New

होम -> इकोनॉमी

 |  अर्थात्  |  4-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 08 नवम्बर, 2017 09:00 PM
अंशुमान तिवारी
अंशुमान तिवारी
  @1anshumantiwari
  • Total Shares

भले ही कोई किसी भी विचारधारा में विश्‍वास रखता हो, लेकिन इतना तो सभी मानेंगे कि नोटबंदी का फैसला टैक्‍स रिटर्न्स के आंकड़े बढ़ाने के लिए तो नहीं किया गया था. और न ही इसका उद्देश्‍य डिजिटल ट्रांजेक्‍शन को बढ़ाना था. नोटबंदी जैसा अप्रत्‍या‍शित उलट फेर बड़े पैमाने पर कालाधन पकड़ने के लिए था. निष्क्रिय कंपनियां (शेल कंपनी नहीं) पर शिकंजा तो बड़े उस मकसद का बहुत छोटा हिस्‍सा है.

बंद किये गए नोटों में 99 फीसदी की बैंकों में वापसी के बाद नोटबंदी भारत की सबसे बड़ा रहस्‍य भी बन गई है. नोटबंदी को एक साल हो चुका है. और सरकार करेंसी बैन के दौरान चुपचाप निष्क्रिय कंपनियों के बंद होने का लेखा जोखा निकाल रही है. ऐसे में हम यह मान सकते हैं कि राजस्‍व और बैंकिंग के बड़े ओहदेदारों के पास पर्याप्‍त महत्‍वपूर्ण आंकडे आ गए हैं, जो कि नोटबंदी के रहस्‍यो पर से पर्दा हटा सकते हैं.

नोटबंदी, नरेंद्र मोदी, भाजपा, अर्थव्यवस्था

नोटबंदी की पहली सालगिरह पर सरकार का फर्ज बनता है कि वह लोगों के कुछ सवालों का जवाब दे, जिन्‍हें नोटबंदी के दौरान और बाद में काफी परेशानी और दर्द झेलना पड़ा है :

1. सवाल : वो 'गरीब' कौन थे जिन्होंने हजारों जन धन अकाउंट खोले और उनमें करोड़ों रुपए जमा करवाए (पुराने नोटों की शक्ल में) ? बताया गया कि बाद में इन अकाउंट्स से काफी बड़ी मात्रा में पैसा निकाला भी जा चुका है.

कारण: जनधन खातों के ऑपरेशन और उनके खुलने का रहस्‍य नोटबंदी का सबसे बड़ा पेंच है. नोटबंदी के बाद प्रधानमंत्री जनधन योजना (PMJDY) के अंतर्गत दो करोड़ 33 लाख नए अकाउंट खोले गए. इसमें से 80 प्रतिशत पब्लिक सेक्टर बैंकों से खोले गए थे. नोटबंदी के बाद इन खातों में बहुत सारा पैसा जमा किया गया. अगर आंकड़ों की बात करें तो मार्च 2017 की रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार जनधन खातों में 74,600 करोड़ रुपए थे. ये सिर्फ 7 दिसंबर 2016 तक का आंकड़ा था और नोटबंदी के दूसरे दिन तक ही 9 नवंबर 2016 को ये आंकड़ा 45,600 करोड़ रुपए थे. यानी दो महीने में ही 63.6 प्रतिशत की बढ़त.

जैसे ही न्यूज चैनलों पर इस बारे में बात शुरू हुई और कहा गया कि जनधन अकाउंट्स के जरिए काले धन को सफेद किया जा रहा है. 15 नवंबर 2016 को सरकार ने जनधन अकाउंट में पैसा जमा करने की सीमा 50 हजार रु. तक सीमित कर दी. हालांकि, 1 मार्च 2017 को डिपॉजिट कम होकर 64,300 करोड़ रु. हो गया. फिर भी नोटबंदी के दिन की तुलना में यह आंकड़ा 41 प्रतिशत ज्यादा है.

