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मेरे लिए तो A फॉर अमिताभ ही है!

    • प्रीति अज्ञात
    • Updated: 12 जुलाई, 2020 05:26 PM
  • 12 जुलाई, 2020 05:26 PM
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इस खबर के बाद कि महानायक अमिताभ बच्चन (Amitabh Bachchan) और उनके परिवार के लोग कोरोना संक्रमित (Amitabh Coronavirus Infected) हुए हैं फैंस के बीच मायूसी की लहर का संचार हो गया है लोग यही दुआ कर रहे हैं कि अमिताभ जल्द से जल्द ठीक हों और घर लौटें.

उन दिनों जब एक नए नवेले नायक को 'एंग्री यंग मैन' कहा जा रहा था लगभग तभी ही मेरा इस दुनिया में पदार्पण हुआ. इसलिए कह सकती हूं कि जब से होश संभाला है स्वयं को अमिताभ के युग में ही पाया. मैं और मुझसे कई उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अमिताभ के नायक से महानायक बनने की पूरी यात्रा में साथ-साथ चले हैं. उनके गीतों को गुनगुनाया है. उनके संवादों संग अठखेलियां कर अपनी मोहब्बत में हजारों रंग भरे हैं. उन दिनों शहर के चौराहों और कई प्रमुख स्थानों पर फिल्मों के पोस्टर लगा करते थे. रिक्शे पर लाउडस्पीकर लगाकर भी नई फ़िल्मों के लगने ('रिलीज़' शब्द तब अंचलों तक पहुंचा ही नहीं था) की सूचना दी जाती थी. स्कूल जाते समय इन पोस्टरों को देखने रुक जाती और नाम पढ़ती कि किस टॉकीज़ में कौन सी फ़िल्म लगी है. अमिताभ के पोस्टर पर आंखें जैसे ठहरी ही रहतीं.

चम्बल का इलाक़ा था और छोटा शहर. प्रायः नई फ़िल्में यहां उसी दिन देखने को नहीं मिलती थीं. कुल तीन सिनेमा हॉल थे, बाद में एक और बन गया था. दो ही तरह की फ़िल्में यहां ख़ूब चलतीं. या तो डकैतों पर बनी हों या अमिताभ की हों. कुल मिलाकर मेरे शहर भिंड का एक्शन से भरपूर सम्बन्ध था तो ऐसे में सबको मुंहतोड़ जवाब देने वाला 'विजय' हमेशा ही भाता रहा. अन्य किसी भी तरह की फ़िल्म कब आती और कब उतर जाती, पता भी नहीं चलता था.

ये अपने भिया अमिताभ का ही जादू ऐसा था कि हमेशा सबके सिर चढ़कर बोलता. उनकी फ़िल्में हफ़्तों चलतीं, कभी-कभी महीनों भी. टिकट-खिड़की पर धक्का-मुक्की, मारामारी यहां तक कि ब्लैक में भी टिकटें बिका करतीं. अब चूंकि ये अमिताभ बच्चन हैं तो लोग खड़े होकर भी इनकी फ़िल्में देखने को तैयार रहते क्योंकि जहां ये खड़े होते हैं, लाइन तो वहीं से शुरू होती है.

इस खबर के बाद कि अमिताभ कोरोना की...

उन दिनों जब एक नए नवेले नायक को 'एंग्री यंग मैन' कहा जा रहा था लगभग तभी ही मेरा इस दुनिया में पदार्पण हुआ. इसलिए कह सकती हूं कि जब से होश संभाला है स्वयं को अमिताभ के युग में ही पाया. मैं और मुझसे कई उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अमिताभ के नायक से महानायक बनने की पूरी यात्रा में साथ-साथ चले हैं. उनके गीतों को गुनगुनाया है. उनके संवादों संग अठखेलियां कर अपनी मोहब्बत में हजारों रंग भरे हैं. उन दिनों शहर के चौराहों और कई प्रमुख स्थानों पर फिल्मों के पोस्टर लगा करते थे. रिक्शे पर लाउडस्पीकर लगाकर भी नई फ़िल्मों के लगने ('रिलीज़' शब्द तब अंचलों तक पहुंचा ही नहीं था) की सूचना दी जाती थी. स्कूल जाते समय इन पोस्टरों को देखने रुक जाती और नाम पढ़ती कि किस टॉकीज़ में कौन सी फ़िल्म लगी है. अमिताभ के पोस्टर पर आंखें जैसे ठहरी ही रहतीं.

चम्बल का इलाक़ा था और छोटा शहर. प्रायः नई फ़िल्में यहां उसी दिन देखने को नहीं मिलती थीं. कुल तीन सिनेमा हॉल थे, बाद में एक और बन गया था. दो ही तरह की फ़िल्में यहां ख़ूब चलतीं. या तो डकैतों पर बनी हों या अमिताभ की हों. कुल मिलाकर मेरे शहर भिंड का एक्शन से भरपूर सम्बन्ध था तो ऐसे में सबको मुंहतोड़ जवाब देने वाला 'विजय' हमेशा ही भाता रहा. अन्य किसी भी तरह की फ़िल्म कब आती और कब उतर जाती, पता भी नहीं चलता था.

ये अपने भिया अमिताभ का ही जादू ऐसा था कि हमेशा सबके सिर चढ़कर बोलता. उनकी फ़िल्में हफ़्तों चलतीं, कभी-कभी महीनों भी. टिकट-खिड़की पर धक्का-मुक्की, मारामारी यहां तक कि ब्लैक में भी टिकटें बिका करतीं. अब चूंकि ये अमिताभ बच्चन हैं तो लोग खड़े होकर भी इनकी फ़िल्में देखने को तैयार रहते क्योंकि जहां ये खड़े होते हैं, लाइन तो वहीं से शुरू होती है.

