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जानिए रजनीकांत क्‍यों कला से बड़े कलाकार हैं

    • नरेंद्र सैनी
    • Updated: 22 जुलाई, 2016 08:20 PM
  • 22 जुलाई, 2016 08:20 PM
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कबाली की रिलीज से पहले ही रजनीकांत को लेकर ऐसा माहौल बना दिया गया कि मानो कोई भगवान ही उतर रहे हैं. फैंस के लिए तो ऐसा ही है. आइए पड़ताल करते हैं हमारी इस मानसिकता की...

बात 1985 की है. उन दिनों फिल्म देखने के उतने माध्यम नहीं हुआ करते थे जितने आज हैं. और बॉलीवुड में धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन और विनोद खन्ना जैसे हीरो थे जो एक्शन फिल्में करते थे. उनके साथ ही नसीरूद्दीन शाह, अमोल पालेकर और फारूख शेख जैसे सितारे भी थे, जो चालू भाषा में कहें तो ठंडी किस्म की और कला की भाषा में कहें तो यथार्थवादी सिनेमा बना रहे थे. बच्चों को तो एंग्री यंगमैन की इमेज वाले लोग पसंद आते हैं और दस साल की उम्र में मेरे साथ भी ऐसा ही था.

गर्मी की छुट्टियां चल रही थीं और उन दिनों किराये पर वीडियो और कलर टीवी मंगाकर फिल्में देखी जाती थीं. एक रात में चार फिल्में चलती थीं. हमारे मोहल्ले में भी 120 रु. किराया देकर रात भर के लिए वीडियो मंगाया गया था. इस तरह रात नौ बजे जो पहली फिल्म चली उसने आंखें ही खोलकर रख दी. दक्षिण भारतीय फिल्मों का एक सांवला-सा सितारा, जिसके चेहरे में कोई भी ऐसी बात नहीं थी जो आकर्षित करे लेकिन उसका स्टाइल असरदार था. उसके सिगरेट पीने का ढंग अलग था, गुंडों को मारता तो वह सौ-सौ फुट दूर जाकर गिरते. उसकी हरकतें एकदम बिंदास थीं. बंदा चक्कों पर उछल-उछलकर बिल्कुल जैकी चैन जैसे लड़ रहा था.कहानी की इतनी समझ हमें थी नहीं. इसलिए उसके स्टाइल ने हमें अपना कायल बना लिया. इस तरह वह बंदा हमारा हीरो बन गया. उसके ऐक्शन कई दिन तक दिलोदिमाग पर छाए रहे. फिर उसी साल सितंबर-अक्तूबर में उसकी फिल्म गिरफ्तार आई और फिल्म में इंस्पेक्टर हुसैन के तौर पर वह हीरो जब मरा तो यह दिल पर छुरी चलने जैसा था. कई दिनों तक दिल इसी गम में डूबा रहा.

रजनीकांत की फिल्मों में उनकी बिंदास छवि

इस सितारे ने दिल को छू लिया था. उसकी बिंदास छवि दिल में...

बात 1985 की है. उन दिनों फिल्म देखने के उतने माध्यम नहीं हुआ करते थे जितने आज हैं. और बॉलीवुड में धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन और विनोद खन्ना जैसे हीरो थे जो एक्शन फिल्में करते थे. उनके साथ ही नसीरूद्दीन शाह, अमोल पालेकर और फारूख शेख जैसे सितारे भी थे, जो चालू भाषा में कहें तो ठंडी किस्म की और कला की भाषा में कहें तो यथार्थवादी सिनेमा बना रहे थे. बच्चों को तो एंग्री यंगमैन की इमेज वाले लोग पसंद आते हैं और दस साल की उम्र में मेरे साथ भी ऐसा ही था.

