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Updated: 17 मार्च, 2016 07:12 PM
राहुल मिश्र
राहुल मिश्र
  @rmisra
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क्या आपका मोबाइल बिल 3,000 रुपये से कम आता है? अगर हां तो घटिया मोबाइल सर्विस और कॉल ड्रॉप के लिए तैयार रहें. लंबे समय से मोबाइल उपभोक्ता कॉल ड्रॉप और घटिया नेटवर्क की समस्याओं से जूझ रहे हैं. मामला ट्राई (टेलिकॉम रेग्युलेटर) होते हुए दिल्ली हाईकोर्ट पहुंचा, जहां टेलिकॉम कंपनियों को हर कॉल ड्रॉप की शिकायत पर 1 रुपये उपभोक्ता को लौटाने का फरमान सुना दिया गया. इस फैसले के विरोध में कंपनियों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है और मामला विचाराधीन है. इन सबके बीच अब टेलिकॉम कंपनियों ने 'सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे' की तर्ज पर नई रणनीति तैयार की है.

टेलिकॉम कंपनियों ने अपने ग्राहकों को उनके प्रति माह बिल की दर के मुताबिक आंकना शुरू कर दिया है. कंपनियां ज्यादा बिल देने वाले उपभोक्ताओं को अच्छी सुविधा देने में वरीयता देना चाहती हैं. टेलिकॉम इंडस्ट्री से जुड़े लोगों कहना है कि पिछले एक साल से कंपनियों ने उन उपभोक्ताओं को बेहतर सुविधा देने की कोशिश की है जिनका प्रति माह बिल 3000 रुपये या उससे ज्यादा रहता है.

ऐसा इसलिए क्योंकि ज्यादा बिल भरने वाले उपभोक्ता अगर घटिया सर्विस के चलते अपना नंबर किसी दूसरे मोबाइल नेटवर्क पर पोर्ट कराते हैं तो कंपनी की कमाई पर खराब असर पड़ता है. वहीं कम बिल भरने वाले या प्रीपेड सेवा का इस्तेमाल कर रहे उपभोक्ता अगर नंबर पोर्ट कराते हैं तो कंपनी की बैलेंसशीट पर ज्यादा असर नहीं पड़ेगा क्योंकि ऐसे उपभोक्ता कंपनियों के लिए ज्यादा मुनाफा नहीं लाते.

अब टेलिकॉम कंपनियों की इस रणनीति का असर महज कॉल ड्रॉप पर नही बल्कि उनके द्वारा दी जा रही हर सुविधा पर देखने को मिलेगा. कंपनियों ने अब दो तरह के कस्टमर केयर कॉल सेंटर भी तैयार कर लिए है जहां एक कॉल सेंटर उन उपभोक्ताओं की समस्या का समाधान वरीयता के साथ करेगा जिनका महीने का बिल 3000 रुपये से ज्यादा रहेगा. वहीं उपभोक्ताओं की बड़ी भीड़ के कस्टमर केयर को दूसरे कॉल सेंटर पर डायवर्ट कर दिया जाएगा. मतलब साफ है, अगर ज्यादा बिल का भुगतान करेंगे तो कॉल सेंटर आपका फोन तुरंत उठाएगा वहीं कम से कम भुगतान कर आप मोबाइल सेवा ले रहे हैं तो मोबाइल कंपनी का प्रचार सुनते हुए इंतजार कीजिए क्योंकि लाइन अभी लंबी है.

ऐसे में एक और सच्चाई को जान लेना बेहद जरूरी है. केंद्र सरकार के आंकड़ों के मुताबिक देश की निजी और प्राइवेट टेलिकॉम कंपनियों पर सरकारी खजाने का लगभग 50 हजार करोड़ रुपये बकाया है. इसमें लगभग 15 हजार करोड़ रुपया दोनों सरकारी कंपनी एमटीएनएल और बीएसएनएल को चुकाना है और बाकी के 35 हजार करोड़ रुपये देश की 11 निजी टेलिकॉम कंपनियों को चुकाना है. इस बकाया राशि में केन्द्र सरकार के खजाने में लगभग 24 हजार करोड़ स्पेक्ट्रम इस्तेमाल का बकाया है और 17 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की रकम बतौर लाइसेंस फीस जमा की जानी है. इस बकाया राशि में सबसे अधिक रकम देश की सबसे बड़ी टेलिकॉम कंपनी भारती एयरटेल (8,066 करोड़) और वोडाफोन लिमिटेड (7,693 करोड़) को चुकाने हैं.

अब सवाल पैदा होता है कि क्या यह संचार क्रांति और डिजिटल इंडिया की हमारी परिकल्पना का साइड इफेक्ट है? क्या 21वीं सदी में टेक्नोलॉजी भी अमीर-गरीब, ऊंची जाति-छोटी जाति जैसे भेदों से ग्रस्त है? और अंत में क्या हमारे लोकतंत्र में चुनी जा रही सरकारें भी इन भेदों के सहारे महज वोट बंटोरने का काम करती हैं और हकीकत में वकालत ऐसी टेलिकॉम कंपनियों की करती हैं जो इन अमीर और गरीब के फर्क पर अपनी सुविधाएं मुहैया करा रही हैं? कम से कम सुप्रीम कोर्ट में टेलिकॉम कंपनियों के वकीलों की फेहरिस्त को देखकर तो इन सभी सवालों के जवाब हां में ही देते हैं. गौरतलब है कि यूपीए सरकार में टेलिकॉम मंत्री रहे कपिल सिब्बल अब सुप्रीम कोर्ट में टेलिकॉम कंपनियों को कॉल ड्राप के जुर्माने से बचाने की कोशिश में लगे हैं. वहीं कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी भी टेलिकॉम कंपनियों का अदालत में पक्ष रखते रहे हैं.

अब अगर टेलिकॉम कंपनियां अपने उपभोक्ताओं में मासिक बिल के आधार पर भेदभाव कर रही हैं तो क्या गलत है. सरकारी खजाना भी तो आखिर भेदभाव के बीच भरा जाता है. अमीर ज्यादा टैक्स देता है इसलिए उसकी सुविधा दुरुस्त रहनी चाहिए. जहां तक बात संचार क्रांति और डिजिटल इंडिया का है तो वह यूपीए और एनडीए के साझे जुमले से कहां कम है. लिहाजा, आप अपने मोबाइल बिल को 3000 रुपये प्रति माह के ऊपर ले जाएं जिससे कंपनियां आपको भी उस श्रेणी में डाल सकें जहां सुविधाएं दुरुस्त हैं.

लेखक

राहुल मिश्र राहुल मिश्र @rmisra

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में असिस्‍टेंट एड‍िटर हैं

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