इस खबर के बाद कि अमिताभ कोरोना की चपेट में आए हैं फैंस मायूस हैं और उनके स्वस्थ होने की कामना कर रहे हैं

आपको बता दूं, उन दिनों शो हॉउस फुल होने के बाद अतिरिक्त कुर्सियां और बेंच लगा दी जाती थी. जब ये बेंचें भी भर जाया करती थीं, तब लोग खड़े होकर भी अपने नायक की एक झलक पाने को तत्पर रहते थे. इधर अपने अमिताभ की एंट्री हुई, उधर तालियों और सीटियों से हॉल गूंजने लगता और ख़लनायक (Villain) की पिटाई के दौरान तो जो सिक्के उछाले जाते कि पूछिए मत!

ये जज़्बा जो अमित जी के लिए उमड़ता रहा न, वो मैंने कभी किसी के लिए नहीं देखा. अजी, तब तो लोग पागल हो जाते थे. अभी मल्टीप्लैक्स में फ़िल्में देखने का वो मज़ा नहीं है और इस तरह का पागलपन भी जरा कम ही देखने को मिलता है. पागलपन नहीं, दीवानगी ही समझिये इसको. पर भैया, अब जो है सो है. उनके जैसा हेयर स्टाइल, बैलबॉटम, चलने का अंदाज़ सब कुछ कॉपी किया जाता. उनके संवाद बच्चे-बच्चे को याद रहते और नृत्य की अनोखी शैली से तो हम सब परिचित हैं ही.

अपना ये हीरो ग़र अख़बार भी पढ़े न तो अपन तो आवाज़ सुन ही होश खो बैठें. ये हीरो जब बोलता है तो आवाज़ सीधे दिल की घाटी में उतर जाया करती है, जब हंसता-हंसता तो मैं भी उसके साथ और बाद में भी घंटों हंसती, वो उदास होता या उसका दिल टूटता तो मुझे बेहद गुस्सा आता. यूं लगता कि नहीं यार! मेरे लंबू को कुछ नहीं होना चाहिए. उसके ग़म में मैं भी जार-जार रोती. ये वही हीरो है जिसने मुझे अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने और डटे रहने की प्रेरणा दी. जो हर मुसीबत से निकल पाने की सीख देता रहा, जिसने हर ज़ुल्म का प्रतिरोध किया.

क्या करें, तब फिल्मों का असर इतना गहरा ही होता था, असल ज़िंदग़ी से जुदा नहीं लगा करती थीं. मनोरंजन का एकमात्र साधन यही था जिसने तमाम युवाओं के मन में सपनों के हजार बीज बो दिए थे. मेरे हृदय में भी 'हीरो' की छवि में एक सांवला, लंबा और गहरी आंखों वाला युवक उभरने लगा था. मैं उनकी तस्वीरें भी जमा करती थी और उनसे जुड़ी ख़बर पाने के लिए ही अख़बार पलटा करती. आलम ये था कि कोई उनके विरुद्ध एक शब्द भी कह दे तो अपन उससे सीधा भिड़ जाते. अमिताभ के लिए कुछ भी गलत सुनना न तो तब ग़वारा था और न अब है. आगे भी नहीं होगा.

अमिताभ की फ़िल्में ही नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व और जीवन से भी बहुत पाठ लिए जा सकते हैं. उन्होंने ही सिखाया कि संघर्षों से कैसे जीता जा सकता है, मुश्क़िल समय में मन नहीं हारना है और ये वक़्त भी गुज़र जाएगा. उनकी भाषा, बोलने का सलीक़ा और विनम्रता देख लोग सभ्यता का पाठ समझते हैं. उनका मौन भी मुखर होता है. वे हर पीढ़ी के आदर्श रहे. अपने बाबूजी के ये प्रेरणास्पद शब्द वो अक़्सर कहते हैं -

तू न थकेगा कभी,

तू न रुकेगा कभी,

तू न मुड़ेगा कभी,

कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ'

ये शब्द जब अमिताभ की आवाज़ पा जाते हैं तो तन-मन में एक अद्भुत ऊर्जा का संचार कर देते हैं.

हिन्दी सिनेमा का महानायक और दादा साहब फ़ालके पुरस्कार प्राप्त यह अभिनेता अपने आप में एक संस्थान है. एक युग है. अमिताभ, अभिनय की वो पाठशाला हैं जो अपने जीवन के पचास से भी अधिक वर्ष सिनेमा को समर्पित कर इसे समृद्ध करते रहे हैं और टीवी पर भी अपना जलवा ख़ूब बिखेरा है. अब भी बिखेर रहे हैं और हम सब को केबीसी के नए सीज़न का बेताबी से इंतज़ार भी है. अमिताभ सा दूजा न कोई हुआ है, न होगा. पक्का यक़ीन है कि मुसीबतों को मात देने वाला हमारा 'विजय' इस बार भी शीघ्र ही घर लौटेगा.

याद है अमित जी, बाबूजी ने एक अनुवादित कविता में क्या कहा था? पढ़िए तो जरा-

अभी कहां आराम बदा

यह मूक निमंत्रण छलना हैं,

अरे अभी तो मीलों तुमको,

मीलों तुमको चलना है.

स्वस्थ होकर घर आइए. हम सबको केबीसी और आपकी आने वाली फ़िल्मों की प्रतीक्षा है. लेकिन उससे भी पहले आपके और अभिषेक के स्वस्थ होने की ख़ुशी में जलसा भी तो करना है न! देश भर का अपार स्नेह और सारी प्रार्थनाएं आपके नाम.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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