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Jersey को KGF 2 रौंद दे तो तीन बड़ी चीजें बॉक्स ऑफिस पर स्थापित होंगी

    • आईचौक
    • Updated: 11 अप्रिल, 2022 12:11 PM
  • 11 अप्रिल, 2022 12:11 PM
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अगले हफ्ते 14 अप्रैल को केजीएफ 2 और जर्सी रिलीज होने वाली है. बॉक्स ऑफिस पर बॉलीवुड और दक्षिण की जंग देखने को मिलेगी. बॉलीवुड का दुर्भाग्य यह है कि दक्षिण उसके बेल्ट में आकर चोट पहुंचा रहा और कुछ नहीं कर पा रहा है. केजीएफ 2 और जर्सी की भिड़ंत के मायने हैं. आइए जानते हैं.

बॉक्स ऑफिस के लिए अगला हफ्ता कई मायनों में ना सिर्फ बहुत बड़ा होने जा रहा बल्कि निर्णायक भी बनने वाला है. अब भारतीय सिनेमा के कंटेंट को भाषाई आधार पर विभाजित करना मुश्किल है. भारतीय कंटेंट एक ही समय में अलग-अलग भाषाओं में उपलब्ध हैं और इसे एक जैसे मकसद और संवाद क्षमता ने सर्वग्राह्य भी बना दिया है. हालांकि कुछ सालों से निर्णायक लड़ाइयों का दौर जारी है. भारतीय सिनेमा में भाषाई संघर्ष का एक और दौर 14 अप्रैल को दिखने वाला है- जब मुकाबले में केजीएफ चैप्टर 2 (साउथ की पैन इंडिया) और जर्सी (बॉलीवुड) के रूप में दो अलग भाषाई उद्योगों की फ़िल्में आमने-सामने होंगी.

केजीएफ चैप्टर 2 और जर्सी की लड़ाई में बॉक्स ऑफिस पर बॉलीवुड का पिछड़ना इस लिहाज से बहुत निर्णायक है कि भारतीय सिनेमा पर साउथ से निकल रहे नए सांस्कृतिक दौर का वर्चस्व होगा- जिसका सूत्रपात एसएस राजमौली की बाहुबली और बाहुबली 2 से हुआ था, या फिर हिंदी सिनेमा अपने उस मॉडल को बचाने में कामयाब रहती है जिसमें उसने समय-समय पर समावेशी वैचारिक बदलाव किए. 83 की नाकामी, पुष्पा: द राइज के बाद आरआरआर का कामयाब होना और इस कड़ी में केजीएफ चैप्टर 2 का हिंदी क्षेत्रों में सफल होना सिनेमा के नए कारोबारी, राजनीतिक और सांस्कृतिक युग को मुहर लगा देना भी मानना चाहिए. और इससे तीन बड़ी चीजें स्थापित होंगी.

केजीएफ़ में यश.

#1. लीडरशिप गंवा बैठेगा बॉलीवुड

असल में कुछ सालों से देश में सिनेमा उद्योगों के बीच एक प्रतिद्वंद्विता चल रही है. बावजूद कि व्यापक ऑडियंस समूह किसी कंटेंट का उपभोग भाषाई या क्षेत्रीय आधार पर करने को लेकर अब बहुत दृढ़ नहीं रहा. कम से कम दक्षिण के पांच राज्यों को छोड़ दिया जाए तो बाकी के समूचे सिनेमाई परिदृश्य में बॉलीवुड के रूप में हिंदी के स्थापित वर्चस्व को ढहता...

बॉक्स ऑफिस के लिए अगला हफ्ता कई मायनों में ना सिर्फ बहुत बड़ा होने जा रहा बल्कि निर्णायक भी बनने वाला है. अब भारतीय सिनेमा के कंटेंट को भाषाई आधार पर विभाजित करना मुश्किल है. भारतीय कंटेंट एक ही समय में अलग-अलग भाषाओं में उपलब्ध हैं और इसे एक जैसे मकसद और संवाद क्षमता ने सर्वग्राह्य भी बना दिया है. हालांकि कुछ सालों से निर्णायक लड़ाइयों का दौर जारी है. भारतीय सिनेमा में भाषाई संघर्ष का एक और दौर 14 अप्रैल को दिखने वाला है- जब मुकाबले में केजीएफ चैप्टर 2 (साउथ की पैन इंडिया) और जर्सी (बॉलीवुड) के रूप में दो अलग भाषाई उद्योगों की फ़िल्में आमने-सामने होंगी.

केजीएफ चैप्टर 2 और जर्सी की लड़ाई में बॉक्स ऑफिस पर बॉलीवुड का पिछड़ना इस लिहाज से बहुत निर्णायक है कि भारतीय सिनेमा पर साउथ से निकल रहे नए सांस्कृतिक दौर का वर्चस्व होगा- जिसका सूत्रपात एसएस राजमौली की बाहुबली और बाहुबली 2 से हुआ था, या फिर हिंदी सिनेमा अपने उस मॉडल को बचाने में कामयाब रहती है जिसमें उसने समय-समय पर समावेशी वैचारिक बदलाव किए. 83 की नाकामी, पुष्पा: द राइज के बाद आरआरआर का कामयाब होना और इस कड़ी में केजीएफ चैप्टर 2 का हिंदी क्षेत्रों में सफल होना सिनेमा के नए कारोबारी, राजनीतिक और सांस्कृतिक युग को मुहर लगा देना भी मानना चाहिए. और इससे तीन बड़ी चीजें स्थापित होंगी.

