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Updated: 13 मई, 2015 11:35 AM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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कौन बनेगा 'तीन दिन' के लिए प्रधानमंत्री? मोदी जी के व्हाट्सएप मैसेज को देख कई लोग उछल पड़े. 10 मिनट में मीटिंग होनेवाली थी. अपनी दावेदारी जताने के लिए हर किसी को दो मिनट का टाइम मिलना था. सुषमा स्वराज ने इसे चुनौती के तौर पर लिया तो राजनाथ सिंह भी थोड़े गंभीर दिखे. अरुण जेटली ने भी गौर तो किया लेकिन जल्द ही काम में लग गए.

अगर किसी के चेहरे पर निश्चिंत होने का सबसे ज्यादा भाव नजर आ रहा था तो वे थे - एक, साक्षी महाराज और दूसरी, साध्वी निरंजन ज्योति.

विदेश दौरे की तैयारियों को फटाफट निबटाते हुए मोदी जी मीटिंग हाल में पहले से ही पहुंच चुके थे. धीरे धीरे वे सब भी पहुंच गए जिन्हें वहां होना चाहिए था. आने वालों में कई तो बस इसीलिए आए क्योंकि रस्म तो निभानी ही थी.

मोदी जी ने एक बार सभी को इस तरह देखा जैसे चेहरे पढ़ने की कोशिश हो. असली नकली चेहरे की तो उन्हें अच्छी पहचान है ही. अगर किसी को ठिकाने लगाना हो तो वो अपने इसी स्किल का इस्तेमाल भी करते हैं. फिर थोड़ी दूर बैठे साक्षी महाराज से मुखातिब हुए, 'हां, महाराज जी. शुरू आपसे ही करते हैं. बताइए.'

साक्षी महाराज : सरकार एक बार मुझे मौका देकर देखिए. यकीन मानिए मैंने आपके कई आईडियाज रट लिए हैं. डिट्टो भाषण दे सकता हूं, सरकार. और, वैसे नया भी कुछ श्रीमुंह से निकला तो होगा तो दमदार ही. एक मौका हमें जरूर दीजिए साहेब.

साध्वी निरंजन ज्योति : सर, महाराज बोल तो ठीक ही रहे हैं. उनकी बातों का कोई जवाब भी नहीं. लेकिन क्या वो यही मानते हैं कि प्रधानमंत्री का काम सिर्फ भाषण देना है? ये तो परोक्ष रूप से आपका अपमान है सर. ये मौका मुझे दीजिए सर. मैं देश को बिलकुल गुजरात की तरह चलाके दिखा दूंगी, अपने मुंह से कहना ठीक न होगा सर. आप मुझे मौका देकर देखिए - आनंदी बेन से बीस ही पाएंगे, उन्नीस तो कतई नहीं.

स्मृति ईरानी : सर मेरे लिए तो आपका आदेश सर आंखों पर. मैं फिर अमेठी निकल पड़ती हूं. जब तक आप बाहर रहेंगे मैं जीजा-साले का जीना हराम कर दूंगी. आप कहें तो मैं वहीं डटी रहूंगी - आपके आने तक. बस एक बार मौका देकर तो देखिए सर मैं कैसे लोगों की बोलती बंद करा रही हूं, चले हैं सूट-बूट की बात करने. संजय निरुपम, शरद यादव के मामले में तो आपने मेरी परफॉर्मेंस देखी ही है, सर. अब अपने मुंह से और क्या बोलूं? आप तो सबसे बड़े समझदार हैं, सर.

गिरिराज सिंह : अब आपके सामने मुंह से क्या बोलना सर. (ये सुनते ही एक साथ सबकी हंसी फूट पड़ी) मैं तो आपका पुराना चेला हूं सर. आखिर पटना से दिल्ली आपने इसीलिए बुलाया ना. कुछ और बोलना हो तो एक-दो प्वाइंट बता दीजिए - तीन दिन तो मैं यूं ही खींच दूंगा.

योगी आदित्यनाथ : ये तीन दिन का क्या मतलब है? ये कोई फिल्म थोड़े ही है - और हमें कोई अनिल कपूर की तरह एक्टिंग थोड़े ही करनी है. अगर महोदय वाकई सीरियस हैं तो इस पर तरीके से बात होनी चाहिए. अरे कभी दो-तीन महीने का दौरा बनाइए तो सोचा भी जाए. मैं तो कतई इसके पक्ष में नहीं हूं.

बलियावाले भरत सिंह का चेहरा बता रहा था जैसे योगी उन्हीं के मन की बात कर रहे हों. लेकिन इस बार कुछ बोले नहीं. बस एक बार राजनाथ सिंह की ओर देखा और फिर, शायद, खतरों को भांपते हुए मोदी जी की ओर रुख कर लिया.

नितिन गडकरी कुछ बोलना चाह रहे थे. और मोदी जी से ग्रीन सिग्नल मिलने पर शुरू भी हुए...

नितिन गडकरी : एक आइडिया है सर. अगर हम...

'आइडिया बाद में डिस्कस करेंगे,' मोदी जी ने गडकरी को बीच में ही रोक दिया, 'गडकरी जी थोड़ा समझा करो... हमेशा एक ही बात...'

कुछ लोग ऐसे भी लोग रहे जो चुपचाप बैठे हुए थे. सुरेश प्रभु, जे पी नड्डा, वी के सिंह, चौधरी वीरेंद्र सिंह, मनोहर परीकर, और एम. वेंकैया नायडू ने आंख-कान तो खुले रखे थे लेकिन उनके मुंह बिलकुल बंद थे. कभी वे मोदी जी की ओर तो कभी दावेदारों की ओर देखते जा रहे थे.

'ठीक है. बताते हैं,' मोदी जी बोले और रुखसत हो लिए. जाते जाते सबकी उलझन बढ़ाते गए. अच्छे तीन दिन आने वाले तो हैं, मगर किसके? इस बीच, सत्ता के गलियारों में चर्चाओं पर गौर करने पर पता चलता है कि प्रधानमंत्री मोदी विपक्षी नेताओं को भी इसी तरह का मौका देने के मूड में हैं. दरअसल, अहम बिलों को पास कराने में हो रही मुश्किलों से बेहाल मोदी ऐसी तरकीबों के बारे में पिछले कई हफ्तों से विचार कर रहे हैं. असल में मोदी इस बात से बेफिक्र हैं कि उनकी गैरहाजिरी में कोई भी कुछ कर पाएगा, क्योंकि सत्ता का असली चाबी तो उनके किसी न किसी चहेते अफसर के ही हाथ में होती है - और मास्टर-की तो मोदी जी की जेब में.

सियासत के सबक तो मोदी जी ने संघ के दिनों में ही सीख लिए थे. गुजरात ने हुनर में इजाफे का भरपूर मौका दिया - और अब तो बस एक्सपेरिमेंट बाकी है. बढ़िया है. अब तो बस एक्सपेरिमेंट बाकी है. बढ़िया है.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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