• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
सिनेमा

DadaSaheb Phalke: महज एक 'सम्मान' तक क्यों सीमित कर दिए गए दादा साहेब फाल्के?

    • मुकेश कुमार गजेंद्र
    • Updated: 16 फरवरी, 2021 05:53 PM
  • 16 फरवरी, 2021 05:53 PM
offline
गुलाम भारत में फिल्म इंडस्ट्री के सपने को साकार करने वाले 'सिनेमा के पितामह' को कभी उचित सम्मान नहीं मिला. उनके नाम पर महज एक पुरुस्कार (Dada Saheb Phalke Excellence Award) शुरू कर देना, उनको श्रद्धांजलि नहीं हो सकती.

साल 1910 की बात है. भारत अंग्रेजों का गुलाम था. देश में आजादी के लिए आंदोलन जारी थी. इसी बीच क्रिसमस के दौरान मुंबई के एक थिएटर में एक नौजवान फिल्म देखने पहुंचा. उसने जीसस क्राइस्ट पर बनीफिल्म 'द लाइफ ऑफ क्राइस्ट' देखी. उसे बहुत आनंद आया. उसने सोचा कि जब अंग्रेज फिल्में बना सकते हैं, तो हम क्यों नहीं? उस नौजवान ने भारत में फिल्म बनाने की ठान ली. तमाम परेशानियों और उतार-चढाव का सामने करते हुए उसने भारतीय सिनेमा के इतिहास की पहली फिल्म भी बना डाली. जी हां, हम बात कर रहे हैं भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहेब फाल्के की, जिनकी आज पुण्यतिथि है.

सपने देखना और उसे साकार करना, दोनों अलग-अलग बाते हैं. क्योंकि सपने देखना तो आसान होता है, लेकिन उसे साकार करने के लिए जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता, उसे बहुत कम लोग ही झेल पाते हैं. अक्सर जब हमारे सपने बड़े होते हैं, तो उसी अनुपात में समस्याएं भी बड़ी होती हैं; और लोग टूट जाते हैं. लेकिन दादा साहेब उनमें से नहीं थे. उन्होंने जब फिल्म बनाने का सपना देखा, तो उनके सामने भी समस्याएं आईं, पहली ये कि फिल्म बनाते कैसे हैं? फिल्म बनाने के लिए किन चीजों की जरूर होती है? फिल्म बनाने के लिए पैसों की जरूरत होगी, वो कहां से आएंगे? समस्याएं सवाल बनकर सामने खड़ी थीं.

दादा साहेब फालके का जन्म 30 अप्रैल 1870 को महाराष्ट्र में हुआ था.

दादा साहेब फाल्के ने सबसे पहले तो एक सस्ता कैमरा खरीदा. उनको पहले से ही पेंटिंग और फोटोग्राफी शौक था. कैमरा लेकर अलग-अलग सिनेमाघरों में गए. वहां जाकर फिल्मों का अध्ययन और विश्लेषण किया. एक दिन में वह महज 4 घंटे सोते, बाकी समय प्रयोग करने में चला जाता था. उनकी इस दीवानगी की कीमत उनके शरीर को चुकाना पड़ा. सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ा. उनकी एक आंख जाती रही. आर्थिक स्थिति बद से...

साल 1910 की बात है. भारत अंग्रेजों का गुलाम था. देश में आजादी के लिए आंदोलन जारी थी. इसी बीच क्रिसमस के दौरान मुंबई के एक थिएटर में एक नौजवान फिल्म देखने पहुंचा. उसने जीसस क्राइस्ट पर बनीफिल्म 'द लाइफ ऑफ क्राइस्ट' देखी. उसे बहुत आनंद आया. उसने सोचा कि जब अंग्रेज फिल्में बना सकते हैं, तो हम क्यों नहीं? उस नौजवान ने भारत में फिल्म बनाने की ठान ली. तमाम परेशानियों और उतार-चढाव का सामने करते हुए उसने भारतीय सिनेमा के इतिहास की पहली फिल्म भी बना डाली. जी हां, हम बात कर रहे हैं भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहेब फाल्के की, जिनकी आज पुण्यतिथि है.

सपने देखना और उसे साकार करना, दोनों अलग-अलग बाते हैं. क्योंकि सपने देखना तो आसान होता है, लेकिन उसे साकार करने के लिए जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता, उसे बहुत कम लोग ही झेल पाते हैं. अक्सर जब हमारे सपने बड़े होते हैं, तो उसी अनुपात में समस्याएं भी बड़ी होती हैं; और लोग टूट जाते हैं. लेकिन दादा साहेब उनमें से नहीं थे. उन्होंने जब फिल्म बनाने का सपना देखा, तो उनके सामने भी समस्याएं आईं, पहली ये कि फिल्म बनाते कैसे हैं? फिल्म बनाने के लिए किन चीजों की जरूर होती है? फिल्म बनाने के लिए पैसों की जरूरत होगी, वो कहां से आएंगे? समस्याएं सवाल बनकर सामने खड़ी थीं.

दादा साहेब फालके का जन्म 30 अप्रैल 1870 को महाराष्ट्र में हुआ था.

दादा साहेब फाल्के ने सबसे पहले तो एक सस्ता कैमरा खरीदा. उनको पहले से ही पेंटिंग और फोटोग्राफी शौक था. कैमरा लेकर अलग-अलग सिनेमाघरों में गए. वहां जाकर फिल्मों का अध्ययन और विश्लेषण किया. एक दिन में वह महज 4 घंटे सोते, बाकी समय प्रयोग करने में चला जाता था. उनकी इस दीवानगी की कीमत उनके शरीर को चुकाना पड़ा. सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ा. उनकी एक आंख जाती रही. आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती गई. ऐसे समय में उनकी दूसरी पत्नी सरस्वती बाई ने उनका साथ दिया. सामाजिक निष्कासन और गुस्से को चुनौती देते हुए उन्होंने अपने जेवर गिरवी रख दिए. उस पैसे को दादा को दे दिया.

