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Updated: 03 फरवरी, 2023 08:38 PM
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व्यापारी राजनीति और युद्ध में खुले तौर पर नजर नहीं आते. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो. लेकिन किसी भूगोल और सभ्यता के लिहाज से युद्ध और राजनीति में व्यापारियों की भूमिका हमेशा महत्वपूर्ण रही है. दुनिया पर अतीत में जिन सत्ताओं का राज था, असल में वह पहले-पहल व्यापारियों की शक्ल में ही निकले थे. वह चाहे अरब, मध्य एशिया के हों या फिर अंग्रेज और दूसरी तमाम यूरोपीय कॉलोनी. व्यापारियों के कारोबारी कौशल उनकी सभ्यता के काम आए. भारत में भी इस्लामिक और यूरोपीय उपनिवेश व्यापार की शक्ल में ही आया था.

यह भी ध्यान देना होगा कि उपनिवेशों के खिलाफ तमाम देशों के संघर्ष में व्यापारियों ने ही निर्णायक भूमिका निभाई. वह भी बिना सत्याग्रह किए. बिना वैचारिक प्रतिबद्धता जगाए और एकाध अपवाद छोड़ दिया जाए तो बिना तलवार उठाए. बिना राज सिंहासन पर बैठे. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में व्यापारियों का योगदान अतुलनीय है जिसे आज भुला दिया गया है. आधुनिक स्वतंत्रता आंदोलन में यूरोपीय उपनिवेशों के खिलाफ तो है ही- उससे पहले इस्लामिक उपनिवेश में भी नजर आता है. असंख्य उदाहरण भरे पड़े हैं. लेकिन भारतीय समाज के निर्माण और इतिहास में भारतीय व्यापारियों की भूमिका को उभारा ही नहीं जाता. हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के बाद गौतम अडानी चर्चा में हैं. आईचौक आज भारतीय इतिहास के सिर्फ तीन व्यापारियों की कहानी बताने जा रहा है.  

गौतम अडानी गौतम अडानी

1) भामाशाह जिन्होंने अकबर के खिलाफ प्रताप की जनक्रांति को सुलगाए रखा

भामाशाह भारतीय इतिहास का वह नाम हैं जो उतने ही आदर के साथ लिया जाता है जितना कि महाराणा प्रताप का. भामाशाह ने मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व प्रताप और मेवाड़ को समर्पित कर दिया था. भामाशाह कावेडिया गोत्र के ओसवाल महाजन थे. जैन धर्म से थे और मेवाड़ के सबसे प्रतिष्ठित व्यापारी थे. वे प्रताप के प्रधानमंत्री भी बने थे. भामाशाह को इतिहास में खारिज करने के बहुत प्रयास हुए पर उनका नाम कभी ख़त्म नहीं किया जा सका. कई ग्रंथों में उनका संदर्भ आता है. वह प्रताप से सात वर्ष छोटे थे.

राजपुताने में भामाशाह के निशान आज भी देखने को मिल जाएंगे. अकबर ने जब भारतीय राज्यों को गुलाम बनाना शुरू किया और एक पर एक वीभत्स हमले किए. सामूहिक नरसंहार हुए- उसकी चपेट में प्रताप का चित्तौड़ भी आया. प्रताप ने अकबर से इतिहास में सबसे लंबा संघर्ष किया. करीब 12 वर्षों तक लगातार युद्ध हुआ. पर कभी गुलामी के आगे झुके नहीं और क्रांति की मसाल जलाए रखी. हल्दीघाटी युद्ध में प्रताप के दस्ते ने अकबर की सेना को तबाह ही कर दिया था. वह अभूतपूर्व युद्ध था.

हल्दीघाटी के युद्ध के बाद प्रताप की स्थिति जूझने की नहीं थी. उनके पास संसाधन तक नहीं बचे थे. सैनिकों के भोजन और तनख्वाह तक के पैसे नहीं थे. मगर भामाशाह ने अपना सर्वस्व सेवा के लिए प्रताप को समर्पित कर दिया था. उन्होंने खजाने की रक्षा करने वाले प्रथा भील के साथ चिंताग्रस्त महाराणा के पास पहुंचे और कहा था- यह पूर्वजों का धन है. इसे मातृभूमि के काम में लगाए. मातृभूमि रही तो हम धन फिर कमा लेंगे. यह भामाशाह का ही धन था जो प्रताप 12 वर्षों से ज्यादा वक्त तक अकबर से जूझते रहे और सदैव अपराजेय रहे. भामाशाह की मृत्यु प्रताप की मृत्यु के तीन साल बाद हुई थी.

