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Bulbbul Review: तीन बड़े कारण, अनुष्का शर्मा की नई फिल्म देखने के काबिल है

    • आईचौक
    • Updated: 24 जून, 2020 05:21 PM
  • 24 जून, 2020 05:21 PM
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Netflix पर बॉलीवुड फिल्म बुलबुल (Bulbbul movie review) रिलीज हो गई है. अनुष्का शर्मा (Anushka Sharma) के प्रोडक्शन हाउस की यह फिल्म डराती बिल्कुल नहीं है, लेकिन एक्टिंग खासतौर से फिल्म की हिरोइन की, वीएफएक्स यानी फिल्मांकन औरर शानदार बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म को देखने के काबिल बना देता है.

नेटफ्लिक्स पर बुलबुल रिलीज हो गई है. अनुष्का शर्मा के प्रोडक्शन हाउस की फिल्म बुलबुल एक बच्ची से महिला तक के सफर में उसके दोस्त, हमसफर, साथी, चाह, प्यार, हिज़्र, विक्षोभ, तड़प, परिवार, यातना और फिर बदले की भावना पर आधारित एक खूबसूरत कविता की तरह है. बुलबुल में एक चांद है, जो स्याह नहीं, बल्कि विद्रोह के प्रतीक लाल रंग का चोला धारण किए है. बुलबुल में एक लाल और नीले रंग में लिपटा घर, जंगल, मंदिर,आसमां और धुएं की दुनिया है, जिसकी आगोश में कुछ किरदार घूमते रहते हैं. निर्देशक अन्विता दत्त की बुलबुल को भले हॉरर फिल्म की कैटिगरी में रखा गया है और इसकी थीम को सुपरनेचुरल रखा गया है, लेकिन यह फिल्म की इन दोनों विधाओं से अलग एक पेटिंग की तरह है, जिसके एक छोर पर बुलबुल का बचपन है, बीच वाले हिस्से में जवानी की ख्वाहिशें और दूसरे छोड़ पर विरह, तड़प और यातना से उपजी बदले की भावना है, जिसे एक चुड़ैल का सहारा मिलता है. बुलबुल खूबसूरत है, अनोखी है और प्यारी भी, जिससे आप प्यार कर बैठेंगे.

भारतीय समाज में एक मान्यता काफी प्रचलित है कि अगर कोई प्राकृतिक मौत नहीं मरती या मरता तो उसकी आत्मा भटकती रहती है. जो कोई भी उसकी मौत का जिम्मेदार होता है, आत्मा उसे सताती है और बदला लेती है. अन्विता दत्त ने भी इसी पुरानी थीम पर एक कहानी लिखी, जिसके मुख्य पात्र के रूप में बुलबुल पूरी तरह फिल्म पर छाई रहती है. बेहद सीमित यानी प्रमुख पांच किरदार, बेहतरीन सिनेमैटोग्राफी यानी फिल्मांकन और आर्ट डायरेक्शन के साथ ही सधे निर्देशन से बुलबुल अनुष्का की परी और फिल्लौरी की अगली कड़ी के रूप में जानी जाएगी. अविनाश तिवारी, तृप्ति दीमरी, राहुल बोस, पाओली डैम और परमब्रत चट्टोपाध्याय जैसे कलाकारों को लेकर बनाई गई फिल्म बुलबुल एक घंटे 34 मिनट तक आपको थामे रहती है, जिसकी सबसे मजबूत कड़ी है इसका बैकग्राउंड स्कोर. क्या कमाल का बैकग्राउंड स्कोर है, जो बुलबुल को किरदारों को बांधे रखने के साथ ही उन्हें दर्शकों से रूबरू कराता है. इसके साथ ही बेहतरीन विजुअल इफेक्ट्स फिल्म की जान हैं, जिसे देख आपकी आंखों को सुकून का एहसास होता है.

नेटफ्लिक्स पर बुलबुल रिलीज हो गई है. अनुष्का शर्मा के प्रोडक्शन हाउस की फिल्म बुलबुल एक बच्ची से महिला तक के सफर में उसके दोस्त, हमसफर, साथी, चाह, प्यार, हिज़्र, विक्षोभ, तड़प, परिवार, यातना और फिर बदले की भावना पर आधारित एक खूबसूरत कविता की तरह है. बुलबुल में एक चांद है, जो स्याह नहीं, बल्कि विद्रोह के प्रतीक लाल रंग का चोला धारण किए है. बुलबुल में एक लाल और नीले रंग में लिपटा घर, जंगल, मंदिर,आसमां और धुएं की दुनिया है, जिसकी आगोश में कुछ किरदार घूमते रहते हैं. निर्देशक अन्विता दत्त की बुलबुल को भले हॉरर फिल्म की कैटिगरी में रखा गया है और इसकी थीम को सुपरनेचुरल रखा गया है, लेकिन यह फिल्म की इन दोनों विधाओं से अलग एक पेटिंग की तरह है, जिसके एक छोर पर बुलबुल का बचपन है, बीच वाले हिस्से में जवानी की ख्वाहिशें और दूसरे छोड़ पर विरह, तड़प और यातना से उपजी बदले की भावना है, जिसे एक चुड़ैल का सहारा मिलता है. बुलबुल खूबसूरत है, अनोखी है और प्यारी भी, जिससे आप प्यार कर बैठेंगे.

