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Language debate: किच्चा सुदीप वाली गलती चिरंजीवी भी दोहरा गए!

    • मुकेश कुमार गजेंद्र
    • Updated: 06 मई, 2022 10:30 PM
  • 04 मई, 2022 07:51 PM
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हिंदी बेल्ट में अपनी फिल्में रिलीज करके बॉक्स ऑफिस पर बंपर कमाई कर रहे साउथ के सितारों को अपनी लोकप्रियता शायद हजम नही हो पा रही है, तभी बॉलीवुड के बहाने हिंदी भाषा को नीचा दिखाने की कोशिश में लगे हुए हैं. पहले कन्नड़ एक्टर किच्चा सुदीप और अब तेलुगू एक्टर चिरंजीवी इस बहस को आगे बढ़ा रहे हैं.

दक्षिण के राज्यों में अपनी भाषा के प्रति लगाव के साथ हिंदी के प्रति दुराव किसी से छुपा नहीं है. राजनेता से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग तक भाषा की राजनीति में फंसता रहा है. हाल के दिनों में दक्षिण की फिल्मों को उत्तर भारत में मिली शोहरत से दक्षिण की ओर से भाषायी दबाव फिर उभर आया. पहले कन्नड़ फिल्म स्टार किच्चा सुदीप, और अब तेलुगू फिल्मों के सुपरस्टार चिरंजीवी ने हिंदी को लेकर अपने मन का गुबार निकाला है. चिरंजीवी का कहना है कि 'पहले हिंदी सिनेमा को ही भारतीय सिनेमा समझा जाता था. बॉलीवुड कलाकारों को जितना सम्मान मिलता था, उतना साउथ के एक्टर्स को नहीं मिलता, जिसकी वजह से एक बार उनको बहुत दुख हुआ था.'

तेलुगू एक्टर चिरंजीवी की फिल्म 'आचार्य' 29 अप्रैल को सिनेमाघरों में रिलीज हुई है.

चिरंजीवी ने 33 साल पुरानी एक घटना का जिक्र करते हुए बताया- 1989 में उनकी तेलुगू फिल्म 'रूद्रवीनी' को प्रतिष्ठित 'नरगिस दत्त अवॉर्ड' से सम्मानित करने के लिए दिल्ली में आयोजित अवॉर्ड सेरेमनी में बुलाया गया था. सेरेमनी से पहले सेलिब्रिटिज के लिए पार्टी रखी गई थी. मैं जब पार्टी स्थल पर पहुंचा तो देखा कि एक दीवार पर भारतीय सिनेमा के इतिहास को बताया गया है. उसमें बॉलीवुड के बड़े कलाकारों की तस्वीरें लगी हैं, लेकिन साउथ सिनेमा का नामलेवा तक नहीं है. मैं साउथ फिल्मों के बारे में देखने के लिए चलता रहा. लेकिन वहां केवल जयललिता-एमजीआर और प्रेम नजीर की तस्वीर ही लगी थी. उन्होंने इसे साउथ फिल्म का टाइटल दिया था. मुझे उस समय बहुत बुरा लगा, वो मेरे लिए किसी बेइज्जती से कम नहीं था. उन्होंने केवल हिंदी सिनेमा को ही भारतीय सिनेमा के रूप में दिखाया था. जबकि दूसरी फिल्में रीजनल फिल्मों के तौर पर बांट दी गई थीं. इसके बारे में मेरे बोलने के बाद भी वहां कोई रिस्पॉन्स नहीं मिला था.