गर्मी की छुट्टियां चल रही थीं और उन दिनों किराये पर वीडियो और कलर टीवी मंगाकर फिल्में देखी जाती थीं. एक रात में चार फिल्में चलती थीं. हमारे मोहल्ले में भी 120 रु. किराया देकर रात भर के लिए वीडियो मंगाया गया था. इस तरह रात नौ बजे जो पहली फिल्म चली उसने आंखें ही खोलकर रख दी. दक्षिण भारतीय फिल्मों का एक सांवला-सा सितारा, जिसके चेहरे में कोई भी ऐसी बात नहीं थी जो आकर्षित करे लेकिन उसका स्टाइल असरदार था. उसके सिगरेट पीने का ढंग अलग था, गुंडों को मारता तो वह सौ-सौ फुट दूर जाकर गिरते. उसकी हरकतें एकदम बिंदास थीं. बंदा चक्कों पर उछल-उछलकर बिल्कुल जैकी चैन जैसे लड़ रहा था.कहानी की इतनी समझ हमें थी नहीं. इसलिए उसके स्टाइल ने हमें अपना कायल बना लिया. इस तरह वह बंदा हमारा हीरो बन गया. उसके ऐक्शन कई दिन तक दिलोदिमाग पर छाए रहे. फिर उसी साल सितंबर-अक्तूबर में उसकी फिल्म गिरफ्तार आई और फिल्म में इंस्पेक्टर हुसैन के तौर पर वह हीरो जब मरा तो यह दिल पर छुरी चलने जैसा था. कई दिनों तक दिल इसी गम में डूबा रहा.

रजनीकांत की फिल्मों में उनकी बिंदास छवि

इस सितारे ने दिल को छू लिया था. उसकी बिंदास छवि दिल में उतर गई थी जो आने वाले कई साल तक दिलो-दिमाग पर छाई रही. उसका लड़ना, उसका हंसना, उसका चलना, उसका बाल झटकना, एक हाथ मारने पर सबको हिलाकर रख देना और न जाने क्या-क्या...कई मौकों पर तो उसके स्टंट्स को आजमाने की कोशिश भी की. यह सितारा साउथ और बॉलीवुड में काम करता रहा लेकिन उन दिनों डब का चलन ज्यादा नहीं था तो उसकी ज्यादा फिल्में देखने को नहीं मिलीं. लेकिन उस बंदे की छवि ऐसी ही रही. यह बंदा रजनीकांत था.

यूं हो गया कला से बड़ा सितारा

फिर अगर आपका शौक आपके पेशे से जुड़ जाए तो कहना ही क्या. ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ. करियर के एक दौर में आकर फिल्म पत्रकारिता से जुड़ गया. रजनीकांत की फिल्में कुछ ज्यादा देखी नहीं थी. महागुरू और गिरफ्तार के बाद चालबाज (1989) ही याद रही लेकिन उसमें वे परेशान टैक्सी वाले बने थे. लेकिन मेरे दिमाग में उनकी छवि वही महागुरू वाली ही रही. इस तरह 1985 से शुरू हुआ सफर 2016 में कबाली तक पहुंचा तो दुनिया काफी बदल चुकी थी.

फिल्म गिरफ्तार में रजनीकांत और अमिताभ बच्चन
 बॉलीवुड कॉमेडी फिल्म चालबाज में श्रीदेवी के साथ रजनीकांत

एक फिल्म स्टार साउथ का भगवान बन चुका था. उसका अंदाज, ऐक्शन और काम पर पीआर एक्सरसाइज हावी हो चुकी थी. अब उसकी फिल्म में कितना दम है या किस तरह की कहानी लेकर वह आया है, यह सब बातें गौण हो चुकी थीं. उसे तलैवा (यानी लीडर या बॉस) नाम मिल चुका था. इन तीन दशकों के सफर में वे साउथ की उस परंपरा में सर्वोपरि बन चुका था जिसमें सितारों की लोकप्रियता उसे लेकर होने वाले शोरगुल से आंकी जाती थी. इसमें वह महागुरू हो चुका था. इस बीच उसने साउथ में कई बड़ी हिट फिल्में दीं और वह मसाला फिल्मों को बादशाह बन चुका था. लेकिन दुखद यह कि उसके फिल्म की क्वालिटी से ज्यादा उसके स्टाइल की ही बात होती थी.

