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'आनंद' से लेकर 'पा' तक, बीमारियों से जुड़ी 5 फिल्में, जो जिंदगी का सबक देती हैं

    • मुकेश कुमार गजेंद्र
    • Updated: 12 मई, 2021 06:34 PM
  • 12 मई, 2021 06:34 PM
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कोरोना महामारी के इस दौर में छोटे से बड़े, हर अवस्था, हर उम्र, वर्ग के अधिकांश लोग डिप्रेशन का शिकार हैं. हर तरफ नकारात्मकता फैली हुई है. सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक, लोगों के विचारों में निराशा है. ऐसे वक्त में अच्छी किताबें और फिल्में लोगों की मन:स्थिति को बदल सकती हैं.

दुनिया भर में सिनेमा मनोरंजन का एक बेहद लोकप्रिय साधन है. समाज पर सिनेमा का गहरा प्रभाव देखने को मिलता है. इसलिए तो फिल्मों को समाज का आइना कहा जाता है. सिनेमा समाज को सीख देता है. समाज की गूढ़ समस्याओं को सबके सामने लाता है. भविष्य में आने वाली किसी समस्या से आगाह भी करता है. फिल्में कई बार लोगों में निहित भावनाओं को जगाने का भी काम करती हैं. इस वक्त पूरा देश कोरोना महामारी के आगोश में है. लाखों की संख्या में लोग बीमार हैं. हजारों की संख्या में लोग रोज मर रहे हैं. हर तरफ नकारात्मकता का माहौल है. सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक हाहाकार मचा हुआ है. बीमारों को तो छोड़िए स्वस्थ इंसान भी डिप्रेशन का शिकार हुए जा रहे हैं. कई मरीज जो बेहतर इलाज से ठीक हो सकते थे, वो भी आसपास का माहौल देखकर दम तोड़ दे रहे हैं.

महामारी के इस दौर में छोटे से बड़े, हर अवस्था, हर उम्र, वर्ग के अधिकांश लोग डिप्रेशन का शिकार हैं. डिप्रेशन की विकृतियां मनुष्य में अनचाहे रूप में प्रकट होने लगती हैं. इसका मूल कारण व्यक्ति की मानसिकता, मनोकारी रोग, घटनाओं से प्रभावित होने पर इसके लक्षण दिखाई देने लगते हैं. व्याकुल, व्यग्र, दुख-शोक संतप्त होने से सोच कुंठित हो जाती है और इंसान जीवन को नीरस अनुभव करने लगता है. आत्मविश्वास के कमजोर होने पर व्यक्ति डिप्रेशन में चला जाता है. मैं कुछ भी कर सकता हूं, मुझमें कोई कमी नहीं, मैं परिपूर्ण हूं, जब वह इन बातों को मेंटेन नहीं कर पाता, तो डिप्रेशन में जाता है. ऐसे वक्त में इंसान को प्रेरणा की जरूरत होती है. कई प्रमुख किताबें और फिल्में बीमार, निराश और हताश शख्स के लिए प्रेरणस्रोत बन सकती हैं. आइए ऐसी ही कुछ बॉलीवुड फिल्मों के बारे में जानते हैं.

आनंद और शुभ मंगल सावधन जैसी फिल्में मनोरंजन के साथ समाज को सीख भी देती...

दुनिया भर में सिनेमा मनोरंजन का एक बेहद लोकप्रिय साधन है. समाज पर सिनेमा का गहरा प्रभाव देखने को मिलता है. इसलिए तो फिल्मों को समाज का आइना कहा जाता है. सिनेमा समाज को सीख देता है. समाज की गूढ़ समस्याओं को सबके सामने लाता है. भविष्य में आने वाली किसी समस्या से आगाह भी करता है. फिल्में कई बार लोगों में निहित भावनाओं को जगाने का भी काम करती हैं. इस वक्त पूरा देश कोरोना महामारी के आगोश में है. लाखों की संख्या में लोग बीमार हैं. हजारों की संख्या में लोग रोज मर रहे हैं. हर तरफ नकारात्मकता का माहौल है. सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक हाहाकार मचा हुआ है. बीमारों को तो छोड़िए स्वस्थ इंसान भी डिप्रेशन का शिकार हुए जा रहे हैं. कई मरीज जो बेहतर इलाज से ठीक हो सकते थे, वो भी आसपास का माहौल देखकर दम तोड़ दे रहे हैं.

