरत का दौर शुरू. इत्तेफाक पर इत्तेफाक होते हैं. लड़का गमों से चूर होकर पढ़ता है और डीएम-कलेक्टर बन जाता है. दोनों परिवारों को सामाजिक तानों का शिकार होना पड़ता है. फिल्म की कहानी में 5 साल बाद एक और इत्तेफाक हुआ दिखाया गया है, जिसमें आरती जो भ्रष्टाचार के मामले में आरोपी है. उसकी जांच सत्तू ऐज ए कलेक्टर करते हैं.

फिल्म कई ऐसी कुरीतियों पर चोट करती है जो हमारे समाज को लगातार खोखला बना रही हैं

फिल्म के सहारे कोशिश की गयी की दर्शक समझें की सत्तू बदला ले रहा है. इसी को दिखाने में निर्देशक कई जगह गलती कर बैठता है और फिर फिल्म बोर करते हुए आगे बढ़ती है. नफ़रतों के दौर में फिर से प्यार जगाने की कोशिश सभी पात्रों द्वारा की जाती है. और सभी मिलकर एक खूबसूरत शादी का मंडप सजाते हैं. सभी पात्रों का आपस में मेल काबिले तारीफ है. ऐसा कम ही फिल्मों में देखने को मिलता है.

कहानी में कानपुर, इलाहाबाद, और लखनऊ की पृष्ठभूमि है. लेकिन इलाहाबाद के सिविल लाइंस के हनुमान मंदिर, संगम का तीर, लखनऊ के अंबेडकर पार्क को छोड़ दिया जाए तो यह आप जान ही नहीं पाएंगे की फिल्म बंबइया है या कहीं और की. कानपुर तो नदारद है मियां. संवादों में क्षेत्रियता, संस्कृति का कहीं से भी कोई जुड़ाव नहीं दिखता. किसी शहर को इस्टेब्लिश करना आज कल की फिल्मों के लिए काफी मुश्किल हो गया है. सिर्फ मॉन्यूमेंट्स का इस्तेमाल कर किसी शहर को स्थापित नहीं किया जा सकता. किसी शहर को पहचानने के लिए बोली-भाषा, रंग, भेष आदि की जरूरत आज भी हमें महसूस होती है.

फिल्म डायरेक्टर रत्ना सिन्हा ने फिल्म के पहले भाग का निर्देशन कमाल का किया है. कई जरूरी मुद्दों जैसे लैंगिक असमानता, कैरियर चुनने की छूट, अरेंज मैरिज के नुकसान जैसे पहलुओं को बड़ी मजबूती से रखा. पर सेकेंड हाफ में जाते-जाते वह उसे काफी बोर बना देती हैं. कमल पांडे की लिखी कहानी की मांग के अनुसार दोनों परिवारों के ईगो को दर्शकों तक दिखाना और फिर उसे तथ्य के साथ तोड़ना एक चुनौतीपूर्ण काम था, जिसे रत्ना ने अपने सिनेमाई निर्देशन से पूर्ण किया.

फिल्म की स्क्रिप्टिंग भी जबरदस्त है. गानों को फिल्म की कहानी से जोड़ न पाना भी दर्शकों को पसंद नहीं आएगा. संवाद अच्छे है, कई जगह मारक भी. खासकर आरती की बहन नयना दीक्षित के संवाद दिलों में घर बना लेंगे. तनु वेड्स मनु के निर्माता विनोद बच्चन ने इसका निर्माण किया. फिल्म तनु वेड्स मनु का ही सूक्ष्म रूप है.

राजकुमार राव जल्द ही एक ही तरह की एक्टिंग करते रहे तो निश्चित है की अपने आप को न्यूट्रल कर लेंगे. ईमानदारी वाले किरदार अब उन्हें करना बंद कर देना चाहिए. न्यूटन इस एक्ट की उनकी बेस्ट फिल्म है. कृति खरबंदा ने अपने कैरेक्टर को बखूबी निभाया है. चूंकि फिल्म में इतने इमोशन्स हैं की इसे रिएक्ट कर पाना मुश्किल है. जिसके लिए वो बधाई की पात्र हैं. गोविंद नामदेव रूढ़िवादी पिता के किरदार में जमते हैं. बाद में उनके ही किरदार में उनका अपनी बेटी के लिए परस्पर प्यार उनकी अदाकारी के जरिये देखा जा सकता है.

सीधे तौर पर फिल्म धीरे धीरे आगे बढ़ते हुए दर्शकों के मन मे पल रहे विचार को सामने लाती है फिर ज़ोर का प्रहार करती है. एक ऐसे समाज में जहां लड़की को लड़के से कमतर आंका जाए इसके बावजूद वह लड़की अपना करियर बना रही है. ऐसे में समाज में दहेज जैसी कुरीति का बढ़ते जाना दुख देता है. जब लड़की मनपसंद करियर के लिए अपने घर से बगावत कर सफल भी हो तब भी समाज उसे तरह तरह के ताने देता है. फिल्म इन सभी बातों का विजुअल है, जिसे ईगो लेकर तो नहीं देखा जा सकता है. फिल्म मनोरंजन के साथ साथ जागरूकता पैदा करती है तथा महत्वपूर्ण मुद्दे की तरफ हमारा ध्यान खींचती है. हर किसी को इस शादी में कम से कम एक बार तो जरूर हो आना चाहिए.

पूरी फिल्म की थीम को अगर मज़ाज के इस कलाम से समझे तो बेहतर होगा

तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन

तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था

आरती ने परचम बनाया तो ये कहानी बनी... शादी में जरूर आना.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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