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मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने का मजा बिगाड़ रहे हैं पॉपकॉर्न और कोल्‍ड-ड्रिंक्‍स

    • गौतम बेनेगल
    • Updated: 11 जुलाई, 2018 02:23 PM
  • 11 जुलाई, 2018 02:23 PM
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4 अप्रैल को बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद दर्शकों के खाने-पीने का सामान बाहर ही रखवा लिया जाता है और फिर दर्शकों को महंगे दामों पर खाने पीने की चीजें खरीदनी पड़ती है.

सिंगल स्क्रीन सिनेमा के दिनों को लोग अक्सर याद करते हैं. अपने पुराने दिनों को याद करना उन्हें सुकून देता है. साथ ही वो यादें आज की उलझनों से भरी जिंदगी से भी बहुत दूर थी इसलिए भी याद करते हैं. पहले फिल्म देखने का मतलब खालिस मनोरंजन होता था. आज के समय में फिल्म देखने जाना एक काम होता है. सबसे पहले अपने इंसान को अपना मासिक बजट देखना होता है. उसकी चिंता करनी होती है. फिर मॉल के बेसमेंट में जाकर गाड़ी खड़ी करो. फिर सुरक्षा की लाइन में खड़े हो. दो बार अपनी चेकिंग कराओ. सबसे पहले मॉल के इंट्रेंस पर और फिर दूसरी बार मल्टीप्लेक्स के दरवाजे के सामने. उसके बाद थियेटर हॉल में जाओ तो पूरी फिल्म के दौरान मोबाइल फोन के वाइब्रेशन और चमकती स्क्रीन का भी सामना करना होता है.

1980 के दशक के दौरान कलकत्ता (अब कोलकाता) में अपने किशोरावस्था के दौरान मैंने कई सिनेमाघरों को देखा था. कॉलेज में पढ़ाई के दौरान ट्यूशन फीस और एबीपी के लिए फ्रीलांस असाइनमेंट करके मेरा गुजारा चलता था. तब बालकनी टिकट के लिए 20 रुपये से अधिक खर्च करना पड़ता था. पांच रुपए में पॉपकॉर्न के चिकने पैकेट मिलते थे. और 5 रुपये का एक कोक लेता था. फिर अंत में 4 रुपये का बीफ रोल खाकर मैं अपने दिन को खत्म करता था.

सस्ते वीएचएस सिंगल स्क्रीन के अंत की शुरुआत के पहले संकेत थे. इसके बाद समय के साथ सिनेमाघर खत्म होते गए और टेक्नोलॉजी ने अपनी जगह बनाई. अब वीएचएस कैसेटों से सीडी, फिर डीवीडी और अंततः टोरेंट साइटों तक पहुंच गया. मल्टीप्लेक्स ने लोगों के फिल्म देखने के अनुभव को बदल दिया. पहले जहां लोग चुपचाप सिर्फ फिल्म देखने जाते. इंटरवल में पॉपकॉर्न और कोक पीकर संतुष्ट हो जाते. लेकिन अब फिल्म देखने का अलग ही नजारा होता है. साथ ही सभी बड़े ब्रांड बाजार में अपनी पैठ बनाने के लिए लोगों को डिस्काउंट कूपन दे रहे हैं, ताजा रिलीज हुई फिल्मों के टिकट दे रही है. ये इस बात को याद दिलाते हैं कि मॉल के अंदर बने सिनेमा स्क्रीन मॉल का ही विस्तार है.

सिंगल स्क्रीन सिनेमा के दिनों को लोग अक्सर याद करते हैं. अपने पुराने दिनों को याद करना उन्हें सुकून देता है. साथ ही वो यादें आज की उलझनों से भरी जिंदगी से भी बहुत दूर थी इसलिए भी याद करते हैं. पहले फिल्म देखने का मतलब खालिस मनोरंजन होता था. आज के समय में फिल्म देखने जाना एक काम होता है. सबसे पहले अपने इंसान को अपना मासिक बजट देखना होता है. उसकी चिंता करनी होती है. फिर मॉल के बेसमेंट में जाकर गाड़ी खड़ी करो. फिर सुरक्षा की लाइन में खड़े हो. दो बार अपनी चेकिंग कराओ. सबसे पहले मॉल के इंट्रेंस पर और फिर दूसरी बार मल्टीप्लेक्स के दरवाजे के सामने. उसके बाद थियेटर हॉल में जाओ तो पूरी फिल्म के दौरान मोबाइल फोन के वाइब्रेशन और चमकती स्क्रीन का भी सामना करना होता है.