पैसों और कम पड़े तो अपने एक दोस्त से रुपए उधार ले लिए. इसके बाद दादा साहेब लंदन पहुंच गए. वहां करीब दो हफ्ते तक रहकर उन्होंने फिल्म प्रोडक्शन से जुड़ी बारिकियां सीखीं. इसके बाद साल 1912 में उन्होंने फाल्के फिल्म नाम की एक कंपनी की शुरुआत की. साल 1913 में अपनी पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चन्द्र बनाई. 100 साल पहले गुलाम भारत में एक गरीब आदमी के फिल्म बनाना दुनिया का सबसे कठिन काम माना जा सकता है. जब फाल्के भारतीय सिनेमा की सबसे पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र बना रहे थे, तब इससे बनाने में 15 हजार रुपए खर्च हो गए. उस वक्त 15 हजार रुपए एक बहुत बड़ी रकम थी.

राजा हरिश्चन्द्र के बाद दादा ने भस्मासुर मोहनी फिल्म बनाई, जिसमें कमला और दुर्गा गोखले ने महिला का किरदार निभाया था. उस दौरान पुरुष ही महिलाओं का किरदार निभाते थे. एक बार तो उन्हें फिल्म के लिए एक एक्ट्रेस की जरूरत थी. इसके लिए कोई भी महिला तैयार नहीं हुई, तो वह एक कोठे पर पहुंच गए. वहां एक्ट्रेस ढूंढने की कोशिश की, लेकिन निराशा हाथ लगी. आखिरकार उन्होंने एक भोजनालय में काम करने वाले रसोइए को ही महिला का किरदार निभाने के लिए मना लिया. इस तरह 3 मई 1913 को कोरोनेशन थियेटर फिल्म रिलीज की गई. टिकट का प्राइज रखा तीन आना. फिल्म रिलीज होते ही हिट हो गई.

दादा साहेब ने 20 सालों के अपने फिल्मी करियर में करीब 121 फिल्मों का निर्माण किया. इसमें से 95 फिल्में और 26 शॉर्ट फिल्में शामिल हैं. इनमें से ज्यादातर फिल्में उनके द्वारा ही लिखीं और डायरेक्ट की गई थीं. उन्होंने साल 1932 में अपनी आखिरी मूक फिल्म सेतुबंधन बनाई थी. इसे बाद में डब करके आवाज दी गई थी. उस दौरान फिल्मों में डबिंग का भी एक रचनात्मक और शुरुआती प्रयोग हुआ था. उन्होंने अपने करियर में इकलौती बोलती फिल्म बनाई, जिसका नाम गंगावतरण है. अपनी फिल्मों में तमाम नए एक्सपेरिंमेंट करने वाले दादा ने साल 1917 में नासिक में 'हिन्दुस्तान फिल्म कंपनी' की नींव रखी थी.

दादा साहेब फालके का जन्म 30 अप्रैल 1870 को महाराष्ट्र के नाशिक शहर से करीब 25 किमी. की दूरी पर स्थित बाबा भोलेनाथ की नगरी त्र्यंबकेश्वर में हुआ था. इनके पिता संस्कृत के प्रकांड पंडित थे और मुंबई के एलफिंस्तन कॉलेज में प्राध्यापक थे. दादा की स्कूल से लेकर कॉलेज की पढ़ाई मुंबई से ही हुई है. दादा साहेब फाल्के के द्वारा भारतीय फिल्म जगत में उनके महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए उनके सम्मान में भारत सरकार ने साल 1969 मे उनके नाम पर दादा साहब फाल्के पुरस्कार शुरु किया था. यह पुरस्कार फिल्म जगत में दिया जाने वाला सर्वोच्च और प्रतिष्ठित पुरस्कार है. इसे फिल्म जगत को 'नोबेल' कहा जाता है.

हिंदी सिनेमा की शुरुआत की जब भी जिक्र होती है, तो दादा का नाम पहले सामने आता है. आज फिल्म इंडस्ट्री अरबों रुपये का कारोबार कर रही है. आए दिन हम फिल्मों के 100 से 1000 करोड़ रुपए तक के कलेक्शन की बात सुनते हैं. राजकपूर से लेकर रणबीर कपूर तक और मधुबाला से लेकर आलिया भट्ट तक, पीढी-दर-पीढ़ी न जाने कितने लोग साधारण इंसान से सुपरस्टार बन गए. हजारों लोगों की जिंदगी इस इंडस्ट्री के जरिए चल रही है. लेकिन अफसोस है कि हम भूल जाते हैं कि इन सब के पीछे दादा ही हैं, जिनको हमने महज एक अवॉर्ड तक सीमित कर रखा है. इनके नाम और काम को और आगे ले जाने की जरूरत है.



इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    सत्तर के दशक की जिंदगी का दस्‍तावेज़ है बासु चटर्जी की फिल्‍में
  • offline
    Angutho Review: राजस्थानी सिनेमा को अमीरस पिलाती 'अंगुठो'
  • offline
    Akshay Kumar के अच्छे दिन आ गए, ये तीन बातें तो शुभ संकेत ही हैं!
  • offline
    आजादी का ये सप्ताह भारतीय सिनेमा के इतिहास में दर्ज हो गया है!
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