भारतीय समाज में एक मान्यता काफी प्रचलित है कि अगर कोई प्राकृतिक मौत नहीं मरती या मरता तो उसकी आत्मा भटकती रहती है. जो कोई भी उसकी मौत का जिम्मेदार होता है, आत्मा उसे सताती है और बदला लेती है. अन्विता दत्त ने भी इसी पुरानी थीम पर एक कहानी लिखी, जिसके मुख्य पात्र के रूप में बुलबुल पूरी तरह फिल्म पर छाई रहती है. बेहद सीमित यानी प्रमुख पांच किरदार, बेहतरीन सिनेमैटोग्राफी यानी फिल्मांकन और आर्ट डायरेक्शन के साथ ही सधे निर्देशन से बुलबुल अनुष्का की परी और फिल्लौरी की अगली कड़ी के रूप में जानी जाएगी. अविनाश तिवारी, तृप्ति दीमरी, राहुल बोस, पाओली डैम और परमब्रत चट्टोपाध्याय जैसे कलाकारों को लेकर बनाई गई फिल्म बुलबुल एक घंटे 34 मिनट तक आपको थामे रहती है, जिसकी सबसे मजबूत कड़ी है इसका बैकग्राउंड स्कोर. क्या कमाल का बैकग्राउंड स्कोर है, जो बुलबुल को किरदारों को बांधे रखने के साथ ही उन्हें दर्शकों से रूबरू कराता है. इसके साथ ही बेहतरीन विजुअल इफेक्ट्स फिल्म की जान हैं, जिसे देख आपकी आंखों को सुकून का एहसास होता है.

कहानी और डायरेक्शन

बुलबुल कहानी है एक ऐसी लड़की की, जिसका बाल विवाह एक ठाकुर घराने के जमींदार से कर दिया जाता है. 19वीं सदी के ढलान और 20वीं सदी की शुरुआत के कलकत्ते से दूर एक छोटा सा गांव, जो जंगलों से घिरा है, बुलबुल के लिए अनजान जरूर है, लेकिन उसके हमउम्र सत्या के साथ से उसे अपनापन मिलता है. सत्या उसका देवर है, लेकिन उसका बालमन उसे ये एहसास नहीं होने देता कि सत्या का सबसे बड़ा भाई इंद्रनील ठाकुर उसका पति है. बुलबुल बड़ी होती है सत्या के साथ. हमउम्र सत्या के प्रति बुलबुल के विशेष अपनेपन से घर में दीवार खींच जाती है, जिसके एक और सिर्फ बुलबुल है और दूसरी और ठाकुर, बुलबुल का देवर महेंद्र और उसकी पत्नी. समय बीतता जाता है, बुलबुल की चाह समर्पण बनकर सत्या के आसपास मंडराती रहती है, जिसे भांप बुलबुल का पति सत्या को लंदन भेज देता है. सत्या के जाने के ग़म में बुलबुल टूट जाती है और उसकी विरह वेदना उसके पति ठाकुर के मन में जहर भर देता है. ठाकुर बुलबुल को कष्ट देता है और फिर उसे छोड़कर चला जाता है. इस बीच बुलबुल के साथ एक ऐसा वाकया होता है, जिससे सबकुछ बदल जाता है. जब सत्या लंदन से लौटता है तो सबकुछ बदला रहता है. महेंद्र की मौत के बाद उसकी पत्नी विधवा आवरण डाले एकांत में समय बिता रही होती है. सत्या बुलबुल का इलाज कर रहे डॉक्टर से जलता है. गांव में 2-3 कत्ल हो जाते हैं और इसके पीछे प्यासी चुड़ैल की कहानी निकलती है.