1980 के दशक के दौरान कलकत्ता (अब कोलकाता) में अपने किशोरावस्था के दौरान मैंने कई सिनेमाघरों को देखा था. कॉलेज में पढ़ाई के दौरान ट्यूशन फीस और एबीपी के लिए फ्रीलांस असाइनमेंट करके मेरा गुजारा चलता था. तब बालकनी टिकट के लिए 20 रुपये से अधिक खर्च करना पड़ता था. पांच रुपए में पॉपकॉर्न के चिकने पैकेट मिलते थे. और 5 रुपये का एक कोक लेता था. फिर अंत में 4 रुपये का बीफ रोल खाकर मैं अपने दिन को खत्म करता था.

सस्ते वीएचएस सिंगल स्क्रीन के अंत की शुरुआत के पहले संकेत थे. इसके बाद समय के साथ सिनेमाघर खत्म होते गए और टेक्नोलॉजी ने अपनी जगह बनाई. अब वीएचएस कैसेटों से सीडी, फिर डीवीडी और अंततः टोरेंट साइटों तक पहुंच गया. मल्टीप्लेक्स ने लोगों के फिल्म देखने के अनुभव को बदल दिया. पहले जहां लोग चुपचाप सिर्फ फिल्म देखने जाते. इंटरवल में पॉपकॉर्न और कोक पीकर संतुष्ट हो जाते. लेकिन अब फिल्म देखने का अलग ही नजारा होता है. साथ ही सभी बड़े ब्रांड बाजार में अपनी पैठ बनाने के लिए लोगों को डिस्काउंट कूपन दे रहे हैं, ताजा रिलीज हुई फिल्मों के टिकट दे रही है. ये इस बात को याद दिलाते हैं कि मॉल के अंदर बने सिनेमा स्क्रीन मॉल का ही विस्तार है.

फिल्म देखने के पहले बजट देखना पड़ता है

फिर 2000 का दशक में आया और लोगों ने एक बार फिर से अपनी पहली पीढ़ियों की तरह फिल्मों देखने जाने से पहले तैयार होना शुरु कर दिया. और जो लोग टिकट लेने की लंबी लंबी लाइनों में पूरे धैर्य से खड़े रहते और अपने टर्न की प्रतीक्षा करते होते. उनके टिकट 1 या उससे कम की कीमत के होते थे? लेकिन उन सभी के लिए इन 30 वर्षों में बहुत कुछ नहीं बदला है. चमकदार पीवीआर और आईनॉक्स अभी भी उनकी पहुंच से बाहर हैं. न ही उनके उनके पास ब्रॉडबैंड कनेक्शन होते हैं जिसके जरिए वो घर बैठे फिल्म डाउनलोड कर लें या फिर स्ट्रीम करके देख लें.

मुंबई की ही बात करें तो धारावी, सायन, गोरेगांव पूर्व में संजयनगर, मलाड का कुरार गांव, या फिर एनटॉप हिल के बाहर भी ऐसे सिनेमा हॉल आपको आज भी मिल जाएंगे जहां हॉल के बाहर स्टूल पर एक बंदा हाथ से लोगों को 2 रुपए के टिकट काट कर दे रहा है. और लोग यहां भी जाने को लेकर खुब उत्साहित हैं. ऐसे हॉल किसी सोडा पब, गेमिंग रूम और फिर देसी शराब के ठेके के आसपास मिलेंगे जहां पर प्लास्टिक की कुर्सियां दर्शकों का इंतजार कर रही होंगी. यहां फिल्मों को  नई ब्लॉकबस्टर फिल्मों से लेकर बी-ग्रेड सॉफ्ट पोर्न और भोजपुरी फिल्में दिखाई जाती है.

लेकिन आज के समय में फिल्म देखना एक महंगा शौक हो गया है. थिएटर में मिलने वाले महंगे स्नैक्स और खानों का लोग विरोध करने लगे हैं. 28 जून को सिनेमाघरों में मिलने वाले पॉपकॉर्न, पेय पदार्थों और खाने पीने के अन्य सामानों की ऊंची कीमतों के खिलाफ मनसे ने विरोध किया. राज ठाकरे के नेतृत्व वाले महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ताओं ने अनपी "मनसे शैली" में पुणे में एक थिएटर मैनेजर को पीट दिया. एक वायरल वीडियो में मनसे कार्यकर्ताओं को प्रबंधक को मारते और दुर्व्यवहार करते देखा गया था. मनसे कार्यकर्ताओं ने कहा कि बॉम्बे हाईकोर्ट के इस आदेश के बावजूद कि इनकी कीमत कम होनी चाहिए. 5 रुपये के पॉपकॉर्न को सिनेमाघरों में 250 रुपये में बेचा जा रहा है.

