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अंबेडकर-मांझी के बाद फुले, बॉलीवुड पिछड़े-दलित नायकों में भी जड़े तलाश रहा तो ये अच्छी बात है!

    • आईचौक
    • Updated: 11 अप्रिल, 2022 04:46 PM
  • 11 अप्रिल, 2022 04:46 PM
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ज्योतिबा फुले की जयंती पर उनकी बायोपिक बनाने की घोषणा हुई है. महात्मा फुले की भूमिका में प्रतीक गांधी होंगे जबकि अनंत महादेवन निर्देशन करेंगे.

लोग मानें या ना मानें मगर अब बॉलीवुड का नजरिया और उसके कंटेंट में यूटर्न नजर आने लगा है. सिनेमा का नैरेटिव, भारत, भारतीय और भारतीयता के इर्द-गिर्द जाता साफ़ महसूस कर सकते हैं. अब परदे पर उन कहानियों को लाने की कोशिशें दिख रही हैं जिनपर सालों से ध्यान नहीं दिया जा रहा था. जबकि मौजूदा भारत की गति में इन कहानियों के जबरदस्त योगदान को नकारा नहीं जा सकता. ऐसी ही एक कहानी ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले की है. ज्योतिबा, महान समाज सुधारक थे और उन्हें महात्मा की उपाधि दी गई.

बॉलीवुड महात्मा फुले के जीवन पर बायोपिक बनाने जा रहा है. टाइटल "फुले" ही रखा गया है. नेशनल अवॉर्ड जीत चुके अनंत महादेवन निर्देशन करेंगे. जबकि फुले की मुख्य भूमिका के लिए प्रतीक गांधी को कास्ट किया गया. पत्रलेखा, सावित्रीबाई की भूमिका में होंगी. आज महात्मा फुले की 195वीं जन्म जयंती पर फिल्म का पहला पोस्टर साझा करते हुए बायोपिक की घोषणा हुई है. यह फिल्म उस वक्त आ रही है जब सिनेमा खासकर बॉलीवुड पर भारतीयता को खारिज करने के तीखे आरोप लग रहे हैं. यह भी कहा जा रहा है देश के विकास में जानबूझकर पिछड़े और दलित महापुरुषों को दरकिनार किया जा रहा है और यह एक साजिश है.

प्रतीक गांधी और पत्रलेखा.

इस आधार पर देखें तो लगता है कि पिछले एक दशक में धीरे-धीरे बॉलीवुड की धारणाएं बदल रही हैं. वैसे संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर पर पहले ही फ़िल्में, वृत्तचित्र और टीवी शोज बनाए गए हैं. अभी हाल ही में पा रंजित के निर्देशन में बिरसा मुंडा की बायोपिक बनाने की घोषणा हुई. बिरसा बिरसा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर सेनानी हैं. उनका जन्म आदिवासी परिवार में जरूर हुआ था लेकिन अंग्रेजों की क्रूरता, चर्चों की मनमानी और सामंतों के उत्पीडन के खिलाफ उन्होंने लोगों को...

लोग मानें या ना मानें मगर अब बॉलीवुड का नजरिया और उसके कंटेंट में यूटर्न नजर आने लगा है. सिनेमा का नैरेटिव, भारत, भारतीय और भारतीयता के इर्द-गिर्द जाता साफ़ महसूस कर सकते हैं. अब परदे पर उन कहानियों को लाने की कोशिशें दिख रही हैं जिनपर सालों से ध्यान नहीं दिया जा रहा था. जबकि मौजूदा भारत की गति में इन कहानियों के जबरदस्त योगदान को नकारा नहीं जा सकता. ऐसी ही एक कहानी ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले की है. ज्योतिबा, महान समाज सुधारक थे और उन्हें महात्मा की उपाधि दी गई.

बॉलीवुड महात्मा फुले के जीवन पर बायोपिक बनाने जा रहा है. टाइटल "फुले" ही रखा गया है. नेशनल अवॉर्ड जीत चुके अनंत महादेवन निर्देशन करेंगे. जबकि फुले की मुख्य भूमिका के लिए प्रतीक गांधी को कास्ट किया गया. पत्रलेखा, सावित्रीबाई की भूमिका में होंगी. आज महात्मा फुले की 195वीं जन्म जयंती पर फिल्म का पहला पोस्टर साझा करते हुए बायोपिक की घोषणा हुई है. यह फिल्म उस वक्त आ रही है जब सिनेमा खासकर बॉलीवुड पर भारतीयता को खारिज करने के तीखे आरोप लग रहे हैं. यह भी कहा जा रहा है देश के विकास में जानबूझकर पिछड़े और दलित महापुरुषों को दरकिनार किया जा रहा है और यह एक साजिश है.

प्रतीक गांधी और पत्रलेखा.