भारत वैसे भी हमेशा नायकों को खोजने वाला देश रहा है. यहां व्यक्ति पूजा सर्वोपरि रही है. इसके लिए बस एक चेहरा चाहिए होता है. ऐसा ही रजनीकांत के साथ भी हुआ. जिस तरह क्रिकेट के भगवान तेंदुलकर बन गए और राजनीति के कई तथाकथित भगवान हैं उसी तरह सिने-प्रेमियों ने रजनीकांत को भी कला से ऊपर बिठा दिया. ऐसी जगह जहां से उनका मूल्यांकन करना किसी के लिए भी आसान न हो. कई फिल्म विश्लेषक इसे पीआर का बहुत बड़ा करिश्मा मानते हैं. इसका इशारा कुछ दिनों से चल रहे कबाली के प्रचार से मिल जाता है. जिसमें कहीं भी फिल्म कला का कोई जिक्र नहीं है, वाकई दुर्भाग्यपूर्ण.

हम ऐसे क्यों हैं

थोड़ा नजरिया बड़ा करते हैं. हम लोग हमेशा हॉलीवुड के पीछे भागते हैं, उनकी कहानियां चुराते हैं लेकिन वहां के संस्कार से कन्नी काट जाते हैं. हम बेशक वहां के ट्रेंड को कॉपी करते हैं लेकिन यह बात भूल जाते हैं कि वहां सितारों की इस तरह की पूजा नहीं होती और फिल्म के साथ स्टार बनते और बिगड़ते हैं. बेशक सितारों का नाम चलता है, उनकी पहचान होती है लेकिन इसमें सबसे अहम उनका काम होता है.

यहां अल पचीनो का जिक्र करते हैं

गॉडफादर, स्कारफेस और द सेंट ऑफ द वीमन वाले पचीनो. यह उनकी फिल्में और काम ही है जो उन्हें लेजंड बनाती है, और हमेशा उन्हीं का जिक्र आता है. इसी तरह स्टीवन स्पिलबर्ग को लीजिए. वे ऐसे डायरेक्टर हैं जिन्होंने बेहतरीन फिल्में बनाईं और दुनिया भर में प्रसिद्ध हस्ती हैं और उन्होंने इतनी हिट फिल्में दी हैं जितनी शायद दस सितारे भी मिलकर न दे सकें. लेकिन हॉलीवुड की पीआर एक्सरसाइज में उन्हें कभी भगवान नहीं बनाया गया. उनका जिक्र उनकी फिल्मों से जोड़कर किया जाता है, न कि यह बातकर फ्लां लोगों ने दूध चढ़ाया या जश्न मनाया. पांच साल पहले पेरिस में जब मैंने उनसे यह पूछा कि हर बड़ी फिल्म के साथ उनका नाम कैसे जुड़ा होता है तो उनका कहना था, "यह मेरी खुशनसीबी है, मेरे लिए हर फिल्म की कला बहुत मायने रखती है." शायद इस कला से भारतीय सिनेमा कई मौकों पर महरूम नजर आता है. जब कला नजर ही नहीं आएगी तो कलाकार अपने आप ही हावी हो जाएगा, और शायद आज के महानायकों के बारे में भी ऐसा ही कह सकते हैं कि कमजोर कला के दौर में कलाकार हावी हो गए हैं या महानायकों ने कला को कमजोर बना दिया है. महागुरु बेशक मेरे दिल में आज भी कायम है लेकिन कबाली में आज मेरे अंदर का सिनेप्रेमी सॉलि़ड कहानी और कैरेक्टर ही तलाश करता रह गया.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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