अगर पिछले कुछ दिनों में ध्यान दिया हो तो फेसबुक पर टेलीविजन अभिनेत्री, गारिमा गोयल का वीडियो चर्चा में है.

हाथ में पॉपकॉर्न का एक बड़ा टब लिए वो मल्टीप्लेक्स में स्नैक्स और कोल्ड ड्रिंक के ऊंचे दाम होने के लिए ही नहीं बल्कि टिकट की कीमत भी दोगुनी होने के बारे में बता रही हैं. यूके का उदाहरण देते हुए गोयल ने कहा कि वहां स्नैक्स की कीमत टिकटों की कीमत की आधी होती है. इस पर एफबी पर एक ने कमेंट किया कि, "टिकट की कीमत 1,000 रुपये तक बढ़ा दी जानी चाहिए, और पॉपकॉर्न 400 तक बढ़ाया जाना चाहिए. तभी हम लंदन के समान अनुपात बनाए रख सकते हैं."

लेकिन अब ग्राहकों की बढ़ती परेशानी को देखते हुए कहा जा सकता है कि मल्टीप्लेक्स में खाद्य पदार्थों और पेय पदार्थों की कीमत का अत्यधिक ज्यादा होना कोई मजाक की बात नहीं है. खासकर तब जब दर्शकों के पास दूसरा कोई विकल्प मौजूद नहीं होता. 4 अप्रैल को बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद दर्शकों के खानेपीने का सामान बाहर ही रखवा लिया जाता है.

पर उपभोक्सा मल्टीप्लेक्स मालिकों को कीमतों को कम करने के लिए कितना मजबूर कर सकते हैं?

उपभोक्ता कितनी कीमत कम करा सकते हैं?

कुछ स्नैक्स और पेय पैकेजेड कमोडिटीज एक्ट (29 जून, 2017) के तहत आ सकते हैं, जो कहता है, "कोई भी व्यक्ति किसी भी पूर्व-पैक किए गए कमोडिटी पर अलग-अलग एमआरपी (दोहरी एमआरपी) घोषित नहीं करेगा, जब तक कि किसी भी कानून के तहत इसकी अनुमति न दी जाए". ये पॉपकॉर्न या सैंडविच जैसी वस्तुओं पर लागू नहीं होते हैं क्योंकि ये सभी फ्री मार्केट कमोडिटी हैं.

और जब हम फ्री मार्केट की बात करते हैं तो इनकी एक अलग ही पहेली है.

मल्टीप्लेक्स में स्नैक्स की कीमतों को कम करने की अपील कौन करेगा? सरकार? यदि ऐसा है, तो यह वास्तव में विडंबनापूर्ण होगा. मल्टीप्लेक्स में जाने वाले ज्यादातर लोग पैसे वाले होते हैं और उनका कॉर्पोरेट में या फिर बिजनेसे से एक अच्छी सैलेरी मिलती है. और ये लोग किसी भी सामान पर सरकार के लगाम लगाने के खिलाफ हैं और हर चीज का निजीकरण चाहते हैं.

उनमें से कई कंपनी में मार्केटिंग और सेल्स डिपार्टमेंट में "प्रतिष्ठित" पद पर होते हैं. और वे अच्छी तरह से जानते हैं कि मूल्य निर्धारण एक अच्छी तरह से विचार किया जाने वाला विपणन अभ्यास है जिसमें गुणात्मक और मात्रात्मक डेटा एनालिटिक्स शामिल हैं. क्या वे मल्टीप्लेक्स के मालिकों से अपील कर रहे हैं? क्या हमें ये नहीं बताया गया है कि बाजार प्रतिस्पर्धी मूल्य निर्धारण के माध्यम से "खुद को सही" करता है? फिलहाल तो एक मीडियम पॉपकॉर्न और कोक के लिए औसत कीमत 490 रुपये है और इसके कम होने के कोई संकेत भी नहीं है.

(DailyO से साभार)

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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