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Updated: 24 अगस्त, 2022 07:02 PM
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टॉम हैंक्स की फ़ॉरेस्ट गंप जैसी तो नहीं, लेकिन बॉलीवुड जिस तरह का सिनेमा बनाता रहा है- लाल सिंह चड्ढा भी एक अच्छी फिल्म है. भारतीय बॉक्स ऑफिस पर फिल्म की कमाई बहुत निराशाजनक रही. मगर रक्षाबंधन के दिन ओवरसीज मार्केट में भी रिलीज की गई फिल्म का कलेक्शन लाजवाब है. इससे समझा जा सकता है कि बाहर के दर्शकों को यह पसंद आई. और बहुत पसंद आई है. ओवरसीज मार्केट में आमिर खान और करीना कपूर खान स्टारर लाल सिंह चड्ढा अब तक 60 करोड़ रुपये से ज्यादा कमा चुकी है.

इस साल ओवरसीज कलेक्शन के मामले में आमिर की फिल्म ने द कश्मीर फाइल्स (करीब 45 करोड़ से ज्यादा) को पछाड़ते हुए दूसरी सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बन चुकी है. हो सकता है कि लाल सिंह चड्ढा हफ्ते के अंत तक ओवरसीज में आलिया भट्ट की गंगूबाई काठियावाड़ी (करीब 65-70 करोड़) से ज्यादा कमाई कर सबसे बड़ी फिल्म भी बन जाए. ये दूसरी बात है कि देसी बॉक्स ऑफिस पर पहले हफ्ते में 55.53 करोड़ कमाकर फिल्म डूब चुकी है.

लाल सिंह चड्ढा का देसी और विदेशी कमाई का विश्लेषण बॉलीवुड फिल्मों के पुराने बॉक्स ऑफिस ट्रेंड के हिसाब से देखें तो ओवरसीज (चीन नहीं) की कमाई की तुलना में हिंदी फ़िल्में चार से पांच गुना ज्यादा कलेक्शन घरेलू मार्केट से निकालती रही हैं. इस आधार पर पहले हफ्ते में लाल सिंह चड्ढा की कमाई कम से कम 200 करोड़ से पार होनी चाहिए थी. आमिर की ही ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान के कलेक्शन आंकड़े देख लीजिए.

LSC aamir khanलाल सिंह चड्ढा में आमिर खान.

अच्छी फिल्म होने के बावजूद लाल सिंह चड्ढा के खिलाफ सबसे बड़ी चीज क्या रही?

यह फिल्म सुपरफ्लॉप थी, बावजूद इसने पहले दिन 52.25 करोड़ की ओपनिंग हासिल की और पहले हफ्ते में 140 करोड़ से ज्यादा कमाए थे. इसी फिल्म का टोटल ओवरसीज ग्रॉस 17.61 करोड़ रुपये था. देसी और विदेशी कलेक्शन में कितने गुना का फर्क है? लाल सिंह चड्ढा के देसी और विदेशी कलेक्शन के विश्लेषण में ट्रेंड साफ़ दिखता है कि फिल्म का कंटेट ठीक है. विदेशों में हिंदी दर्शकों को बहुत बेहतर लगी. मगर भारत में पूरी तरह खारिज हुई. ना सिर्फ हिंदी पट्टी बल्कि दक्षिण में भी. तमिल और केरल की टेरीटरी में फिल्म महज 76 लाख की कमाई कर पाई. लाल सिंह को पैन इंडिया रिलीज किया गया था.

अब सवाल है कि जब लाल सिंह चड्ढा अच्छी फिल्म थी और ओवरसीज में इसने दर्शक भी जुटाए तो क्यों अपने ही घर में फ्लॉप हो गई. इसकी वजह सिर्फ और सिर्फ आमिर खान हैं. असल में पिछले 20 साल के दौरान कई मौकों पर आमिर खान की एकपक्षीय राजनीति दिखी है. उदाहरण के लिए गुजरात दंगों के बाद NDTV के लिए शेखर गुप्ता के साथ इंटरव्यू में आमिर खान ने नरेंद्र मोदी सरकार पर तीखा हमला बोला था. गुजरात दंगों के बाद जब अमेरिका ने मोदी को वीजा नहीं दिया तब भी एक्टर ने उनकी खिल्ली उड़ाई.