दक्षिण के राज्यों में अपनी भाषा के प्रति लगाव के साथ हिंदी के प्रति दुराव किसी से छुपा नहीं है. राजनेता से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग तक भाषा की राजनीति में फंसता रहा है. हाल के दिनों में दक्षिण की फिल्मों को उत्तर भारत में मिली शोहरत से दक्षिण की ओर से भाषायी दबाव फिर उभर आया. पहले कन्नड़ फिल्म स्टार किच्चा सुदीप, और अब तेलुगू फिल्मों के सुपरस्टार चिरंजीवी ने हिंदी को लेकर अपने मन का गुबार निकाला है. चिरंजीवी का कहना है कि 'पहले हिंदी सिनेमा को ही भारतीय सिनेमा समझा जाता था. बॉलीवुड कलाकारों को जितना सम्मान मिलता था, उतना साउथ के एक्टर्स को नहीं मिलता, जिसकी वजह से एक बार उनको बहुत दुख हुआ था.'

तेलुगू एक्टर चिरंजीवी की फिल्म 'आचार्य' 29 अप्रैल को सिनेमाघरों में रिलीज हुई है.

चिरंजीवी ने 33 साल पुरानी एक घटना का जिक्र करते हुए बताया- 1989 में उनकी तेलुगू फिल्म 'रूद्रवीनी' को प्रतिष्ठित 'नरगिस दत्त अवॉर्ड' से सम्मानित करने के लिए दिल्ली में आयोजित अवॉर्ड सेरेमनी में बुलाया गया था. सेरेमनी से पहले सेलिब्रिटिज के लिए पार्टी रखी गई थी. मैं जब पार्टी स्थल पर पहुंचा तो देखा कि एक दीवार पर भारतीय सिनेमा के इतिहास को बताया गया है. उसमें बॉलीवुड के बड़े कलाकारों की तस्वीरें लगी हैं, लेकिन साउथ सिनेमा का नामलेवा तक नहीं है. मैं साउथ फिल्मों के बारे में देखने के लिए चलता रहा. लेकिन वहां केवल जयललिता-एमजीआर और प्रेम नजीर की तस्वीर ही लगी थी. उन्होंने इसे साउथ फिल्म का टाइटल दिया था. मुझे उस समय बहुत बुरा लगा, वो मेरे लिए किसी बेइज्जती से कम नहीं था. उन्होंने केवल हिंदी सिनेमा को ही भारतीय सिनेमा के रूप में दिखाया था. जबकि दूसरी फिल्में रीजनल फिल्मों के तौर पर बांट दी गई थीं. इसके बारे में मेरे बोलने के बाद भी वहां कोई रिस्पॉन्स नहीं मिला था.

इसके साथ ही मेगास्टार ने ये भी कहा कि उन्हें बहुत गर्व है कि पूरे देश में साउथ के एक्टर्स, डायरेक्टर्स और राइटर्स की चर्चा हो रही है. 'बाहुबली', 'आरआरआर', 'पुष्पा' और 'केजीएफ' जैसी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर बेहतरीन परफॉर्म कर रही हैं.

देखिए वीडियो, जिसमें चिरंजीवी ने अपनी कहानी सुनाई है...

चिरंजीवी की बातों का विश्लेषण:

चिरंजीवी की कहानी का विरोधाभास: चिरंजीवी की कहानी में जबर्दस्त विरोधाभास है. वे ये भी स्वीकार कर रहे हैं कि उनकी तेलुगू फिल्म को राष्ट्रीय अवार्ड दिया गया था, और इसके उलट ये भी कह रहे हैं कि साउथ के सिनेमा का आदर नहीं दिया जाता था. चिरंजीवी को तेलुगू भाषी क्षेत्र से बाहर ख्याति उनकी हिंदी फिल्मों से मिली है. उनकी मशहूर हिंदी फिल्मों में 'सई रा नरसिम्हा रेड्डी' (2019), 'बजरंग' (2006), 'द जेंटलमैन' (1994), 'आज का गुंडाराज' (1992), 'आदमी और अप्सरा' (1991), 'प्रतिबंध' (1990), 'ज़ुल्म की जंजीर' (1984), 'ताकतवाला' (1984) और 'दुश्मन का दुश्मन' (1984) शामिल है.

