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Updated: 09 नवम्बर, 2022 04:33 PM
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शाहिद कपूर स्टारर 'विवाह' और सलमान खान स्टारर 'प्रेम रतन धन पायो'  के बाद अबतक राजश्री प्रोडक्शन की कोई ऐसी फिल्म नहीं आई है जो टिकट खिड़की पर बड़ी कामयाबी पाते दिखी हो और दर्शकों को याद हो. बावजूद कि बैनर ने समय समय पर फ़िल्में प्रोड्यूस किया है. ख़ास बात यह भी है जिन दोनों फिल्मों के बारे में बताया गया है उसे राजश्री प्रोडक्शन के सूरज बडजात्या ने ही निर्देशित किया है. अब प्रेम रतन धन पायो के सात साल बाद सूरज बड़जात्या एक बार फिर चार दोस्तों की कहानी उंचाई लेकर आ रहे हैं. चार दोस्तों की भूमिका निभाई है- अमिताभ बच्चन, अनुपम खेर, बोमन ईरानी और डैनी ने. फिल्म में सारिका, नीना गुप्ता और परिणिति चोपड़ा भी अहम भूमिका में नजर आने वाली हैं.

राजश्री प्रोडक्शन की ऊंचाई एक ऐसे दौर में आ रही है जब बॉलीवुड की फ़िल्में धड़ाधड़ फ्लॉप हो रही हैं. कुछ कैम्पेन की वजह से फ्लॉप हो रही हैं. कुछ के खिलाफ चले अभियान उनकी नाकामी की वजह बनीं. इस दौरान दक्षिण की फिल्मों ने हिंदी बेल्ट में तमाम बाधाओं के बावजूद ना सिर्फ व्यापक मौजूदगी दिखाई बल्कि उनकी स्वीकारता को देखकर अब यह लगने लगा है कि हिंदी बेल्ट भी असल में अब दक्षिण फिल्मों की टेरीटरी बन चुका है. दक्षिण की कामयाबी और बॉलीवुड नाकामी में जो कॉमन बात सामने आ रही, वह यही है कि बॉलीवुड फ़िल्में भारत और भारतीयता से बहुत दूर हैं. कहानियां दिखती भारतीय हैं. मगर उन्हें पश्चिम की तर्ज पर प्रस्तुत किया जाता है.

uunchaiऊंचाई

राजश्री बैनर की पहचान भारतीय परंपरा में रची-बसी कहानियों की रही है. दर्जनों फिल्मों में राजश्री फिल्मों का दर्शन नजर आता है. राजश्री की ज्यादातर फैमिली कहानियां बड़े पैमाने पर हिट भी रही हैं. यहां तक कि जब सिनेमा में गांवों की कहानियां ख़त्म हो रही थीं या उनका चित्रण बदल रहा था- नदिया के पार जैसी विशुद्ध ग्रामीण पृष्ठभूमि में प्यार और घरेलू-सामजिक रिश्तों को केंद्र में रखकर फिल्म बनाई गई. बावजूद कि फिल्म से जुड़ा एक भी कलाकार सुपर सितारा नहीं था, लेकिन साल 1982 में आई में भारतीय सिनेमा में कामयाबी का जो इतिहास रचा वह अद्भुत था.

इसके सभी गाने जबरदस्त हिट रहे. बैनर की कामयाबी के पीछे उसका अपना एथिक्स रहा है. हालांकि बॉलीवुड की कहानियों के पश्चिम केंद्रित होने की अंधी रेस के असर में बैनर भी भ्रम का शिकार नजर आया और उनकी पिछली तमाम फिल्मों उसका असर भी दिखता है. ऊंचाई में बैनर इससे कितना बचा है- देखने वाली बात होगी. यह चार दोस्तों की कहानी है. एक दोस्त पहाड़ का है. आख़िरी बार पहाड़ों में उसके जाने की इच्छा है. हालांकि उसकी मौत हो जाती है. मौत के बाद दोस्त उसकी अस्थियों का विसर्जन माउंट एवरेस्ट पर करने का फैसला करते हैं. तीन बूढों का माउंट एवरेस्ट जाना कोई आसान काम नहीं है. वह कैसे जाते हैं इसी को फिल्म में दिखाया गया है. कहानी-इमोशन भारतीय है. लेकिन उसकी प्रस्तुति आधुनिक और पश्चिमी रंग रूप में नजर आ रही है.