करीब 15 साल पहले भी आमिर नर्मदा आंदोलन में मेधा पाटकर का समर्थन करने पहुंचे थे. बांध की उंचाई बढ़ाने और दूसरे मुद्दों को लेकर होने वाले आंदोलन में उनके निशाने पर गुजरात की नरेंद्र मोदी सरकार ही थी. सत्यमेव जयते शो के कुछ एपिसोड में भी आमिर सामाजिक सरोकार के नाम पर एजेंडाग्रस्त नजर आए थे. हिंदुओं के कई त्योहारों उनके तौर तरीकों पर निशाना साधा था. कुरीतियों पर हमला किया जाना चाहिए, अच्छी बात है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह एकतरफा ही हो.

जब गोधरा हादसे में कारसेवकों को ट्रेन में जिंदा जलाया गया था तब ना सिर्फ आमिर बल्कि बॉलीवुड के तमाम सितारों, सिविल सोसायटी के तमाम कार्यकर्ताओं ने चुप्पी साधे रखी. भला इंसानियत की कौन सी मजबूरी है कि एक स्वतंत्र-शांत राष्ट्र में कई दर्जन लोगों को जिंदा फूक दिया जाता है और उसकी निंदा करने में परेशानी हो रही है? सिर्फ गोधरा ही नहीं बल्कि ऐसे तमाम मुद्दे जिसमें देश की प्रभुसत्ता को चुनौती दी गई, मगर आमिर समेत तमाम बॉलीवुड एक्टर्स ने सिलेक्टिव अप्रोच ही दिखाया.

साफ़ है कि आमिर या बॉलीवुड के तमाम सितारे एक ख़ास विचारधारा का विरोध कर रहे थे. कलाकारों का राजनीतिक होना एक स्वस्थ समाज और लोकतंत्र के लिए जरूरी है. मगर उनका विरोध निष्पक्ष होना चाहिए. किसी के लिए प्रतिबद्ध नहीं. तब वे एक ख़ास विचारधारा का समर्थन भी कर रहे थे. दूर क्यों जाना. अभी ताजा मामला सलमान रुश्दी का भी लिया जा सकता है. पैगम्बर पर विवादित टिप्पणी के बहाने नुपुर शर्मा की माफी को बेहद कम बताने वाले फरहान अख्तर जैसे सितारों ने कोई प्रतिक्रिया दी है क्या? बात-बात पर दुनिया के तमाम मुद्दे जिसमें मिस्टर परफेक्शनिस्ट किसी को लेकर ज्ञान बांटते फिरते हैं उन्होंने रुश्दी पर हमले को लेकर क्या कहा है? क्या माफी की कोई अहमियत नहीं जब तक कि गला ना काट दिया जाए?

आमिर तुर्की गए कोई बात नहीं. लोगों ने बचाव में कहा भी कि एर्दोगान की पत्नी सामजिक सरोकारों से जुड़ी रहती हैं. आमिर भी पानी को लेकर समाजसेवा करते हैं. मुलाक़ात इसी सिलसिले में थी. लेकिन अब विदेशी चंदों, न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे प्रतिष्ठित जनपक्षधर अखबारों, तमाम मानवीय संगठनों का खेल छिपी बात नहीं है. तुर्की भारत विरोधी बड़ा अड्डा है. आमिर खान को यह बात नहीं पता क्या? कश्मीर पर तुर्की के रुख से यह बार-बार साबित होता रहा है. तुर्की में भारत विरोध की जड़े हालिया गेहूं एपिसोड के बाद ताजा ताजा यह है कि रूस में आईएस का एक आतंकी पकड़ा गया है.

पूछताछ में उसने बताया कि भारत में बड़े हमले की साजिश रची जा रही थी. उसे तुर्की में तगड़ा प्रशिक्षण मिला था. उसके निशाने पर भारत का एक बड़ा नेता था. और यह पैगम्बर पर कुछ टिप्पणियों को लेकर बदले की योजना ही थी. क्या अब भी कुछ बचाने को शेष रह जाता है? निश्चित ही आमिर आम नागरिकों की तरह देशभक्त हैं. संवेदनशील हैं. वह सार्वजनिक जीवन में हैं. उन्हें राजनीति में दिलचस्पी है तो खुलकर राजनीति करनी चाहिए. इसमें कोई बुराई नहीं. देश का संविधान उन्हें इसकी इजाजत देता है. और अगर उन्हें किसी मुद्दे पर प्रोटेस्ट करने का हक़ है तो किन्हीं मुद्दों पर उनकी फिल्म को पब्लिक प्रोटेस्ट का ही सामना करना पड़ा है. इसे लेकर बुरा नहीं मानना चाहिए.