रीजनल सिनेमा का सवाल: चिरंजीवी कह रहे हैं कि साउथ के सिनेमा को रीजनल सिनेमा माना जाता था, तो सवाल ये है कि ऐसा क्यों न मानें? क्या तेलुगू फिल्म को तेलुगू भाषा में ही तमिलनाडु में देखा जा सकता है? क्या कन्नड़ फिल्म को कन्नड़ भाषा में ही आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु या केरल में देखा जा सकता है? यदि तेलुगू फिल्म सिर्फ आंध्र-तेलंगाना और कन्नड़ फिल्म सिर्फ कर्नाटक में ही देखी जा रही तो वो रीजनल सिनेमा ही है. क्योंकि, उसके दर्शकों का विस्तार भाषाई आधार पर एक क्षेत्र विशेष तक सीमित कर दिया गया है.

क्या हिंदी सिनेमा राष्ट्रीय सिनेमा है: हिंदी भाषा का क्षेत्रीय विस्तार बहुत दिलचस्प है. उत्तर भारत के कई राज्य ऐसे हैं, जहां कई तरह की क्षेत्रीय बोलियां हैं. लेकिन, इन सभी राज्यों में कॉमन रूप से समझी जाने वाली भाषा है- हिंदी. हिंदी सिनेमा को इसी का लाभ मिलता है. जिसे हरियाणवी बोलने वाले शख्स से लेकर भोजपुरी, मैथिली बोलने वाला बिहारी भी समझ लेता है. जिसे गुजरात और पंजाब जैसे उत्तर भारतीय भाषायी प्रांत भी बिना किसी झिझक के अपना सिनेमा मानते हैं. तभी तो सिंह इज किंग, सन ऑफ सरदार जैसी सिख किरदारों वाली फिल्में बॉलीवुड खूब बनाता है. इससे बड़ा क्या हो कि हिंदी सिनेमा का गढ़ बॉलीवुड मराठी भाषी राज्य महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में पनपा है. कुल मिलाकर, दक्षिण भारतीय जिसे हिंदी पट्टी मानते हैं, दरअसल वो एक बहुभाषीय ऐसा इलाका है जो हिंदी समझता है, बिना किसी झिझक के. अपनी-अपनी अलग-अलग बोली होने के बावजूद.

दक्षिण का सिनेमा राष्ट्रीय हुआ है, या दक्षिण की भाषा? चिरंजीवी कह रहे हैं कि बाहुबली, RRR और पुष्पा जैसी फिल्मों ने भाषा का बैरियर तोड़ दिया है. लेकिन तथ्य के रूप में यह सरासर गलत है. बाहुबली, RRR और पुष्पा को हिंदी भाषी दर्शकों ने हिंदी में ही देखा है. तेलुगू, तमिल या कन्नड़ में नहीं. इन फिल्मों के कारण हिंदी भाषी दर्शकों में दक्षिण भारतीय भाषाएं सीखने का रुझान दर्ज नहीं हुआ है. बल्कि, इसके उलट हुआ यह है कि रामचरण और जूनियर एनटीआर ने हिंदी सीखी है, और RRR के हिंदी वर्जन को उन्हीं की आवाज में रिकॉर्ड किया गया है. यश और अल्लू अर्जुन ने मुंबई में जब अपनी फिल्मों का प्रमोशन किया तो हिंदी भाषी दर्शकों का दिल जीतने के लिए हिंदी में प्रेस को संबोधित करते देख गए. धनुष पहले से ही अपनी फिल्मों में हिंदी बोलते आए हैं. चिरंजीवी तो खुद बहुत अच्छी तरह हिंदी जानते हैं. तो हकीकत ये है कि उत्तर भारत के बाजार में पैर रखने के लिए दक्षिण भारतीय फिल्म सितारे सहर्ष हिंदी को अपना लेते हैं. लेकिन, जब वे अपने 'रीजनल' ऑडिएंस के बीच पहुंचते हैं तो हिंदी के प्रति नकारात्मकता छलकाने लगते हैं. माना कि साउथ की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर बंपर कमाई कर रही है. साउथ के कलाकार अब पैन इंडिया हीरो बन चुके हैं. लेकिन इन कलाकारों को फिर सोचना चाहिए कि क्या ये उनकी भाषा की वजह से हुआ है. उनको देशभर में पहचान मिली है हिंदी की वजह से, क्योंकि हिंदी राष्ट्र भाषा भले न हो लेकिन पूरे देश को एक सूत्र में बांधने वाली कनेक्टिंग लैंग्वेज जरूर है.