केजीएफ़ में यश.

#1. लीडरशिप गंवा बैठेगा बॉलीवुड

असल में कुछ सालों से देश में सिनेमा उद्योगों के बीच एक प्रतिद्वंद्विता चल रही है. बावजूद कि व्यापक ऑडियंस समूह किसी कंटेंट का उपभोग भाषाई या क्षेत्रीय आधार पर करने को लेकर अब बहुत दृढ़ नहीं रहा. कम से कम दक्षिण के पांच राज्यों को छोड़ दिया जाए तो बाकी के समूचे सिनेमाई परिदृश्य में बॉलीवुड के रूप में हिंदी के स्थापित वर्चस्व को ढहता महसूस किया जा सकता है. हिंदी कंटेंट दक्षिणी ऑडियंस को अभी भी राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप में एड्रेस करने में सक्षम नहीं. देश को एक सूत्र में पिरो रहे क्रिकेट की प्रेरक और राष्ट्रवादी कहानी, पैन इंडिया रिलीज के बावजूद सिर्फ कमजोर तैयारियों की वजह से 83 ने ना सिर्फ कारोबारी बढ़त गंवाई उल्टे, उन कमियों को ही ढोते दिखी जिसका कारण पिछले तीन दशक की राजनीतिक घटनाएं हैं. रणवीर सिंह की फिल्म 83 दक्षिण में कोई हलचल तो दिखा नहीं पाई, अपनी लाइफलाइन हिंदी बेल्ट में भी बेजान साबित हुई.

गौर करिए कि लगभग इसी अवधि में पुष्पा ना सिर्फ तेलुगु बल्कि दक्षिण के अन्य भाषाई क्षेत्रों के साथ साथ हिंदी बेल्ट में भी विपरीत हालात के बावजूद उम्मीद और अपेक्षाओं से कई कई गुना ज्यादा कामयाब बनी. यानी केस स्टडी इतना समझने के लिए पर्याप्त है कि ऑडियंस की समझ साफ़ है, मगर अभी भी भाषाई सिनेमा के दिग्गजों में एकरूप सोच का तगड़ा अभाव है. बॉलीवुड और दक्षिण के सिनेमा के बीच का संघर्ष अब बस इस बात का दिखता है कि लीड कौन करेगा? केजीएफ 2 की सफलता से बॉलीवुड ड्राइविंग सीट खो देगा, या उसे सिनेमा के भाषाई बंटवारे से अलग भविष्य में एक समावेशी भारतीय सिनेमा के मॉडल को अपनाना होगा जिसपर दक्षिण की पांचों भाषाओं, सिनेकर्मियों और ऑडियंस में बेहतर आपसी समझ विकसित दिख रही है.

जर्सी में शाहिद कपूर और 83 में रणवीर-दीपिका..

#2. कश्मीर फाइल्स के सामने राधेश्याम की असफलता भी दक्षिण की जीत है

बॉलीवुड के वर्चस्व को बचाने वाले यह तर्क रख सकते हैं कि द कश्मीर फाइल्स ने तो प्रभाष की भारी भरकम राधेश्याम को चित कर दिया था. लेकिन इसे तो ऐसे भी देखा जा सकता है कि कश्मीर फाइल्स भी दक्षिण की मौजूदा सांस्कृतिक धारा में ही एक कहानी दिखाने की बोल्ड कोशिश है. चूंकि कश्मीर फाइल्स का कंटेंट अपने मकसद को लेकर ज्यादा क्लियर है तो हम उसे बॉलीवुड की ही एक अलग धारा के रूप में देखने की गलती कर रहे हैं. जबकि हकीकत में वह उसी बिंदु पर खड़ी है जिसे दक्षिण में सिनेमा की नई पीढ़ी परदे पर साकार करने की दिशा में लगातार प्रयास कर रही है. कश्मीर फाइल्स और दक्षिण की पैन इंडिया फिल्मों के कंटेंट का मकसद देख लीजिए. बस कहने के अंदाज और इस्तेमाल राजनीतिक प्रतीकों का एक फर्क भर नजर आता है.

