• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
सिनेमा

कमजोर पटकथा वाली साहसी फिल्म, 'बुद्धा इन ए ट्रेफिक जाम'

    • आशीष कुमार ‘अंशु’
    • Updated: 01 जून, 2016 07:09 PM
  • 01 जून, 2016 07:09 PM
offline
‘बुद्धा इन ए ट्रेफिक जाम’ अच्छे मकसद से तैयार की गई एक कमजोर फिल्म है. जिसमें अखबारी रिपोर्ट और सरकारी खुफिया सूचनाओं को पाठ्यक्रम के विभिन्न अभ्यासों की तरह अभ्यास एक, दो, तीन के खांचे में बिठाकर पूरी कहानी को सपाट तरिके से कह दिया गया है.

वर्ष 2014 की कहानी से फिल्म बस्तर से शुरू होती है, उसके 4014 साल पुराना एक दृश्य कुछ पलों के लिए पर्दे पर दिखलाई पड़ता है. जिसमें एक व्यक्ति कुल्हाड़ी से लकड़ी काट रहा है और फिर वर्ष 2014 के दूसरे दृश्य में भी कुछ नहीं बदला. एक व्यक्ति उसी तरह लकड़ी काट रहा होता है, जैसा 4014 साल पहले. इन हजारों सालों में कुछ भी तो नहीं बदला उन बस्तर के जंगलों में.

अनुपम खेर, अरुणोदय सिंह, पल्लवी जोशी, माही गिल के अभिनय से सजी विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘बुद्धा इन ए ट्रेफिक जाम’ आज के युवाओं को केन्द्र में रखकर बनाई गई फिल्म है. इस फिल्म की स्क्रीनिंग का विरोध जाधवपुर विश्वविद्यालय में हुआ. कथित तौर पर विरोध की वजह चुनाव आचार संहिता थी. जबकि फिल्म में नक्सली और बुद्धीजीवी संबंध को जिस तरह रखा गया है, उससे जेएनयू और जाधवपुर विश्वविद्यालय के छात्रों का विरोध अपेक्षित था. फिल्म का एक संवाद है- जिसमें अनुसार नक्सली स्लीपर सेल हमारे आस पास कहीं भी हो सकते हैं. पत्रकार, बुद्धीजीवी, प्रोफेसर, छात्र, अभिनेता, गायक, थिएटर एक्टिविस्ट, एनजीओ, सीविल सोसायटी कहीं भी, किसी भी वेश में.

 फिल्म की स्क्रीनिंग का विरोध कई विश्वविद्यालयों में हुआ

ये भी पढ़ें- एक फिल्म खोलेगी टैगोर के प्लेटोनिक प्यार का राज़

यह पूरी फिल्म कुछ किरदारों के आस पास रची गई है. प्रोफेसर रंजन पटकी, उनकी पत्नी शीतल जो अपनी संस्था पॉटर क्लब के माध्यम से...

वर्ष 2014 की कहानी से फिल्म बस्तर से शुरू होती है, उसके 4014 साल पुराना एक दृश्य कुछ पलों के लिए पर्दे पर दिखलाई पड़ता है. जिसमें एक व्यक्ति कुल्हाड़ी से लकड़ी काट रहा है और फिर वर्ष 2014 के दूसरे दृश्य में भी कुछ नहीं बदला. एक व्यक्ति उसी तरह लकड़ी काट रहा होता है, जैसा 4014 साल पहले. इन हजारों सालों में कुछ भी तो नहीं बदला उन बस्तर के जंगलों में.

अनुपम खेर, अरुणोदय सिंह, पल्लवी जोशी, माही गिल के अभिनय से सजी विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘बुद्धा इन ए ट्रेफिक जाम’ आज के युवाओं को केन्द्र में रखकर बनाई गई फिल्म है. इस फिल्म की स्क्रीनिंग का विरोध जाधवपुर विश्वविद्यालय में हुआ. कथित तौर पर विरोध की वजह चुनाव आचार संहिता थी. जबकि फिल्म में नक्सली और बुद्धीजीवी संबंध को जिस तरह रखा गया है, उससे जेएनयू और जाधवपुर विश्वविद्यालय के छात्रों का विरोध अपेक्षित था. फिल्म का एक संवाद है- जिसमें अनुसार नक्सली स्लीपर सेल हमारे आस पास कहीं भी हो सकते हैं. पत्रकार, बुद्धीजीवी, प्रोफेसर, छात्र, अभिनेता, गायक, थिएटर एक्टिविस्ट, एनजीओ, सीविल सोसायटी कहीं भी, किसी भी वेश में.