अन्विता दत्त ने बुलबुल की कहानी लिखने के साथ ही फिल्म को डायरेक्ट भी किया है. बेहद सामान्य, लेकिन महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा जैसे अहम मुद्दे को अन्विता ने क्या बेहतरीन ढंग से छूआ है. जब बुलबुल कहती है कि सभी मर्द एक जैसे होते हैं, तो जैसे लगता है कि ये घटना तो हम फैमिली में या अपने आसपास देख रहे हैं. हालांकि बुलबुल में कहानी बताने के लिए चुड़ैल का सहारा लिया गया है, जो एक शरीर धारण कर गुनहगारों को सजा देती है. निर्देशन की बात करें तो अन्विता ने डायरेक्टर के रूप में पहली फिल्म में ही क्या शानदार काम किया है. अन्विता ने दर्शकों को बेवजह डराने की बजाय उन्हें शानदार एक्टिंग, कर्णप्रिय बैकग्राउंड स्कोर, बेहतरीन वीएफएक्स से रूबरू कराने की कोशिश की है, जिसमें लाल और नीले रंग का उतना ही महत्व है. खूबसूरत लोकेशन पर शूट बुलबुल किसी पेंटिंग मानिंद है, जिसमें बेहद करीने से रंग भरा गया हो. हालांकि, फिल्म में ऐसे कई सीन है, जिसे देख 1920 या बाकी हॉरर फिल्मों में जंगल में रात के वक्त दौड़ते घोड़ा गाड़ी की याद आती है.

एक्टिंग और डायलॉग

इस फिल्म की जान है बुलबुल का किरदार निभा रहीं तृप्ति दीमरी. महज तीसरी फिल्म में तृप्ति ने क्या खूब काम किया है. चाहे एक्सप्रेशन हो, बोलने का अंदाज हो, अनकही चाहतों के बोझ तले चेहरा झुकाए हुए अपनी भावनाएं जाहिर करना हो या साड़ी-बिंद-गहनों से लदी शर्माती-इठलाती बुलबुल, इस फिल्म में तृप्ति ने सराहनीय काम किया है. सत्या के किरदार में अविनाश तिवारी जंचे हैं और इस बुलबुल में भी वह नेटफ्लिक्स फिल्म घोस्ट स्टोरीज के किरदार जैसे ही दिखे हैं. राहुल बोस ने ठाकुर और महेंद्र की दोहरी भूमिका में कम बोलते हुए भी अपनी छोप छोड़ी है. विनोदिनी के रूप में पाओली डैम और डॉक्टर सुदीप के रूप में परमब्रत चट्टोपाध्याय दो ऐसे किरदार हैं, जो देखने लायक हैं. दोनों एक्टर अपनी हर फिल्म में उम्दा प्रदर्शन करते हैं. दोनों बंगाली कलाकार बुलबुल में भी बंगाल को बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं. बुलबुल की सामान्य कहानी में डायलॉग भी ज्यादा जानदार नहीं हैं और कम ही हैं, लेकिन किरदारों के स्क्रीन प्रजेंस ने फिल्म को बेहतरीन बना दिया है.

तकनीकी पक्ष और म्यूजिक

नेटफ्लिक्स फिल्म बुलबुल तकनीकी रूप से काफी अच्छी फिल्म है. प्रोडक्शन डिजाइनर के रूप में मीनल अग्रवाल और सिनेमैटोग्राफर के रूप में सिद्धार्थ दीवान ने बेहतरीन काम किया है. बुलबुल शूट करने से लेकर एडिटिंग टेबल तक फिल्म की एक-एक बारीकियों पर काम किया गया है, जिससे दर्शक फिल्म देखते वक्त स्टोरी और डायरेक्शन की बाकी खामियां इग्नोर कर देते हैं. बुलबुल भारतीय दर्शकों के लिए एक तरह से विजुअल ट्रीट है, जिसके शॉट्स काफी अच्छे हैं. फिल्म के हर फ्रेम को लाल या ब्लू कलर में दिखाना हॉरर फिल्मों के लिए नई बात नहीं है, लेकिन जिस तरह से बुलबुल में चांद को लाल, घर के अंदर सामान को ब्लू, जंगल और किरदारों को लाल रंग के साये में दिखाया गया है, वह वाकई देखने लायक है. अमित त्रिवेदी ने फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर कमाल का क्रिएट किया है, जिसे सुनना अच्छा लगता है.

क्यों देखें?

अगर आप डार्क हॉरर फिल्मों की जगह लाइट मुड वाली फिल्में देखना चाहते हैं तो बेशक बुलबुल देखें. महज डेढ़ घंटे की फिल्म है, जो यकीनन आपको अच्छी लगेगी. फिल्म की कहानी कुछ खास नहीं है, लेकिन प्रजेंटेशन जबरदस्त है. बुलबुल का साथ पाकर आप अच्छा महसूस करेंगे. वहीं, अगर आप इट, द कंज्यूरिंग, एनाबेल, इनसीडियस जैसी हॉलीवुड फिल्मों जैसी उम्मीदें पालकर बुलबुल देखेंगे तो निराश होंगे.




इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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