एक ही समय में आई कश्मीर फाइल्स और राधेश्याम में विवेक अग्निहोत्री की फिल्म को वरीयता दी गई. जबकि फिल्म हिंदी में ही बनी थी, बावजूद उसे गैर हिंदी क्षेत्रों में हाल फिलहाल की किसी भी बॉलीवुड फिल्म से कहीं ज्यादा देखा गया और सबसे ज्यादा बात हुई. यह साफ संकेत है कि कैसे राधेश्याम होने के बावजूद चर्चा के केंद्र में विवेक की फिल्म को रखा गया. राधेश्याम की असफलता को भी दक्षिण के सिनेमा की जीत के तौर पर ही देखें तो ज्यादा अच्छा होगा. इसके ठीक बाद आरआरआर के सामने जॉन अब्राहम की अटैक जैसी क्लियर मैसेज वाली फिल्म का भी खारिज हो जाना दक्षिण के वर्चस्व का जयघोष ही माना जा सकता है.

#3. अंतर्राष्ट्रीय वजहों से सिनेमा में बहुसंख्यकवाद को तार्किकता मिलेगी

तकनीक की वजह से दुनिया की एक सोच बन रही है और सिनेमा भी उससे बिल्कुल अछूता नहीं रहा. साल 2020 में सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद बॉलीवुड मुश्किलों में फंसता दिखा है. हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री पर भाई भतीजावाद, मठाधीसी और एक वैचारिकी को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे हैं. साल 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से वैचारिक राष्ट्रवाद के आधार पर हमले लगातार बढ़े हैं. सुशांत की मौत के बाद बंटवारा स्पष्ट दिखा है. इसमें कथित रूप से बॉलीवुड के कुछ गैंग चिन्हित किए गए और उनके खिलाफ कई कैम्पेन चलाए गए. बॉलीवुड के सामने एक प्रतिस्पर्धी की जरूरत थी. हिंदी सिनेमा के मौजूदा ढाँचे का विरोध करने वाली वैचारिकी ने दक्षिण के सिनेमा को प्रतिद्वंद्वी के रूप में ना सिर्फ सामने कर दिया बल्कि उसे सपोर्ट करने के साथ वकालत भी कर रहा है.

बीस्ट में विजय.

दिलचस्प है कि मोदी के सत्ता में आने के बाद एसएस राजमौली की बाहुबली और बाहुबली 2 की रिकॉर्डतोड़ सफलता ने उसे वाजिब आधार प्रदान कर दिया था. भले ही दक्षिण अभी कश्मीर फाइल्स जैसा बोल्ड स्टेप लेने से बचे, मगर वो उत्तर के साथ पुल बनाने और बॉलीवुड को ढहाने के लिए जयभीम, मंडेला जैसी फिल्मों के साथ सामने आएगी. वह आरआरआर और केजीएफ 2 लेकर आएगी, जो असल में भारत की बहुसंख्यक आबादी को ही ध्यान में रखकर बनाई जा रही है.   

यहां तक कि दक्षिण में तमिल सिनेमा भी अब राष्ट्रवादी प्रतीकों का इस्तेमाल करने के लिए इस्लामिक आतंकवाद को विषय बनाते दिख रहे हैं. स्थानीय राजनीति की वजह से पहले वहां गैर तमिल राष्ट्रवाद को बहुत तवज्जो मिलती नहीं दिखती. तमिल सिनेमा में यह बदलाव श्रीलंका में लिट्टे का आंदोलन कुचले जाने और वहां इस्लामिक आतंकवाद की घटनाओं से हुआ बदलाव है. तमिल सिनेमा भी नई भारतीय सैद्धांतिकता की ओर बढ़ रहा है. 13 अप्रैल को आ रही विजय की बीस्ट इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है. इसमें इस्लामिक आतंकवाद के स्वरूप को उसी तरह उठाने की कोशिश है जैसे इस मुद्दे पर शेष भारत के सिनेमा में नजर आता है. इस्लामिक छवि की वजह से ही फिल्म को खाड़ी के कुछ देशों में बैन करने की खबरें हैं.

उस अर्थ में यह मामूली चीज नहीं है कि तमिल सिनेमा एक ही वक्त में मोदी की राजनीति का खुलेआम विरोध करता दिखता है और जयभीम भी बना रहा है. बीस्ट भी. एक जाति की कहानी है और एक तमिलियन इंडियन सोल्जर की. वैसे एक धारा वहां कंगना रनौत की थलाइवी देख लेती है. हो सकता है कि उसकी वजह जयललिता और अरविंद स्वामी ही हों. लेकिन कोविड के मुश्किल हालात के बावजूद किसी हिंदी स्टार की तमिलनाडु में देखी गई सबसे बड़ी फिल्मों में इसको शुमार करने में संकोच नहीं किया जा सकता. अप्रैल में आ रही दक्षिण के फिल्मों की सफलता एक तरह से अंतराराष्ट्रीय वजहों से बहुसंख्यकवाद को सिनेमा के जरिए तार्किकता देने का काम करेगी. सिनेमा में स्थानीयता तो होगी, पर राष्ट्रवाद के दायरे में.

कहना नहीं होगा कि दक्षिण के फिल्मों की लगातार कामयाबी से ऐसी फिल्मों के सिलसिले बढ़ेंगे और बहुसंख्यक दर्शकों के भरोसे के संकट से गुजर रहे बॉलीवुड को नुकसान उठाना पड़ेगा.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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