 फिल्म की स्क्रीनिंग का विरोध कई विश्वविद्यालयों में हुआ

ये भी पढ़ें- एक फिल्म खोलेगी टैगोर के प्लेटोनिक प्यार का राज़

यह पूरी फिल्म कुछ किरदारों के आस पास रची गई है. प्रोफेसर रंजन पटकी, उनकी पत्नी शीतल जो अपनी संस्था पॉटर क्लब के माध्यम से बस्तर के आदिवासियों द्वारा तैयार किए गए मिट्टी के बर्तन को आदिवासियों से खरीद कर केन्द्र सरकार को बेचती हैं. उससे हुए मुनाफे को वह सामाजिक कार्यकर्ता चारू सिद्धू की एनजीओ को दान करती हैं. वर्ष 2014 में केन्द्र सरकार नक्सली इलाकों में काम करने वाली एनजीओ के पैसों पर नकेल कसने का इरादा बनाती है. क्योंकि सरकार के पास इस बात की सूचना है कि नक्सलियों के पास आदिवासी क्षेत्रों में काम करने वाले एनजीओ के माध्यम से भारी मात्रा में पैसा जा रहा है. सरकार द्वारा फंड रोकने वाली नीति की जद में चारू सिद्धू की एनजीओ भी आ जाती है. शीतल के साथ मिट्टी के बर्तन खरीदने के करार को सरकार खत्म कर लेती है. उसके बावजूद शीतल हार नहीं मानती. वह तय करती है कि बस्तर के आदिवासियों के उस बर्तन को वह खुले बाजार में लेकर आएंगी, जो वे आदिवासी बुद्ध के समय से बना रहे हैं. इस काम में शीतल की मदद के लिए रंजन पटकी का एक छात्र विक्रम पंडित सामने आता है. विक्रम का पिंक ब्रा कैंपेन सोशल मीडिया पर काफी चर्चित रहा था. पिंक ब्रा को देखते हुए दर्शकों को तहलका की पत्रकार निशा सुसन की याद जरूर आएगी.

  कुछ सच्चाइयों को उजागर करती है फिल्म

विक्रम पंडित बस्तर के आदिवासियों के मिट्टी के बर्तन को बाजार में उतारने के लिए एक बेहतर योजना लेकर आता है. जिससे सभी प्रभावित होते हैं. सिवाय प्रोफेसर रंजन पटकी के. प्रोफेसर, विक्रम की योजना को समर्थन क्यों नहीं देते, यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी.

ये भी पढ़ें- काश 'अज़हर' की कहानी सच्ची होती!

‘बुद्धा इन ए ट्रेफिक जाम’ अच्छे मकसद से तैयार की गई एक कमजोर फिल्म है. जिसमें अखबारी रिपोर्ट और सरकारी खुफिया सूचनाओं को पाठ्यक्रम के विभिन्न अभ्यासों की तरह अभ्यास एक, दो, तीन के खांचे में बिठाकर पूरी कहानी को सपाट तरिके से कह दिया गया है. इस फिल्म की पटकथा के लिए किसी विशेष तरह का शोध किया गया हो, यह फिल्म देखकर नहीं लगता. यह फिल्म ना आपको वैचारिक स्तर पर आंदोलित करती है और ना ही फिल्म खत्म होने के बाद आपको घर तक ले जाने के लिए कोई संदेश देती है. फिल्म के नक्सली बनावटी जान पड़ते है. फिल्म के नक्सल दृश्यों में गांवों में खेली जाने वाली नौटंकी की याद आ जाती है. प्रोफेसर रंजन पटकी और विक्रम पंडित के बीच के संवाद सतही जान पड़ते हैं. जबकि इस संवाद को अर्थपूर्ण बनाया जा सकता था.

कुछ विश्वविद्यालयों में जरूर इस फिल्म का विरोध हुआ क्योंकि अपनी कमजोर पटकथा के बावजूद यह फिल्म कुछ सच्चाइयों को उजागर करती है. जिसे पहले के फिल्मकार नहीं कर पाए. आजकल के व्यावसायिक फिल्मों के माहौल में इस तरह के साहस की अपेक्षा फिल्मों से समाज ने भी रखनी छोड़ दी है.

 अच्छे मकसद से तैयार की गई एक कमजोर फिल्म

यह फिल्म का साहस ही है कि यह बता पाती है- हमें देश के बाहर के आतंकियों से अधिक खतरा देश के अंदर पल रहे है देशद्रोहियों, देश विरोधियों, नक्सलियों से है. नक्सलियों को बड़ी संख्या में एनजीओ, पत्रकार, प्रोफेसर, छात्र, नेता, पुलिस, अधिकारी, कॉरपोरेट की सहायता प्राप्त है. यह फिल्म माओत्से तुंग की इन पंक्तियों से खत्म होती है- ‘रिवल्यूशन इज नॉट अ डिनर पार्टी.’

लेकिन नक्सलियों और उनके समर्थक छात्र और प्रोफेसरों को ना माओत्से की यह पंक्ति याद है और ना अवतार सिंह पाश का यह कहना-‘‘रात की चांदनी में क्रांति की बात करने वालों, जिस दिन क्रांति आएगी दिन में तारे दिखला देगी.’’

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    सत्तर के दशक की जिंदगी का दस्‍तावेज़ है बासु चटर्जी की फिल्‍में
  • offline
    Angutho Review: राजस्थानी सिनेमा को अमीरस पिलाती 'अंगुठो'
  • offline
    Akshay Kumar के अच्छे दिन आ गए, ये तीन बातें तो शुभ संकेत ही हैं!
  • offline
    आजादी का ये सप्ताह भारतीय सिनेमा के इतिहास में दर्ज हो गया है!
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