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Updated: 30 अक्टूबर, 2022 05:31 PM
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हाल के कुछ महीनों में दक्षिण के सिनेमा ने बॉलीवुड को बहुत तीखा नुकसान पहुंचाया है कारोबारी मोर्चे पर. दक्षिण से आने वाली पैन इंडिया फिल्मों को छोड़ भी दिया जाए तो पिछले कुछ महीनों में छोटी-छोटी फ़िल्में जिन्हें पैन इंडिया नहीं बनाया गया था, आनन-फानन में हिंदी बेल्ट में डबिंग के जरिए पहुंची, बावजूद फिल्मों के कारोबारी प्रदर्शन ट्रेड पंडितों को हैरानी से भरने के लिए पर्याप्त थे. ताजा उदाहरण के तौर पर कन्नड़ की कांतारा और जन्माष्टमी पर आई तेलुगु की कार्तिकेय 2 को ऐसी ही फ़िल्में थीं. एक बिल्कुल अंतिम समय में हिंदी बेल्ट में रिलीज की गई और एक मूल रिलीज के कुछ हफ़्तों बाद हिंदी में आई. बहस लंबे वक्त से जारी है कि आखिर वह कौन सी बात है जो दक्षिण के सामने बॉलीवुड विवश नजर आ रहा और लगातार कारोबारी नुकसान झेल रहा है? कंगना रनौत ने इसी साल नाकाम हुई अपनी फिल्म (धाकड़) का जिक्र करते हुए बॉलीवुड के मूल संकट की तरफ ध्यान खींचने की कोशिश की है.

कंगना रनौत ने कहा कि राजनीति में मोदी युग के आगमन के साथ साथ भारत में एक नई चेतना जागृत हुई है और इसका असर तमाम चीजों पर पड़ा है. हमारे सहयोगी चैनल के प्रोग्राम पंचायत आजतक हिमाचल प्रदेश में बॉलीवुड के लगातार पिटने और दक्षिण के हिट होने को लेकर राहुल कंवल के सवाल पर उन्होंने कहा- "वैसे एक फ़िल्म क्यों चलती हैं और क्यों नहीं चलती हैं, उसका कई स्तरों पर विश्लेषण होता रहता है. लेकिन ऊपर से हम बात करें तो जो फ़िल्में (दक्षिण की) चल रही हैं, वह बहुत ज्यादा भारतीयता पर बात करती हैं. कांतारा को देखिए- इसमें भारत का एक ऐसा पहलू या पक्ष दिखाया जाता है जो बहुत ज्यादा माइक्रो लेवल पर संस्कृति और आध्यात्म से संबंधित है. पोन्नियिन सेलवन 1 भी वैसे ही है जो 'चोलों' के बारे में है."

kangana in Panchayat Aaj Tak Himachal Pradeshकंगना रनौत.

बॉलीवुड भारतीयता से दूर, दक्षिण की फ़िल्में दर्शकों को जड़ों से जोड़ रही हैं

उन्होंने कहा- "हमारी (बॉलीवुड) फ़िल्में संस्कृति से बहुत दूर जा चुकी हैं. बहुत ज्यादा पश्चिमीकरण हो चुका है. पश्चिम से प्रभावित होकर वेस्टर्न फ़िल्में बनाने का जो प्रचलन है भारतीयता से दूर जाकर- मुझे लगता है कि कहीं ना कहीं लोग (भारतीय दर्शक) खुद को उनसे रिलेट नहीं कर पा रहे हैं. ऐसा मेरा मानना है. मेरी भी इस साल एक फिल्म (धाकड़) नहीं चली है. इससे मुझे एक सीख मिली कि बहुत ज्यादा पश्चिम में रचे-बसे कैरेक्टर के साथ लोग (आम भारतीय दर्शक) रिलेट नहीं कर पा रहे हैं. लेकिन जो हम भारतीय हैं, पहली बार- जैसे कि मैंने कहा, एक नई चेतना का उभार हुआ है. अब भारत में भारतीय गर्व महसूस कर रहा है. अपनी संस्कृति पर, पहनावे पर, अपने रंग पर, अपनी स्किन टोन पर."