महामारी के इस दौर में छोटे से बड़े, हर अवस्था, हर उम्र, वर्ग के अधिकांश लोग डिप्रेशन का शिकार हैं. डिप्रेशन की विकृतियां मनुष्य में अनचाहे रूप में प्रकट होने लगती हैं. इसका मूल कारण व्यक्ति की मानसिकता, मनोकारी रोग, घटनाओं से प्रभावित होने पर इसके लक्षण दिखाई देने लगते हैं. व्याकुल, व्यग्र, दुख-शोक संतप्त होने से सोच कुंठित हो जाती है और इंसान जीवन को नीरस अनुभव करने लगता है. आत्मविश्वास के कमजोर होने पर व्यक्ति डिप्रेशन में चला जाता है. मैं कुछ भी कर सकता हूं, मुझमें कोई कमी नहीं, मैं परिपूर्ण हूं, जब वह इन बातों को मेंटेन नहीं कर पाता, तो डिप्रेशन में जाता है. ऐसे वक्त में इंसान को प्रेरणा की जरूरत होती है. कई प्रमुख किताबें और फिल्में बीमार, निराश और हताश शख्स के लिए प्रेरणस्रोत बन सकती हैं. आइए ऐसी ही कुछ बॉलीवुड फिल्मों के बारे में जानते हैं.

आनंद और शुभ मंगल सावधन जैसी फिल्में मनोरंजन के साथ समाज को सीख भी देती हैं.

फिल्म- आनंद

12 मार्च 1971 में सुपरस्टार राजेश खन्ना और महानायक अमिताभ बच्चन की फिल्म 'आनंद' रिलीज़ हुई थी. इसे मशहूर डायरेक्टर ऋषिकेश मुखर्जी ने निर्देशित किया था. इस फिल्म में आज से 40 साल पहले कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी की खौफनाक कहानी लोगों के सामने पेश की गई थी. इसमें राजेश खन्ना ने आनंद नामक शख्स का किरदार निभाया है, जो ब्लड कैंसर पीड़ित होता है. अमिताभ बच्चन ने एक डॉक्टर का रोल किया है. यह जानते हुए भी कि कैंसर की बीमारी की वजह से उनकी मौत निश्चित है, जिंदगी के प्रति आनंद का नजरिया खूब पसंद किया गया था. बिगबी की एक सख्त और फिर बाद में दोस्त बन जाने वाले डॉक्टर के तौर पर खूब तारीफ हुई थी. इतना ही नहीं इस फिल्म ने लोगों को कैंसर के बारे में सुनने, समझने और बात करने के लिए प्रेरित किया. इससे पहले लोग बीमारी के प्रति उतने गंभीर नहीं थे.

सीख- 'जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं', यह फिल्म सीखाती हैं कि ज़िन्दगी के हर लम्हे को खुलकर जीना चाहिए. मौत का दिन तो मुकर्रर है.

फिल्म- फिर मिलेंगे

साल 2004 में रिलीज हुई फिल्म 'फिर मिलेंगे' की कहानी एड्स बीमारी पर आधारित है. यह अमेरिकन फिल्म 'Philadelphia' से प्रेरित बताई जाती है. इस फिल्म का निर्देशन रेवती ने किया था. इसमें सुपरस्टार सलमान खान, शिल्पा शेट्टी और अभिषेक बच्चन ने अहम किरदार निभाए थे. फिल्म में तमन्ना साहनी (शिल्पा शेट्टी) को उस वक्त उसकी नौकरी से निकाल दिया जाता है, जब उसके बॉस को पता चलता है कि वह एक HIV पॉजिटिव शख्स से प्यार करती है. इसके बाद तमन्ना अपने एम्पलॉयर के खिलाफ केस कर देती है. वकील तरुण आनंद के किरदार में अभिषेक बच्चन इस केस को कोर्ट में लड़ते हैं. इस पूरी प्रक्रिया के दौरान एड्स और HIV पॉजिटिव मरीजों को लेकर समाज फैली भ्रांतियों के बारे सिलसिलेवार दिखाया गया है. लोगों के वहम और डर के खिलाफ जागरूक किया गया है.

सीख- 'बीमारी से डरिए बीमार से नहीं', हमें मरीजों के प्रति सहानुभूति रखते हुए उनकी समस्याओं के समाधान के बारे में बातचीत करनी चाहिए.