2) दीवान टोडरमल जिन्होंने इतिहास में जमीन का सबसे महंगा सौदा किया

गुरु गोबिंद सिंह के छोटे साहिबजादों और माता गुजरी की शहादत के बारे में देश का बच्चा बच्चा जानता है. दिसंबर 1704 में औरंगजेब ने गुरुगोविंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों बाबा जोरावर सिंह जी और बाबा फतिह सिंह जी और माता गुज़री को पकड़ लिया था. दोनों बिछुड़ गए थे. दो मासूम बच्चों को धर्म बदलने को कहा गया. नन्हे बालक झुके नहीं. औरंगजेब ने साहिबजादों को दीवारों में जिंदा चुनवा कर शहीद कर दिया था.

निर्मम हत्याकांड के तुरंत बाद एक शाही फरमान जारी किया गया. और कहा गया कि साहिबजादों और माता गुजरी का अंतिम संस्कार सल्तनत की जमीन पर नहीं किया जा सकता. उनका संस्कार जमीन का टुकड़ा खरीदकर ही किया जा सकता है. मुगलों को मालूम था कि ऐसा करने से जमीन के बदले उन्हें बहुत दौलत मिलेगी. उन्होंने शर्त रखी थी कि जितनी जमीन की जरूरत है, उस पर सोने के सिक्कों (अर्शफियां) को सीधा खड़ा करके ही खरीदा जा सकता है. गुरु गोविंद सिंह चाहकर भी वहां नहीं जा सकते थे. ऐसे में दीवान टोडर मल ने साहस दिखाया. वह एक रईस कारोबारी और धर्म भीरू थे.

अनुमान है कि उन्होंने जमीन खरीदने के लिए करीब 78000 सोने के सिक्कों को जमीन पर बिछाया था. 4 गज की जमीन के लिए. उस वक्त के हिसाब से चार गज जमीन की कीमत 400 करोड़ पड़ी थी. टोडरमल ने सर्वस्व लुटाकर गुरुगोविंद सिंह और भारत के स्वाभिमान की रक्षा की थी. वह राह दिखाई जो हमेशा उत्पीडन के खिलाफ संघर्ष की प्रेरणा बना रहा.

3) जगत सेठ दुनिया के सबसे अमीर कारोबारी जिन्होंने बंगाल की राजनीति पलट दी

मुर्शिदाबाद में नवाब सिराजुद्दौला का राज था. सिराजुद्दौला विदेशी ही था और रियाया उससे और उसके रिश्तेदारों की लूट और अराजकता से परेशान थी. उसी राज्य में एक जगत सेठ (फतेहचंद) नाम के मारवाड़ी व्यापारी थे. माना जाता है कि वह अपने वक्त में दुनिया के सबसे अमीर कारोबारी थे. समूचे उत्तर भारत में उनका कारोबार फैला था. वे राजा महाराजाओं को कर्ज दिया करते थे. कहा यह भी जाता है कि उनकी दौलत तब ब्रिटेन की जीडीपी से भी ज्यादा थी. उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी को भी कर्ज दिया था.

जगत सेठ को भी स्वदेश और की चिंता थी. यह उन्हीं का कमाल था कि उन्होंने मीर जाफर की सत्ता की लालच का इस्तेमाल मुर्शिदाबाद में विदेशी शासकों के अंत और भाविष्य के भारत की शुरुआत के लिए किया. उन्होंने आर्थिक मदद देकर मीर जाफर को नवाब सिराजुद्दौला के खिलाफ उकसाया. मीर जाफर ने सिराजुद्दौला का रिश्तेदार था लेकिन सत्ता के नशे में अंधा होकर उसने सिराजुद्दौला की हत्या कर सत्ता कब्जा ली. बाद में जगत सेठ ने ईस्ट इंडिया कंपनी के जरिए मीर जाफर को भी रास्ते से हटवा लिया.

इतिहास में नवाब सिराजुद्दौला को महिमामंडित करने के लिए जगत सेठ को खलनायक की तरह परोसा गया. देशद्रोही  तक बताया गया. जबकि जगत सेठ ने एक तरह से इस्लामिक शासन का वैसे ही अंत करवाया जैसे वे सत्ता में आए थे. अंग्रेज जगत सेठ के मकसद को भांप नहीं पाए. लेकिन मीर जाफर की हत्या के बाद उन्हें योजना पता चल गई और अंग्रेजों ने जगत सेठ के कारोबार को जितना नुकसान पहुंचा सकते थे- पहुंचाया.

अंग्रेजों ने जगत सेठ को इस स्थिति तक पहुंचा दिया कि वो पैसे-पैसे के लिए मोहताज हो गए. उनकी तमाम संपत्तियां कब्जा कर ली गई. जगत सेठ के जीवन मेमन ऐसा वक्त भी आया कि दुनिया के सबसे अमीर कारोबारी को अंग्रेजी पेंशन पर जीवन गुजारने पड़ा. उनकी संतानों के वक्त अंग्रेजी सरकार ने पेंशन भी बंद कर दी. मगर जगत सेठ ने जहर से जहर को मारने का जो सपना देखा था आखिरकार वह देश की आजादी के साथ 1947 में पूरा हुआ. 

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