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Jhund movie से पहले उन फिल्मों की कहानी जिन्होंने नागराज मंजुले को ख़ास बना दिया!

    • आईचौक
    • Updated: 04 मार्च, 2022 03:50 PM
  • 04 मार्च, 2022 03:50 PM
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नागराज मंजुले की पहली बड़ी और हिंदी फिल्म झुंड रिलीज हो चुकी है. समीक्षकों ने मंजुले के काम की जमकर तारीफ़ की है. वैसे झुंड से पहले मंजुले को फैंड्री और सैराट की वजह से खूब लोकप्रियता मिली थी. आइए दोनों मराठी फिल्मों के बारे में जानते हैं.

नागराज मंजुले की पहली हिंदी और पहली बड़ी फिल्म के रूप में झुंड सिनेमाघरों में दर्शकों के बीच है. फिल्म की सच्ची कहानी नागपुर के विजय बोरसे के जीवन पर आधारित है. विजय को 'स्लम सॉकर' की स्थापना के लिए जाना जाता है. अमिताभ बच्चन, विजय बोरसे की भूमिका में हैं. विजय बोरसे की कहानी के कुछ हिस्से झुंड बनने से काफी पहले आमिर खान के चर्चित टीवी शो सत्यमेव जयते में भी नजर आ चुका है. लेखक, अभिनेता, निर्माता और निर्देशक के रूप में विख्यात मंजुले मूलत: मराठी सिनेमा से आते हैं. लेकिन उन्होंने बहुत कम समय में अपने काम से मराठी से बाहर बहुत बड़ी पहचान हासिल की है.

एक सिनेमा हस्ती के रूप में मंजुले की हैसियत का अंदाजा झुंड को मिल रही समीक्षाओं और सेलिब्रिटीज की प्रतिक्रियाओं में देखी जा सकती है. सभी ने दिल खोलकर झुंड की तारीफ़ की है. मंजुले खुद हाशिए के समाज से आते हैं और आम्बेडकरी विचारों से हमेशा प्रभावित रहे हैं. उनकी फिल्मों में आम्बेडकरी  नजरिया बहुत साफ़ तरीके से उभरकर आता है. वे फिल्मों में आम्बेडकरी  प्रतीकों का धड़ल्ले से इस्तेमाल भी करते हैं. तमाम दृश्यों में उनके निजी अनुभव का असर दिखता है. झुंड तक मंजुले की यात्रा की रोमांचक है. उन्होंने दिखा दिया कि सिनेमा बनाने के लिए सिर्फ एक अच्छी कहानी और बेहतर टीम की जरूरत होती है. बाकी चीजें कोई मायने नहीं रखती. क्या फर्क पड़ता है की आपकी जेब में करोड़ों का ब्लैंक चेक नहीं पड़ा है.

मंजुले का करियर करीब दशक भर का ही है. इन्होंने अपनी पहली ही फिल्म से लोगों का ध्यान आकर्षित किया था. साल 2010 में मंजुले की पहली फिल्म पिस्तुल्या (Pistulya) आई थी. उन्होंने पिस्तुल्या को बिना बाहरी मदद के बनाया था. उन्होंने कहानी लिखी, किसी तरह पैसे निवेश किए, निर्देशन किया और एक्टिंग भी की. पिस्तुल्या में मंजुले की मेहनत जाया नहीं गई. पहली ही फिल्म के लिए नेशनल अवॉर्ड मिला. उन्हें बेस्ट फर्स्ट नॉन फीचर फिल्म निर्देशक कैटेगरी में अवॉर्ड मिला था.

नागराज मंजुले की पहली हिंदी और पहली बड़ी फिल्म के रूप में झुंड सिनेमाघरों में दर्शकों के बीच है. फिल्म की सच्ची कहानी नागपुर के विजय बोरसे के जीवन पर आधारित है. विजय को 'स्लम सॉकर' की स्थापना के लिए जाना जाता है. अमिताभ बच्चन, विजय बोरसे की भूमिका में हैं. विजय बोरसे की कहानी के कुछ हिस्से झुंड बनने से काफी पहले आमिर खान के चर्चित टीवी शो सत्यमेव जयते में भी नजर आ चुका है. लेखक, अभिनेता, निर्माता और निर्देशक के रूप में विख्यात मंजुले मूलत: मराठी सिनेमा से आते हैं. लेकिन उन्होंने बहुत कम समय में अपने काम से मराठी से बाहर बहुत बड़ी पहचान हासिल की है.

एक सिनेमा हस्ती के रूप में मंजुले की हैसियत का अंदाजा झुंड को मिल रही समीक्षाओं और सेलिब्रिटीज की प्रतिक्रियाओं में देखी जा सकती है. सभी ने दिल खोलकर झुंड की तारीफ़ की है. मंजुले खुद हाशिए के समाज से आते हैं और आम्बेडकरी विचारों से हमेशा प्रभावित रहे हैं. उनकी फिल्मों में आम्बेडकरी  नजरिया बहुत साफ़ तरीके से उभरकर आता है. वे फिल्मों में आम्बेडकरी  प्रतीकों का धड़ल्ले से इस्तेमाल भी करते हैं. तमाम दृश्यों में उनके निजी अनुभव का असर दिखता है. झुंड तक मंजुले की यात्रा की रोमांचक है. उन्होंने दिखा दिया कि सिनेमा बनाने के लिए सिर्फ एक अच्छी कहानी और बेहतर टीम की जरूरत होती है. बाकी चीजें कोई मायने नहीं रखती. क्या फर्क पड़ता है की आपकी जेब में करोड़ों का ब्लैंक चेक नहीं पड़ा है.