फिल्म- पा

साल 2009 में रिलीज हुई फिल्‍म 'पा' एक ऐसे बच्‍चे की कहानी है जिसको महज 13 साल की उम्र में प्रोजेरिया नामक बीमारी हो जाती है. एक बेहद दुर्लभ जेनेटिक डिसऑर्डर बीमारी में व्‍यक्ति बहुत तेजी से बूढ़ा होने लगता है. फिल्‍म में बीमार 'औरो' का किरदार सदी के महानायक अमिताभ बच्‍चन ने निभाया है. उनके बेटे का किरदार अभिषेक बच्चन ने तो मां का विद्या बालन ने निभाया है. इसमें एक बाप-बेटे और मां-बेटे के उस गहरे संबंध को दिखाया गया है, जिसे देखकर हर दर्शक की आंखें नम हो जाती हैं. एक बच्चे की बीमारी की वजह से उसके माता-पिता पर क्‍या बीतती है? बच्चा बीमार होने के बावजूद खुशदिल है, बुद्धिमान है और हमेशा सबको खुश रखने की कोशिश करता है. जीवन के विषम परिस्थितियों में भी कैसे खुश रहना और रखना चाहिए, इसे समझने के लिए फिल्म पा देखनी चाहिए.

सीख- बीमारी जब जिंदगी का एक हिस्सा बन जाए, तो उसके साथ भी खुश रहने की कोशिश करनी चाहिए.

फिल्म- शुभ मंगल सावधान

साल 2017 में रिलीज हुई फिल्म शुभ मंगल सावधान की कहानी इरेक्टाइल डिसफंक्शन यानि पुरुषों में होने वाले गुप्त रोग पर आधारित है. दरअसल, कुछ पुरूषों में संतोषजनक संभोग के लिए लगातार पर्याप्त इरेक्शन नहीं होता है, जिसे इरेक्टाइल डिसफंक्शन कहा जाता है. इसे नपुंसकता भी कहा जाता है. यह पुरुषों से संबंधित एक बड़ी समस्या है, लेकिन इसके बारे में बात करने पर आज भी लोग डरते हैं. इस फिल्म में आयुष्मान खुराना और भूमि पेडनेकर लीड रोल में हैं. आयुष्मान खुराना के किरदार मुदित को यही बीमारी होती है. शादी के बाद जब उसकी पत्नी सुंगधा को इसके बारे में पता चलता है, तो वो उसका साथ देती है. वास्तविक जिंदगी में हमने इस बीमारी की वजह से कई घरों को टूटते हुए देखा है. कई संबंधों को अवैध होते हुए भी देखा जाता है. इसलिए समय रहते इसके समाधान की जरूरत है.

सीख- पुरुषों में भी सेक्शुअल समस्याएं होती हैं. इनके बारे में बात करनी जरूरी है. नीम-हकीम की जगह डॉक्टर के पास जाएं.

फिल्म- तारे जमीन पर

साल 2007 में रिलीज हुई फिल्म तारे जमीन पर की कहानी डिस्लेक्सिया नामक डिसऑर्डर पर आधारित है. इस फिल्म को हर मां-बाप और टीचर को जरूर देखना चाहिए. हर बच्चे को एक ही तराजू में तौलने वाला हमारा एजुकेशन सिस्टम स्पेशल बच्चों की जरूरत और अहमियत को नज़रअंदाज़ कर देता है. इस फिल्म में ईशान अवस्थी (दर्शील सफारी) डिस्लेक्सिया डिसऑर्डर से पीड़ित है. उसे पढ़ाई में ध्यान लगाने और विषयों को समझने में दिक्कत आती है. लेकिन जब उसे अपनी पसंद और रुचि का काम यानि ड्रॉइंग मिलता है, तो उसे मन से करता है. उसकी इस समस्या को उसके टीचर रामशंकर निकुंभ (आमिर ख़ान) समझ जाते हैं और उसे उसकी रुचि की दिशा में ही आगे बढ़ाते हैं. इस फिल्म को आमिर खान और अमोल गुप्ते ने मिलकर निर्देशित किया था. इसे कई फिल्म पुरस्कार भी मिले थे.

सीख- बच्चों को समझना बहुत जरूरी है. उनकी जिस विषय में रुचि हो, उसी के अनुसार पढ़ाई करानी चाहिए.


इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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