आचार्य और RRR के फर्क से समझिए हिंदी की ताकत:

फिल्मों के प्रमोशन के नाम पर अनावश्यक विवाद खड़े करना चिरंजीवी जैसे बड़े कलाकार को बिल्कुल भी शोभा नहीं जाता. 29 अप्रैल को तेलुगू बॉक्स ऑफिस पर रिलीज हुई उनकी फिल्म 'आचार्य' को वो सफलता नहीं मिली जो उनके बेटे राम चरण की फिल्म 'आरआरआर' को मिली है. 'आचार्य' ने पांच दिन में 73 करोड़ रुपए कमाए हैं, जबकि 'आरआरआर' ने ओपनिंग डे पर ही 133 करोड़ रुपए कमा लिए थे. 'आरआरआर' और 'आचार्य' की कमाई का फर्क ये बताता है कि यदि आपको पूरे देश में मशहूर होना है या फिर बंपर कमाई करनी है, तो आपको हिंदी में अपनी फिल्म जरूर रिलीज करनी होगी.

क्या हिंदी की कमजोरी की वजह से बॉलीवुड संघर्ष कर रहा है?

किच्चा सुदीप ने अपने बयान में कहा था कि 'बॉलीवुड फिल्‍में संघर्ष कर रही हैं, मतलब हिंदी राष्‍ट्रीय भाषा नहीं रही.' जहां तक बात है हिंदी सिनेमा के हालिया संघर्ष की, तो इसका कारण बॉलीवुड के भीतर है. दक्षिण भारतीय बयानवीरों को यह समझ लेना चाहिए कि हिंदी सिनेमा का स्ट्रगल साउथ सिनेमा या दक्षिण भारतीय भाषाओं की ताकत और हिंदी भाषा की कमजोरी के कारण नहीं है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि साउथ सिनेमा के फिल्म मेकर्स अपनी फिल्मों में ज्यादा मेहनत कर रहे हैं. फ्रेश कंटेंट और तकनीकी के सहारे अच्छी फिल्में बना रहे हैं. लेकिन, यह भी उतना ही सच है कि ऐसा करने के लिए बॉलीवुड को कोई रोक नहीं रहा है. हिंदी को नीचा दिखाने वाले दक्षिण भारतीय एक्टर्स को सोचना चाहिए कि यदि वे अपनी फिल्में हिंदी में रिलीज नहीं करते, तो क्या उन्हें वो लोकप्रियता और पैसा मिलता, जो मिला है. साउथ सिनेमा को हिंदी भाषी दर्शकों के दिल में जगह बनाने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़े हैं. तीन दशक का लंबा वक्त लगा है. पहले हिंदी डब, फिर रीमेक और अब पैन इंडिया के जरिए पूरे देश में बंपर कमाई हो रही है.

साउथ सिनेमा के हिस्से जब ये कामयाबी आई है, तो उन्हें थोड़ा धैर्य से काम लेना चाहिए. वे यदि भाषा की सुप्रीमेसी की बहस में पड़ेंगे, तो जिस हिंदी भाषी दर्शक ने उन्हें सिर पर बैठाया है, वो उन्हें सिर से उतार भी देगा. बॉलीवुड के मठाधीशों से उन्हें इस बारे में सलाह लेनी चाहिए.

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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