मंजुले का करियर करीब दशक भर का ही है. इन्होंने अपनी पहली ही फिल्म से लोगों का ध्यान आकर्षित किया था. साल 2010 में मंजुले की पहली फिल्म पिस्तुल्या (Pistulya) आई थी. उन्होंने पिस्तुल्या को बिना बाहरी मदद के बनाया था. उन्होंने कहानी लिखी, किसी तरह पैसे निवेश किए, निर्देशन किया और एक्टिंग भी की. पिस्तुल्या में मंजुले की मेहनत जाया नहीं गई. पहली ही फिल्म के लिए नेशनल अवॉर्ड मिला. उन्हें बेस्ट फर्स्ट नॉन फीचर फिल्म निर्देशक कैटेगरी में अवॉर्ड मिला था.

मराठी में आई फैंड्री ने देशभर में चर्चा बटोरी थी.

वह फिल्म जिसने मंजुले को दी भरपूर शोहरत

पिस्तुल्या मराठी में ही थी. चूंकि फिल्म ने नेशनल अवॉर्ड जीत लिया था इस वजह से मंजुले की मुश्किल थोड़ी आसान हो गई थी. तीन साल बाद मंजुले ने मराठी में एक और फिल्म बनाई- फैंड्री. मंजुले के करियर में यही वो पहली फिल्म है जिसने उन्हें मराठी से बाहर फिल्म उद्योग में एक हस्ती के रूप में स्थापित कर दिया. फैंड्री की 'प्री टीनएज' लव स्टोरी के जरिए समाज में जाति की परते उघाड़ी गई थीं. आमतौर पर मुख्यधारा के सिनेमा में जाति के सवाल बहुत सष्टता से सामने नहीं आए हैं. कम से कम मुख्यधारा में तो नहीं हैं. लेकिन फैंड्री जैसी फ़िल्में ऐसी खामियों का जवाब देती हैं.

फैंड्री की कहानी जबया नाम के एक 13 साल के दलित लड़के की है. उसके पिता सुअर पालते हैं. बावजूद कि सुअर पालने का पेशा खराब नहीं है मगर गलत धारणाओं की वजह से सुअर पालने वालों की सामजिक हैसियत ना के बराबर होती है. उन्हें छुआछूत और जाति की दूसरी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. समाज के सबसे निचले पायदान पर रहने वाली जातियां ही इस पेशे में हैं. पिता की इच्छा है कि उनका बेटा जबया पढ़ लिख जाए. जबया को स्कूल में शालू नाम की एक लड़की से एकतरफा प्यार हो जाता है. शालू उच्च जाति की है.

जबया की जाति उसका पीछा नहीं छोड़ती. गांव, समारोह और स्कूल कहीं भी जाति उसके पीछे लगी ही रहती है. फैंड्री का एक मार्मिक दृश्य झकझोर कर रख देता है. जबया जिस स्कूल में पढ़ता है उसके आगे एक सुअर मरा पड़ा रहता है. जबया को ही उस मुर्दा सुअर को उठाकर वहां से हटाना पड़ता है. जबया जब मरे सुअर को लेकर आगे बढ़ता है तो पृष्ठभूमि में दीवार पर बने डायनामिक्स के चित्र के आगे से होकर गुज़रता है. फैंड्री को करीब 1.75 करोड़ में बनाया गया था और इसने मराठी बॉक्स ऑफिस पर करीब 7 करोड़ से ज्यादा की कमाई की.

सिनेमाघरों से बाहर सीडी और पेन ड्राइव के जरिए यह फिल्म, कितनी देखी गई इसका तो कोई हिसाब ही नहीं है. माराठी भाषी क्षेत्र से बाहर यथार्थपरक और वैचारिक फ़िल्में पसंद करने वाला शायद ही कोई दर्शक इसे ना देख पाया हो.

सैराट हिट होने के बाद कई भारतीय भाषाओं में फिल्म का रीमेक बनाया गया.

फैंड्री ने शोहरत दी तो सैराट ने बनाया सुपरस्टार

फैंड्री से जो शोहरत मंजुले ने पाई उसे उनकी एक और फिल्म ने और मजबूत किया. उनके सिनेमा के प्रति लोगों का भरोसा भी बढ़ा. यह फिल्म साल 2016 में आई सैराट थी. ऑनर किलिंग को दर्शाती फिल्म की कहानी में बड़ी जाति से आने वाली अर्चना और निम्न जाति के प्रशांत की प्रेम कहानी को दिखाया गया है. दोनों में प्रेम होता है. परिवार उनका विरोध करता है इस वजह से भाग जाते हैं. दूर शहर में रहते हैं लेकिन उनके रिश्तेदार ही धोखे से उन्हें मार देते हैं. मंजुले ने सैराट की प्रेम कहानी के जरिए दूसरी बार बहुत सफाई से जाति के सवाल को सामने रखा था.

फैंड्री ने लोकप्रियता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. ट्रेड सर्किल के अनुमान हैं कि महज  4 करोड़ के बजट में बनी फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर करीब 110 करोड़ का कारोबार किया. सैराट ने मंजुले को वो सबकुछ दिया जिसके वे हकदार थे. शोहरत दौलत सबकुछ. देशभर में सैराट की खूब चर्चा हुई. इसी चर्चा को भुनाने के लिए ना कई भाषाओं में मराठी फिल्म का रीमेक बना. हिंदी में धड़क, बंगाली में नूर जहां, कन्नड़ में मनसु मल्लिगे, ओडिसी में लैला ओ लैला और पंजाबी में चन्ना मेरया शामिल है.

दर्शक झुंड को किस तरह लेते हैं यह देखने वाली बात होगी.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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