इस आधार पर देखें तो लगता है कि पिछले एक दशक में धीरे-धीरे बॉलीवुड की धारणाएं बदल रही हैं. वैसे संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर पर पहले ही फ़िल्में, वृत्तचित्र और टीवी शोज बनाए गए हैं. अभी हाल ही में पा रंजित के निर्देशन में बिरसा मुंडा की बायोपिक बनाने की घोषणा हुई. बिरसा बिरसा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर सेनानी हैं. उनका जन्म आदिवासी परिवार में जरूर हुआ था लेकिन अंग्रेजों की क्रूरता, चर्चों की मनमानी और सामंतों के उत्पीडन के खिलाफ उन्होंने लोगों को संगठित कर विद्रोह कर दिया था. बिरसा ने लंबे वक्त तक अंग्रेजी हुकूमत के नाक में दम किए रखा. त्याग, संघर्ष और बलिदान की वजह से उन्हें आदिवासी समुदाय भगवान मानता है.

सिनेमा में बदलाव, बदले समाज का उदाहरण भी है

बिरसा या फुले से पहले डॉ. अंबेडकर के अलावा अन्य महापुरुषों या हस्तियों की कहानियों पर बहुत काम नहीं दिखता. हालांकि इनके काम बेमिसाल रहे जिन्होंने जनता को जागरूक किया और समाज-देश को दिशा देने में योगदान दिया. कायदे से देखें तो बॉलीवुड में कंटेंट को लेकर बदलाव की कई वजहें हैं. एक वजह तो यही है कि भारतीय सिनेमा में अब दलित पिछड़े नायकों की साझी कहानियां कारोबारी रूप से फायदेमंद साबित हो रही हैं. एक वजह यह भी है कि पिछले चार दशकों की राजनीतिक आर्थिक कोशिशों का असर समाज में काफी नीचे तक नजर आता है. हाशिए के समाज में भी आर्थिक हालात काफी बेहतर हुए हैं.

तमिल सिनेमा में तो एक धारा ही निकल पड़ी है जो ऐसी फिक्शनल कहानियों को बहुत खूबसूरती से परदे पर उतार रहा है. वहां सिलसिला बेहतर है. जबकि हिंदी पट्टी में इसकी कमी दिखाई देती है. वैसे भी साल 2000 तक बॉलीवुड फिल्मों का कंटेंट ज्यादातर प्यार मोहब्बत, नाच-गाना और मारधाड़ को समेटे नजर आता था. लेकिन दो दशक में सिनेमा में बदलाव का असर चारों तरफ नजर आने लगा है. हिंदी निर्माताओं का ध्यान इस ओर पहली बार तब गया जब केतन मेहता ने नवाजुद्दीन सिद्दीकी और राधिका आप्टे को लेकर मांझी: द माउन्टेन मैन बनाई.

दबी कुचली जाति में जन्मे एक साधनहीन व्यक्ति की कहानी और उसके पुरुषार्थ ने सबको हैरान कर दिया. फिल्म की कहानी सच्ची थी जो दशरथ मांझी की दास्तां है. कैसे उन्होंने पहाड़ का सीना चीरकर अकेले दम रास्ता बना दिया. वह रास्ता जो समूचे गांव के लिए मुसीबत की तरह था. दशरथ को रास्ता बनाने में सालों का वक्त गंवाना पड़ा. उन्हें पागल तक करार दे दिया गया. लेकिन मांझी उसे तोड़े बिना रुके नहीं. असल में पहाड़ की वजह से दशरथ की पत्नी समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाई थी और उसकी जान चली गई थी. दशरथ की प्रेरक और जुनूनी कहानी ने बॉक्स ऑफिस पर कमाल कर दिया था. बिरसा मुंडा और ज्योतिबा फुले पर कहानियां बेहतर भारत के बदलाव के रूप में भी देखी जा सकती हैं. कह सकते हैं कि सामजिक ढांचा बदल रहा है जो सिनेमा को अपना दायरा बढ़ाने के लिए मजबूर करने लगा है.

कौन हैं ज्योतिबा फुले?

फुले सामाज सुधारक हैं. उनका जन्म 11 अप्रैल 1827 को पुणे के एक माली परिवार में हुआ था. परिवार की आर्थिक हालत ठीक नहीं थी जो बाद में पुणे से सतारा शिफ्ट हो गया था. इस दौरान उनकी पढ़ाई छूट गई थी. बाद में 21 साल की उम्र में उन्होंने अंग्रेजी माध्यम से सातवीं की पढ़ाई की. उन्होंने महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज  की स्थापना की और इसके जरिए समाज कार्य करने लगे. फुले ने दलितों, महिलाओं में खूब काम किया.

फुले शिक्षा के अधिकार को जरूरी मानते थे. महिलाओं और दलित समाज के लिए भी शिक्षा की वकालत करते थे. अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढ़ाया. इसके बाद उनके काम में सावित्री ने भी खूब योगदान दिया. दोनों ने मिलकर बाल विवाह का विरोध, विधवा विवाह का समर्थन, अंधश्रद्धा, जातीय भेदभाव के खिलाफ बहुत सारे काम किए. महिलाओं को शिक्षा देने के लिए पुणे में पहली महिला पाठशाला भी खोला. यह उस दौर के भारत में एक महत्वपूर्ण घटना थी.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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