New

होम -> सिनेमा

 |  2-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 05 जनवरी, 2016 01:25 PM
नरेंद्र सैनी
नरेंद्र सैनी
  @narender.saini
  • Total Shares

अक्सर बॉलीवुड, हॉलीवुड और अन्य क्षेत्रीय सिनेमा की धमक में भोजपुरी जैसे क्षेत्रीय सिनेमा को नजरअंदाज कर दिया जाता है. ऐसा सिनेमा जिसे हमेशा बी-ग्रेड फिल्मों का कारखाना कहकर खारिज कर दिया जाता है, या ऐसे सितारों की कमी रहना जो बॉलीवुड में लीड में आ सकें. हालांकि रवि किशन इसके अपवाद हो सकते हैं. लेकिन इस बात को नहीं भुलाया जा सकता कि ईस्टर्न यूपी, बिहार और यहां तक कि पंजाब के लुधियाना में एक बड़ा तबका इन फिल्मों को देखता है, और अब दिल्ली में भोजपुरी फिल्मों को देखने वाले दर्शकों की संख्या में इजाफा हो रहा है.

निरहुआ का रहा 2015 में बोलबाला

ऐसे भी लोग हैं जिन्हें अपनी चहेती भाषा में अच्छी फिल्मों का इंतजार रहता है. अगर हम 2015 की हिट भोजपुरी फिल्मों की ओर नजर डालें तो फिल्म वितरक मुख्यतः दो फिल्मों का नाम लेते हैं और दोनों ही निरहुआ की हैः राजा बाबू और पटना से पाकिस्तान. फिल्म डिस्ट्रिब्यूटर जोगिंदर महाजन बताते हैं, “राजा बाबू 2015 की बड़ी हिट फिल्म रही है, और इसने लगभग 4 करोड़ रु. का कारोबार किया है.

वे बताते हैं कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के अलावा लुधियाना में भी भोजपुरी फिल्मों की अच्छी खासी डिमांड है, और ऑडियंस भी जबकि दिल्ली में पुरानी दिल्ली के सिनेमाघरों जैसे मोती और हंस में ये फिल्में रिलीज होती हैं. हालाकि निरहुआ की अगली फिल्म आवारा आशिकमार्च-अप्रैल में रिलीज होगी, जिसे लेकर वितरकों में खासा उत्साह है.

इसलिए नहीं लगतीं दिल्ली में भोजपुरी फिल्में

दिल्ली में उच्च मध्यवर्गीय लोगों में भी भोजपुरी फिल्मों की डिमांड बढ़ रही है. इसका इशारा इस बात से भी मिल जाता है कि अक्सर मल्टीप्लेक्सेस में फोन करके भोजपुरी फिल्मों की रिलीज के बारे में पूछा जाता है लेकिन निराशा ही हाथ लगाती है. एक फिल्म डिस्ट्रिब्यूटर बताते हैं कि अक्सर भोजपुरी फिल्मों को लेकर इन्कवायरी आती है.

लेकिन मल्टीप्लेक्सेस या बड़े सिनेमाघर भोजपुरी फिल्मों को रिलीज करने से बचते हैं. इसकी बहुत ही हैरान कर देने वाली वजह भी बताई जाती है, “अक्सर ये माना जाता है कि भोजपुरी फिल्म देखने आने वाले दर्शक पान खाकर पीक हॉल में ही मार देते हैं, और हॉल गंदा कर देते हैं. जिस वजह से अच्छे और बड़े सिनेमाघर भोजपुरी फिल्मों को लगाने से कन्नी काट जाते हैं.

बेशक यह तर्क बहुत अच्छा नहीं है क्योंकि यही ऑडियंस हिंदी फिल्में देखने भी तो सिनेमाघरों में जाता है. ऐसे में सिनेमाघर मालिकों को यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि भोजपुरी फिल्मों का एक बड़ा दर्शक वर्ग एनसीआर में तैयार हो चुका है सो उन्हें भोजपुरी की अच्छी फिल्मों अनदेखी करने के बारे में एक बार फिर सोच लेना चाहिए.

लेखक

नरेंद्र सैनी नरेंद्र सैनी @narender.saini

लेखक इंडिया टुडे ग्रुप में सहायक संपादक हैं.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय