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Updated: 28 अगस्त, 2015 04:07 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
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देश के दो सबसे बड़े धार्मिक ग्रंथ गीता की 11.42 करोड़ प्रति और रामचरितमानस की 9.22 करोड़ प्रति अब तक बेच चुकी गीता प्रेस को बचाने की गुहार लगाई जा चुकी है. सुबह से हजारों ट्वीट हो चुके हैं.

लोगों को इस बात पर यकीन करना मुशकिल है कि 90 साल पुरानी 'गीता प्रेस गोरखपुर' पर ताला लग गया है. हिंदू धर्म को मानने वालों के लिए गीता प्रेस भी किसी आस्‍था के केंद्र से कम नहीं है. आज भी धार्मिक लोगों की सुबह इन्हीं पुस्तकों के साथ होती है. 'कैसे सर्व कल्याण हो, कैसे सही अर्थों में जीवन जिया जाये' यही उद्देश्य लिए इस संस्था की नींव 1923 में रखी गई थी. सिर्फ सनातन धर्म का प्रचार. शुरुआत धार्मिक पुस्‍तकों को छापने से हुई. फिर यह संस्‍था समाज कल्‍याण के क्षेत्र में बढ़ती चली गई. इस बात की परवा‍ह किए बिना कि इसके लिए पैसा कहां से आएगा. गीताप्रेस की कुछ खास बातें जिन्हें लोगों का जानना चाहिए-

1. गीताप्रेस गोरखपुर दुनिया में सबसे ज़्यादा धार्मिक पुस्तकें प्रकाशित करने वाली संस्था है.

2. इस प्रकाशन की हर रोज़ करीब 50 हज़ार पुस्तकें बिकती हैं.

3. हर साल करीब 1 करोड़ 75 लाख पुस्तकें देश-विदेश में बिकती हैं.

4. प्रेस की स्थापना से अब तक इस प्रकाशन की 58 करोड़ 25 लाख प्रतियां बिक चुकी हैं.

5. गीता की 1142 लाख प्रतियां, रामचरितमानस की 922 लाख प्रतियां, पुराण और उपनिषदों की 227 लाख प्रतियां, स्त्री और बालसाहित्य की 1055 लाख  प्रतियां, भक्त चरित्र औऱ भजनमाला की 1244 लाख प्रतियां और अन्य प्रकाशनों की 1235 प्रतियां अब तक बेची जा चुकी हैं.

6. हिन्दी और संस्कृत के अलावा ये संस्था गुजराती, तेलगू, ओडिया, अंग्रेजी, बंगला, मराठी, तमिल, कन्नड़, असमिया, मलयालम, नेपाली उर्दू और पंजाबी में भी पुस्तकें प्रकाशित करती है.

7. यहां लागत से 40 से 90 प्रतिशत कम मूल्यों पर पुस्तकें बेची जाती हैं.

8. सरकार से इस संस्था को कागज पर कोई सब्सिडी नहीं मिलती. प्रेस बाज़ार भाव पर ही कागज खरीदती है.

9. गांधी जी की सलाह के अनुसार यहां की पुस्तकों में किसी तरह के विज्ञापन प्रकाशित नहीं किए जाते.

10. प्रेस अपनी कमाई को भी जनता की भलाई पर खर्च करती है. कई स्कूल और धर्मिक संस्थाओं में योगदान देती है.

गीता प्रेस कागज़ पर सिर्फ छपाई करने वाली संस्था नहीं है बल्कि हमारी धरोहर, हमारी संस्कृति को सहेजकर उसे जन-जन तक प्रसारित करती है. इस पुस्तकों पर लिखे श्लोक अब सिर्फ पुस्तकों पर ही छपे नहीं रह गए बल्कि हमारे मानस पटल पर भी अंकित हो चुके हैं. गीताप्रेस की पुस्तकें हर घर, हर वर्ग तक पहुंचे, इसके लिए इन पुस्तकों की कीमत लागत से आधी से भी कम रखी गईं. जिस हिसाब से हर रोज महंगाई बढ़ रही है, वहां इनकी पुस्तकों के दाम कभी नहीं बढ़े क्योंकि संस्था का उद्देश्य पैसा कमना नहीं हैं. पर दुख की बात है कि शायद हमारी आने वाली पीढ़ियां इस लाभ से वंचित रह जाएंगी.

सनातन धर्म का प्रचार करने वाली इस संस्था की परेशानियां भी सनातन हैं. गीतप्रेस में 180 स्थाई कर्मचारी हैं और करीब 300 लोग कॉन्ट्रेक्ट पर काम करते हैं. प्रेस पर ताला लगने की वजह है कर्मचारियों और ट्रस्ट के बीच का झगड़ा. प्रेस के कर्मचारी सम्‍मानजनक वेतन, चिकित्सा लाभ की मांग कर रहे हैं, जिसपर अभी तक कोई नतीजा नहीं निकला है. गीताप्रेस के कर्मचारी आज मुफलिसी का जीवन जी रहे हैं, गीताप्रेस से प्रकाशित पुस्तकें देश विदेश में बिकती हैं, लेकिन इस प्रेस में काम करने वाले लोग अपने बच्चों के हाथों में पुस्तकें नहीं थमा पा रहे, दो वक्त की रोटी जुटा पाना भी उनके लिए मुश्किल हो रहा है. क्योंकि संस्था के पास इतना पैसा नहीं है कि वो कर्मचारियों को उनके मुताबिक वेतन दे सकें.

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लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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