कम से कम ट्रेलर में तो यही है. जबकि राजश्री की विवाह में एक अमीर कारोबारी परिवार है. बावजूद वह रिश्तों की अहमियत, परंपरा और सामजिक सार्वजनिक व्यवहार को लेकर आदर्श है. ऊंचाई में सार्वजनिक व्यवहार की तमाम प्रस्तुतियां पश्चीमी रंग ढंग में दिखती हैं. उसे आधुनिक नहीं कहा जा सकता. एक यही चीज ऊंचाई के लिए सबसे बड़ा खतरा है. मजेदार है कि दक्षिण आज जिस दर्शन पर फ़िल्में बनाता दिखता है वह राजश्री के सिनेमा की पूंजी रही है. राजश्री की ऊंचाई बॉलीवुड फिल्मों के प्रति दर्शकों की धारणा को किस तरह साधेगा, कह नहीं सकते.

बावजूद कि बॉलीवुड के प्रति लोगों की धारणा का बुरा नतीजा रहा है कि कुछ फिल्मों को निर्दोष होने के बावजूद नुकसान उठाना पड़ा. और दर्शकों की इसी धारणा से पार पाना- असल में ऊंचाई की पहली और सबसे बड़ी चुनौती है. और यह खामखा नहीं है. हिंदी फिल्मों में पिता-बेटी के रिश्ते गैर परंपरागत दिखने लगे हैं. बेटी और बेटा के सामने ही पिता दूसरी महिलाओं से इश्क (जुग जुग जियो) लड़ाता है. मृत्युशोक में घर के ही संवेदनशील व्यक्ति शराब पी रहे हैं. अस्पताल में पिता बीमार पड़ा है- और बेटे बहू, उसके स्वास्थ्य की चिंता से इतर चोरी छिपे अपनी बेटी के विवाह की जुगत लगा रहे हैं. लड़का लड़की देखने की प्रक्रिया हो रही है. बॉलीवुड के संपन्न तबके में यह सब होता होगा नहीं पता, लेकिन किसी एक की कहानी और अनुभव समाज की कहानी और अनुभव भला कैसे हो सकती है.

उदाहरण के लिए अमिताभ बच्चन की ही गुडबॉय को ले लीजिए. मृत्यु शोक की कहानी है. प्रश्चिम से प्रभावित प्रस्तुति ने उसे डुबो दिया. गुडबाय की कहानी किन्हीं दो चार घरों की कहानी हो सकती है- उसे अपवाद के तौर पर एक कॉमन कहानी के तौर पर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता. प्रस्तुत भी किया जा रहा है तो स्थानीय सामाजिक मूल्यों का ध्यान रखना होगा. ऐसे कितने लोग होंगे जिनकी मां का निधन हो गया है, और शोक से परे व्यवहार करते दिखते हों. लोग दौड़ पड़ते हैं. राम प्रसाद की तेरहवीं, पगलैट, 36 फ़ार्म हाउस जैसी दर्जनों फिल्मों में परिवार के अंदर जिस संदर्भ दिखाए जा रहे हैं वह समाज की हकीकत से कितना नजदीक हैं? कॉमेडी और कला के नाम पर कुछ भी नहीं थोपा जा सकता.

पश्चिम में शोक सामाजिक स्टेटस से जुड़ा मसला है. उनके यहां यह बहुत ही नॉर्मल प्रक्रिया है. कम से कम उम्रदराज लोगों की मौत पर तो है ही. अब मृत्युशोक पर पश्चिम से प्रेरित होकर कहानी दिखा देना कैसे भारतीय दर्शक पचा पाएगा. स्वाभाविक रूप से वह उसे अपनी संस्कृति पर हमले के रूप में देखेगा. दक्षिण में यही चीज अलग है. वे बहुत आधुनिक कहानियां भी बनाते हैं तो उसमें भी समाज और परिवार का चित्रण वैसे ही किया जाता है हकीकत में जो व्यापक रूप से हैं. कलात्मकता की भी एक सीमा होती है.

ऊंचाई से उम्मीद यही है कि राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म है. रिश्तों की अहमियत, सामाजिक मूल्य और संस्कृति धरोहर रही है. ऊंचाई की कहानी ही रिश्तों की अहमियत और उसके मौली पर आधारित हैं. हो सकता है कि दर्शकों को फिल्म पसंद आए.

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