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Updated: 14 अगस्त, 2016 04:26 PM
सिद्धार्थ झा
सिद्धार्थ झा
  @sidharath.jha
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आजादी के सातवें दशक में हम कदम रखने जा रहे हैं लेकिन हर बार हमारे सामने ये सवाल खड़ा हो जाता है कि स्वतंत्र देश में हमारी आधी-आबादी यानी महिलाएं कितनी स्वतंत्र हुई हैं. ख़ासकर उस समय जब प्रधानमंत्री को भी 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' कर भ्रूण हत्या के खिलाफ बोलना पड़ रहा है.

ये स्थिति तब भी आती है जब मंदिर और मस्जिद में महिलाओं के प्रवेश को लेकर समाज में तना-तनी हो जाती है और न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ता है. बात यही ख़त्म नही होती. खाप पंचायतों की महिलाओं को लेकर हुए तुगलकी फरमान किसी से छुपे नही हैं. इसी समाज में रोजाना बुलंदशहर जैसी घटनायें भी हमारे प्रगतिशील समाज के मुंह पर कालिख पोतती हैं. दलित, निर्धन और अशिक्षित महिलाओं की सुध लेने की बात तो दूर की कौड़ी है, जब शहरी आबादी ही बुरी तरह सामाजिक दुश्चक्र में फंसी हो. 

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इन सबके बीच ऐसा नही है कि समाज में अच्छी खबरें नही आती देर-सबेर महिलाओं से संबंधित ऐसी खबरें भी आती रहती है जो नारीवादी विचार के लोगों को अच्छी लगती हैं. आज आधा दर्जन महिलाओं को मुख्यमंत्री बनने का गौरव प्राप्त हो चुका है. अतीत की और वर्तमान में लोकसभा अध्यक्ष भी नारी समाज का गौरव बढ़ा रही हैं. पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूरे विश्व में महिलाओं का सम्मान बढ़ाया ही है.

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 लिंगानुपात में तब जाकर आमूल चुल परिवर्तन हो सकता है जब महिलाओं को समाज में लिंगभेद की पाबंदी ना झेलनी पड़े

आजादी के 70 सालों में तीनों सेनाओं में महिलाओं का दखल रहा है. चारो तरफ प्रशाशन, पत्रकारिता, बैंक और अन्य सेवाओं में बहुत बड़ी भागीदारी है. फिर भला क्यों अक्सर ये सवाल किसी न किसी रूप में हमारे आगे मुँह बाए खड़ा हो जाता है कि महिलाओं के अधिकार क्या और कितने हो. 

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ये महिलाओं में लाचारगी है या इस दोमुंहे समाज की बेचारगी जो महिलाओं का अस्तित्व देह से आगे स्वीकारने को तैयार नही होता.

महिलाओं ने अब तक जो भी हासिल किया भी है वो स्वयं के अनुभव आत्मविश्वास और मेहनत के आधार पर पाया है क्योंकि पुरुष समाज भी लैंगिक सोच के दायरे से बाहर नही निकला है. स्त्री को देह मानने की मानसिकता से क्या अब तक हम उब पाये हैं. ये सवाल जब हम खुद से पूछेंगे तो निश्चित तौर पर हमें इसका जवाब मिल जायेगा.

विश्वभर की संसद में महिलाओं की संख्या के हिसाब से भारत आज भी 103वें स्थान पर है. जबकि नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान की सांसदों में महिला सांसदों की संख्या कहीं अधिक है. जिनको हम अपने से भी ज्यादा पिछड़ा हुआ मानते हैं.

यहाँ तक की सीरिया, रवांडा और सोमालिया की हालत भी हमसे बेहतर है. तो सोचिये कि हम कहां खड़े हैं. महिला आरक्षण बिल अभी भी संसद के किन्तु परन्तु के बीच अधर में अटका हुआ है. 4 साल पहले आये एक अध्ययन के मुताबिक भारत में महिलाओं की स्थिति सउदी अरब जैसे देशों से भी पिछे है.

दुनियाभर के संपन्न देशों में महिलाओं की स्तिथि दर्शाने वाले इस शोध में भारत आखिरी पायदान पर खड़ा था. दरअसल हमारे यहां महिलाओं की स्थिति उनकी सामाजिक और आर्धिक परिस्थितियों पर निर्भर हैं. गांव और शहर की महिलाओं में तुलना करना बेमानी है. ग्रामीण महिलायें जहां आज भी अनेक वर्जनाओं और कुप्रथाओं से जूझ रही हैं. वही शहरी संभ्रांत महिलायें उचाईयों के नये आयाम गढ़ रही हैं. बेहतर तो ये होता कि कुलीन और सुशिक्षित महिलायें खुद नारी विकास की पैरोकारी करती. समग्र भारत में नारियों की दशा में आमूल चूल परिवर्तन जरूर आता. 

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21वीं सदीं आधी दुनिया यानी महिलाओं की सदीं है. स्वतंत्र भारत में महिलाओं के लिए बहुत सारे ठोस कार्य हुए है. लेकिन इस परिवर्तन को होने में जितना वक्त लग रहा हैं वो कहीं न कहीं पुरुषवादी मानसिकता को कटघरे में खड़ा करती है. जो सशक्त योजनाओं को भी कागज़ी साबित करती है.

हमें ये समझना होगा विकास और महिला उत्थान दो अलग चीज़े नहीं हैं. इन्हें दो अलग नज़रिये से देखने पर सिर्फ नाकामी ही हाथ लगेगी. महिलाओं को विकास की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए पिछले कुछ दशकों में अभूतपूर्व प्रयास किये गये, जिससे वो आत्मनिर्भर और जागरूक हो सकें. राजग सरकार के समय यानी 2001 में महिला सशक्तिकरण वर्ष के रूप में मनाया गया. इसमें महिलाओं को सशक्त करने, उन्हें आत्मनिर्भर और जागरुक करने के अनेक भगीरथ प्रयास हुए.

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 ये महिलाओं में लाचारगी है या इस दोमुँहे समाज की बेचारगी जो महिलाओं का अस्तित्व देह से आगे स्वीकारने को तैयार नही होता

इसमें राष्ट्रीय महिला उत्थान नीति की बात करना जरूरी है. जिसमें महिलाओं के उत्थान, भागीदारी और समानता के लिए काम किया गया. याद कीजिए, हाल में ही प्रधानमंत्री का भाषण जिसमें उन्होंने कहा था कि महिलाओं को हक़ देने वाले हम कौन हैं. महिलाओं को अपने फैसले खुद लेने हैं इस बीच किसी को बाधा नही बनना चाहिए.

नारी के लिए सुरक्षा और सुविधा जुटाते रहने के कारण ही पुरुषवादी समाज को मान्यता मिलती गई. इसलिए इस ढांचे को भी तोड़ना होगा. परिवार जरूरी है लेकिन कर्तव्य और अधिकार समान होना भी जरूरी है. बेशक शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता महिलाओं के दशा और दिशा में महत्वपूर्ण बदलाव ला रहा है. बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ जैसी योजनाए महिलाओं को समानता का हक दिलाने में और अधिक सफलता दे रही है. लेकिन स्किल इंडिया जैसे स्वरोजगार के विकल्प महिलाओं के लिए पंख बनकर उभरेंगे.

इससे बहुत बड़ी चीज तकनीक है जो महिलाओं की जिंदगी बदल रही है. गाव की लड़कियां बड़े-बड़े कॉलेज स्कूल से घर बैठे अपनी पढ़ाई कर रही हैं. बड़ी ऑनलाइन कंपनियों से जुड़ कर उत्पाद बेच रही हैं. अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही हैं. इसलिए इस परिप्रेक्ष्य में तकनीक का बहुत बड़ा हाथ है.

आज भी हम रात 9 बजे के बाद लड़कियों को बाहर नही निकलने देते, क्योंकि असुरक्षा की भावना इतनी है कि निर्भया जैसी दुर्घटना होने की आशंका से हर बाप डरा हुआ है. ये घटनायें जितना बड़ा दुःस्वप्न है, उससे भी बड़ी इन घटनाओं के बाद होने वाली राजनीति है.

समाज में अगर सुरक्षा सरकार सुनिश्चित कर दे तो शायद अलग से कुछ प्रयास करने की जरूरत नही. सरकार सुरक्षा दे और परिवार लिंग-भेद को दूर करें. सिर्फ इतनी कोशिशों की दरकार है. आज़ादी के सत्तर वर्षों में हमने ज़मीन से अंतरिक्ष तक बहुत सारी उपलब्धियां हासिल की. इस उम्मीद के साथ की बहुत जल्द ही नारी की दशा बदलेगी. ये केवल विमर्श का केंद्र-बिंदु नही बन कर रह जायें. बलात्कार ,भ्रूण हत्या, इज़्ज़त के लिए बेटियों की हत्या केवल अतीत का हिस्सा ही बनकर रह जायेगा.

लेखक

सिद्धार्थ झा सिद्धार्थ झा @sidharath.jha

स्वतंत्र लेखक और लोकसभा टीवी में प्रोड्यूसर

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