"आज की तारीख में हर चीज में अचानक एक गर्व की अनुभूति आई है. और वो (आम दर्शक) उसी चीज को कनेक्ट करना चाहते हैं अपने साथ. और जो भी (दक्षिण का सिनेमा उद्योग) उस चीज को कनेक्ट करा रहा है, कामयाबी हासिल कर रहा है. आरआरआर हो गई, मेरी फिल्म 'थलाइवी' हो गई, सफल थी- जो भारतीयता से बहुत जुड़ी हुई है. साउथ में मैंने सामान्य रूप में देखा है कि लोग अपनी संस्कृति से, धर्म से, सभ्यता से बहुत जुड़े हुए हैं. और ये चीज समूचे देश में लोगों को प्रेरक लग रही हैं.

भारतीयता की बात करने वाली फ़िल्में ही कामयाब, बाकी तो सीधे हॉलीवुड देख रहे हैं अब लोग

कंगना ने बात सही कही है. अगर गौर करें तो बॉलीवुड हो या दक्षिण- फ़िल्में वही कामयाब हो रही हैं जिनके विषय भारतीय दर्शकों को कनेक्ट करने में सक्षम हैं. पश्चिमी अंदाज में बनाई गई हाई फाई कहानियां फ्लॉप हो रही हैं. इसकी एक वजह तो ओटीटी भी है. कोविड एक बड़ी वजह बना है ओटीटी तक आम भारतीय दर्शकों को ले जाने में. जब ओटीटी नहीं था दर्शक पश्चिम से प्रेरित कॉन्टेंट और कैरेक्टर को पचा ले जाते थे. वह उनकी मजबूरी थी. मगर ओटीटी की वजह से अब ज्यादातर दर्शक पश्चिम की फ़िल्में सीधे देख पा रहे हैं. क्वालिटी, परफॉर्मेंस में विदेशी फ़िल्में निश्चित ही बॉलीवुड के कॉन्टेंट पर हर लिहाज से भारी हैं. अब जब दर्शकों को पश्चिम से ही बेहतरीन कॉन्टेंट ओटीटी पर मिल जा रहा तो फिर कोई वहां से प्रेरित बॉलीवुड की खिचड़ी क्यों देखना पसंद करेगा.

ऐसा नहीं है कि दर्शकों को देसी मिजाज की कहानियां नहीं चाहिए. देसी कहानियों की जरूरत हमेशा बनी रहती है. मगर बॉलीवुड उनकी जरूरत पूरी करते नहीं दिख रहा. वह जरूरत दक्षिण पूरी कर रहा है. इसमें कोई बहस की बात ही नहीं कि देसी कॉन्टेंट के फ्रंट पर दक्षिण के सिनेमा उद्योग- वह चाहे तमिल हो, तेलुगु हो, मलयाली हो या फिर कन्नड़, पूरा करते नजर आ रहे हैं. स्थानीय संस्कृति दर्शकों को आकर्षित कर रही है. उत्तर के दर्शक तमाम वजहों से पहले दक्षिण के साथ सीधा जुड़ाव महसूस नहीं करते थे. लेकिन इंटरनेट, सोशल मीडिया और ओटीटी ने वह दीवार भी ढहा दी है. अब दर्शकों को लग रहा है कि विजय, धनुष, अल्लू अर्जुन, रामचरण, जूनियर एनटीआर यश, ऋषभ शेट्टी और प्रभास जैसे सितारे असल में उनके अपने सितारे हैं. पहले भाषा एक बड़ी दीवार थी मगर अब हिंदी में डब होने की वजह से दर्शकों को कॉन्टेंट देखने में ज्यादा सहूलियत हुई है.

दक्षिण में बन रही फिल्मों में स्थानीयता का बहुत ख्याल रखा जाता है. सांस्कृतिक मूल्यों को कहानी का हिस्सा बनाया जाता है. संस्कृति ही वह तार है जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक के भारतीय दर्शकों को एक सूत्र में जोड़ रही है. भले ही फिल्मों का विषय बहुत आधुनिक हो. मगर खानपान, पहनावे, संस्कार आदि के मामले में स्थानीयता की गुंजाइश रखी जाती है. हालांकि बॉलीवुड की महानगरीय कहानियों को छोड़ भी दें तो कस्बाई और गंवई कहानियों में भी लोकेशन बोली भाषा को छोड़कर संस्कृति से जुड़ी दूसरी स्थानीयताओं का अभाव नजर आता है. स्वाभाविक है कि दर्शक उनसे कनेक्ट नहीं कर पा रहे हैं. जब लोग केजीएफ 2, कांतारा, पुष्पा द राइज जैसी फ़िल्में पसंद कर रहे हैं- बॉलीवुड पश्चिम की तर्ज पर पठान, डंकी और टाइगर 3 जैसी फ़िल्में बना रहा है.

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