बॉलीवुड में राजनीतिक एजेंडा चलाना कोई नई बात नहीं है. एक हजार उदाहरण हैं जिन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या कला के नाम पर छूट नहीं दी जा सकती. ऐसे पब्लिक ओपिनियन बनाने की भी छूट नहीं दी जा सकती जो व्यापक रूप से समाज और देश को नुकसान पहुंचाएं. आमिर जैसे सितारे अपने स्टारडम का इस्तेमाल पब्लिक ओपिनियन बनाने में करते रहे हैं. उनके बयानों को उठाकर देख लीजिए. लेकिन उनके ऐसे कितने बयान हैं जिनमें बॉलीवुड सितारों ने एक व्यापक समाज को गुमराह करते नजर आते हैं.

lsc box officeआमिर खान.

बस बॉलीवुड का यह खेल पहले एकतरफा था. अपनी फिल्म, अपनी स्टारकास्ट, अपने निर्माता, अपनी सरकार, अपने समीक्षक और अपने अखबार. दर्शक की स्थिति मरता क्या करता वाली थी. वह समझ रहा था मगर लखनऊ के दर्शक को पुणे के दर्शक का मनोभाव नहीं समझ आ रहा था. तब बॉलीवुड बिना नकेल का घोड़ा था. हालांकि सोशल मीडिया ने खेल को दोतरफा और दिलचस्प कर दिया है. अब तो पानीपत के साथ तिरुअनंतपुरम का दर्शक भी सोशल मीडिया की वजह से संवाद कर पा रहा है.

जाति धर्म के नाम पर जो सुविधाजनक भसड बॉलीवुड में दिखती है उसकी तमाम स्थापनाएं ईमानदार नहीं रही हैं. बॉलीवुड में जब स्वतंत्र रूप से आलोचना का साहस नहीं है तो भला वह किस आधार पर एकपक्षीय आलोचना के लिए आगे बढ़ सकता है? जबकि तमिलनाडु को ही देख लीजिए. शायद वहां के फिल्मकार सबसे ज्यादा राजनीतिक हैं. वहां के स्टार्स की प्रतिक्रियाएं भी आती हैं. वहां स्वतंत्र आलोचना का साहस दिखता है. रजनीकांत से लेकर सुरिया और थलपति विजय तक टिप्पणियां करते हैं. उनकी टिप्पणियों में देश और समाज को लेकर जिम्मेदारी साफ़ दिखती है. बॉलीवुड में इसी चीज की निहायत कमी है.

अर्जुन कपूर भले धमका रहे हैं या 'लाइगर' के बहाने विजय देवरकोंडा अभी से खिल्ली उड़ा रहे हैं, लेकिन सिर्फ हिंदी क्या समूचे देश का दर्शक अब नहीं चाहता कि देश वैसे ही हांका जाए जैसे तीस साल पहले हांका जाता था. देश अब अपनी चेतना से चलना चाहता है और उसकी चेतना को प्रभावित करने की बेईमान कोशिश करने वालों को उसका प्रोटेस्ट झेलना ही पड़ेगा. भले ही वो हिंदुत्ववादी ही क्यों ना हों. बिल्किस बानो के आरोपियों की रिहाई पर समाज की प्रतिक्रिया देख लीजिए.

बॉलीवुड विवादित चीजें दिखाकर पैसे कमाने का आदि बन चुका था. उसे लगा था कि दर्शक नहीं देखेंगे तो जाएंगे कहां. मनोरंजक बना देंगे तो देख ही लेंगे. भला सबसे असंगठित दर्शक कैसे एक हो सकता है? दर्शक एक हो चुका है और उसे किसी राजनीतिक दल ने एक नहीं किया है. वह स्वेच्छा से खड़ा होता दिख रहा है. और उसने तय कर लिया है कि तुम प्रोटेस्ट कर सकते हो तो हम भी कर सकते हैं.

लाल सिंह चड्ढा को लेकर दर्शकों ने आमिर के प्रोटेस्ट का जवाब दिया है. बॉलीवुड को अभी भी लग रहा है कि दर्शकों के पास पैसा नहीं है इस वजह से फ़िल्में नहीं देख रहे तो तय मान लीजिए उसको डूबने से कोई रोक भी नहीं सकता. भले ही वह वर्ल्ड क्लास मास्टरपीस ही बना दे. कोई जबरदस्ती है क्या? सुविधाजनक स्थापना का वक्त निकल चुका है. राइट, लेफ्ट, सेंटर - हर किसी को इस बात का ख्याल रखना चाहिए.

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