गुजरात में सबसे ज्यादा जनधन अकाउंट खोले गए जिसमें 94 प्रतिशत की बढ़त थी. इसके बाद महाराष्ट्र, राजस्थान, झारखंड और उत्तर प्रदेश आए थे.

2. सवाल :नोटबंदी के दौरान सरकारी खजाने (केंद्र और राज्‍य), सरकारी/पीएसयू खातों से अन्‍य बैंक खातों के बीच कितने पैसे का लेन-देन हुआ ?

कारण: सरकारी खजाने और अकाउंट नोटबंदी के समय करेंसी बैन या कैश ट्रांजेक्‍शन की किसी भी सीमा से मुक्‍त रखे गए थे. कई सरकारी संस्थान को नोटबंदी के दौरान रद्द कर दी गई करेंसी के रूप में भी डिपॉजिट लेने की छूट थी.

इतना ही नहीं, सरकारी खजानों में जब रद्द किए गए 500 और हजार रु. के नोटों के ढेर के बीच नए नोटों की खेप सबसे पहले पहुंची थी. प्राथमिकता के आधार पर.

3. सवाल :बड़े बिजनेसमैन या कॉर्पोरेट्स के करंट अकाउंट से कितने पुराने नोट बैंकों में पहुंचे ?

कारण: जैसे कि बहुत सारी निष्क्रिय कंपनियों की जानकारी मिली है जो करंसी को गैरकानूनी तरीके से अपने अकाउंट में डाल और निकाल रही थीं, तो यकीनन सरकार के पास इसकी जानकारी तो होगी ही कि कितने करंट अकाउंट इस सब मामले में शामिल थे.

4. सवाल :देश ये जरूर जानना चाहेगा कि आखिर नेताओं और राजनैतिक पार्टियों के अकाउंट में कितना पैसा आया और गया? और नोटबंदी के दौरान कैसे राजनैतिक कार्यक्रमों में पैसा खर्च किया गया.

कारण: नोटबंदी के बीच सरकार ने सभी राजनीतिक पार्टियों को अपने अकाउंट में पुराने 500 और 1000 रुपए के नोट जमा करने दिए थे.

पार्टियों को पहले से ही इनकम टैक्स की छूट होती है. जबकि उन्‍होंने 20,000 प्रति व्यक्ति से ज्यादा का डोनेशन न लिया हो और इसके पर्याप्‍त दस्‍तावेज हों. हालांकि, काफी आलोचना के बाद पार्टियों को दी गई यह छूट वापस ले ली गई थी. लेकिन, इसके बावजूद उस लेन-देन का हिसाब जनता से शेयर किया ही जा सकता है. राजनीतिक दलों की साख की खातिर ही सही.

5. सवाल :नोटबंदी के तीन हफ्तों बाद नरेंद्र मोदी ने भाजपा नेताओं से उनके बैंक अकाउंट ट्रांजैक्शन और 8 नवंबर से लेकर 31 दिसंबर तक की डिटेल जमा करने को कहा था..इस जानकारी का देश आज तक इंतजार कर रहा है.

कारण: शीर्ष नेतृत्‍व को हमेशा शंकाओं से परे रहना चाहिए.

नीतियों की विफलता बर्दाश्‍त की जा सकती है, लेकिन पारदर्शिता जरुर होनी चा‍हिए. नोटबंदी से हो रही परेशानी और दर्द को सहते हुए भी जनता इस परीक्षा के लिए खड़ी रही. ऐसे में सरकार का यह दायित्‍व बनता है कि जनता को बताए कि नोटबंदी से हुए उन फायदा के बारे में बताए, जिसका असर देखने में 'दीर्घकाल' की जरूरत नहीं है.

ये भी पढ़ें-

काले धन से जुड़े मिथक जिनका टूटना जरूरी है...

नोटबंदी का असर फायदे और नुकसान के बीच में कहीं है

लेखक

अंशुमान तिवारी अंशुमान तिवारी @1anshumantiwari

लेखक इंडिया टुडे के संपादक हैं.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय