क्यों भगवती जागरण से दूर हो गया है समाज?
नवरात्र के दौरान एक समय खूब जोर रहता था भगवती जागरण या जगराते के आयोजनों का. लेकिन अब इनमें खासी कमी आ गई है. इसकी क्या वजह है... क्या अब हमें जागरण रास नहीं आ रहे?
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अब आगामी भगवती जागरण की सूचना देने वाले दीवारों से लेकर तिपहिया स्कूटरों पर लगे तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे... भगवती जागरणों के पोस्टर भी नहीं दिखते. ये जागरण विशाल ही होते थे. छोटे के लिए कोई जगह नहीं थी. कुल मिलाकर हर पोस्टर का संदेश रहता था कि 'मेरा जागरण, तेरे जागरण से बड़ा'. पोस्टर में भगवती मां का एक चित्र. उसके बाद जागरण स्थल, समय और जागरण पार्टी की जानकारी. सबसे नीचे जागरण में सहयोग देने वालों के नामों की लंबी कतार. ये तो सब जगह चिपके हैं. पूरा शहर जागरणमय. अब बीते पांच-छह वर्षों से किसी भी इलाके में चैत और शारदीय नवरात्रों में भी भगवती जागरण कम होने लगे हैं.
भगवती के गुणगान के लिए रतजगा ने स्थान ले लिया है या कहें कि ले रहे हैं. या फिर मां की चौकी या साईंसंध्या ने. साईं संध्या का असर चौतरफा है. इन दोनों का श्रीगणेश शाम 6.30 बजे के आसपास शुरू होता है और 9.30 बजे तक भोग लगने का माहौल बनने लगता है. उसके बाद डिनर. हालांकि वैष्णो देवी के दर्शनों के लिए जाने वालों की तादाद बढ़ रही है, पर भगवती जागरण को लेकर भगवती के भक्तों के दूर होने से साफ है कि इसमें आ गईं गड़बड़ियों और सड़ांध के चलते ही श्रद्धालुओं ने दूसरी तरफ रुख कर लिया है.
भगवती जागरण नेपथ्य में कैसे धकेल दिया गया? 60 के दशक से राजधानी में पंजाबी समाज ने देश को एक प्रकार से तोहफा दिया जागरण का. तीस-पैंतीस वर्षों तक जागरण रूपी इस धार्मिक अनुष्ठान को कहीं से कोई चुनौती नहीं मिली. इसका एकछत्र राज रहा.
बॉलीवुड में पंजाबियत के वर्चस्व के चलते भी एक दौर में फिल्मों में भगवती को फोकस पर रखकर गीत लिखे जाने लगे. 'सुहाग' फिल्म में, सबसे बड़ा तेरा नाम शेरांवाली..., 'अर्पण' फिल्म में इससे मिलता-जुलता गाना, तूने मुझे बुलाया शेरावालिए जैसे गीत जागरणों में छाने लगे. इस क्रम में अवतार फिल्म का गीत चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है जागरण में खूब गाया जाता रहा. पर सब फिल्मी गीतों का सहारा नहीं लेते. नरेंद्र चंचल और सोनू निगम कभी जागरणों में फिल्मी गीत का सहारा नहीं लेते माहौल बनाने के लिए. बहरहाल, इन गीतों के चलते जागरणों पर बॉलीवुड का रंग चढ़ता गया. इसके अलावा जागरणों में अपने कार्यक्रम पेश करने वाले ज्यादातर कलाकारों को संगीत की दूर-दूर तक कोई जानकारी भी नहीं होती है.
आर्थिक उदारीकरण के बाद देश बदला. शहर बड़े होते गए, फैलते गए. नौकरियों का चरित्र भी बदल गया. सुबह 10 से पांच बजे की नौकरियां सिकुड़ने लगीं. जागरण के दौरान किसी भक्त को माता के आने से लेकर जागरण टोली का अरदास के नाम पर लूट और इस तरह के बहुत से कारणों के चलते लोगों के पास रतजगा करने का वक्त घटता गया. नए भारत के यंगिस्तान को तो इसमें कभी भी खास दिलचस्पी नजर नहीं आ रही थी. राजधानी, हरियाणा, पंजाब वगैरह में अपनी भगवती जागरण पार्टी के साथ बीते दशकों से जागरण और अब माता की चौकी के कार्यक्रम कर रहे महंत इंदरजीत मलिक ने माना कि नौजवान पूरी रात जागरण में नहीं बैठते. अब तो जागरण में रात 11 बजे के बाद परिवार के सदस्य ही रह जाते हैं.
हालांकि एक राय यह भी आ रही है कि कोई भी इंसान या समाज बदलाव चाहता है. वह अनिश्चितकाल काल के लिए किसी चीज से जुड़ा रहना पसंद नहीं करता. समाज बदलने लगा तो जागरण को लेकर स्पेस भी घटने लगा. पूरी रात भगवती के भजन (पढ़े भेंटें) प्राय: कर्कश स्वर में सुनने वाले कम होते गए. हां, जागरण की संख्या तो क्रमश: घटती जा रही है, पर जागरण के गुटका संस्करण यानी मां की चौकी खूब फल-फूल रही है. जहां पर दस-ग्यारह बजे तक सब कुछ समाप्त हो जाता है.
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