जॉन अब्राहम इन 3 फिल्मों में अपनी जमी-जमाई छवि से अलग नजर आते हैं, मौका मिले तो देखिए जरूर!
आज John Abraham के जन्मदिन पर उनकी तीन फिल्मों की वाच लिस्ट बनाइए और वक्त मिलते ही इन्हें जरूर देख लीजिए. एक एक्टर के रूप में जॉन को देखकर हैरान हो जाएंगे.
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जॉन अब्राहम. दिमाग में यह नाम आते ही एक ऐसे नायक की तस्वीर बनती है जो कभी शर्टलेस है. हष्ट पुष्ट नायक जिसके सिक्सपैक ऐब ध्यान खींचते हैं. और एक ऐसा नायक भी दिखता है जो हीरोइनों के पीछे भाग रहा है. या फिर रजनीकांत स्टाइल में एक्शन दिखने वाला अभिनेता. लेकिन अभिनेता के रूप में जॉन की पूरी पहचान सिर्फ इतना नहीं है. अगर आपने जॉन की मसालेदार फिल्मों को देखकर ऐसी कोई छवि गढ़ी है तो आप गलत हैं. एक्टर ने अपने करियर में अब तक कई ऐसी फ़िल्में की हैं जो इनसे बिल्कुल अलग हैं. इनमें दिखने वाला जॉन अब्राहम लोगों को हैरान कर सकता है.
जॉन का आज जन्मदिन है. उन्होंने 18 साल पहले एक अभिनेता के रूप में "जिस्म" से एक्टिंग करियर की शुरुआत की थी. आइए जॉन अब्राहम की तीन ऐसी फिल्मों के बारे में जानते हैं जो एक्टर की जमी-जमाई छवि के बिल्कुल विपरीत हैं. क्राफ्ट, क्लास और परफोर्मेंस के लिहाज से ये फ़िल्में देखने लायक हैं. जॉन के प्रशंसकों के साथ ही साथ हिंदी सिनेमा के दर्शकों को भी कम से कम एक बार तो ये फ़िल्में जरूर देख लेन चाहिए.
#1. वाटर (2005)
यह दीपा मेहता की एलिमेंट्स ट्रियोलजी की तीसरी और आख़िरी फिल्म थी. दीपा ने एलिमेंट्स ट्रियोलजी में वाटर से पहले फायर और अर्थ बनाई थी. वाटर शूटिंग के दौरान ही एलिमेंट्स ट्रियोलजी की फिल्मों से जुड़े विवाद की वजह से चर्चाओं में आ गई थी. फिल्म की कहानी पर काफी विवाद हुआ और हिंदू धर्म को नीचा दिखाने के आरोप तक लगे. दरअसल, फिल्म की कहानी ब्रिटिश इंडिया के दौर की है. इसमें बाल विवाह, विधवाओं के हालात के जरिए धर्म के नाम पर तत्कालीन रूढ़ीवाद और पाखण्ड को दिखाया गया है.
वाटर में जॉन अब्राहम.
धर्म के नाम पर विधवाएं आश्रम में रहने को अभिशप्त हैं. समाज उन्हें सांसारिक मोहमाया से दूर रहने और संन्यासिन के रूप में जीवन बिताने को मजबूर तो करता है मगर उसी समाज के ठेकेदार रात होते ही उन्हें वेश्याओं की तरह भोगने को भी तैयार बैठे हैं. लीजा रे ने एक युवा विधवा का किरदार निभाया है. जॉन अब्राहम बड़े घर के पढ़े लिखे युवा की भूमिका में हैं और गांधी जी के आंदोलन से प्रभावित हैं. वे रूढ़ीवाद में विश्वास नहीं करते. जॉन अब्राहम, लीजा रे से प्यार करने लगते हैं. लीजा से शादी भी करना चाहते हैं. लीजा भी जॉन से प्रेम करने लगती है और कलकत्ता में वैधव्य से अलग एक बेहतर जिंदगी के सपने देखने लगती हैं. मगर लीजा और जॉन के पिता के बीच एक ऐसा सच है जिसे देखकर दर्शक हिल जाते हैं. हकीकत में यही सच समूचे पाखंड पर सबसे तीखा प्रहार करता है. जॉन अब्राहम का अभिनय लाजवाब है.
वाटर की कहानी डार्क है. लेकिन हिंदी की उन फिल्मों में है जिसे एक बार जरूर देखना चाहिए. फिल्म का क्लाइमैक्स तो झकझोर कर रख देता है. अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में वाटर की काफी तारीफ़ हुई है. फिल्म में जॉन और लीजा के अलावा कुलभूषण खरबंदा, सीमा विश्वास और वहीदा रहमान जैसे दिग्गज कलाकार हैं. वाटर का स्क्रीनप्ले और संवाद बहुत ही धारदार है. दीपा मेहता की फिल्मों में सबसे बेहतरीन कैमरा वर्क भी इसी में नजर आता है. बहुत लोगों को जानकारी नहीं होगी, लेकिन वाटर का स्क्रीनप्ले किसी और ने नहीं अनुराग कश्यप ने लिखा है.
#2. न्यूयॉर्क (2009)
9/11 की घटना के बाद एक दूसरे के प्रति लोगों का अविश्वास काफी बढ़ गया था. अमेरिका में एशियाई खासकर मुसलमानों को काफी परेशानियों से होकर गुजरना पड़ता था. यहां तक का कई कई लोगों को जेलों में जाना पड़ा और अंतहीन यातनाएं झेलनी पड़ी. कबीर खान के निर्देशन में बनी न्यूयॉर्क ऐसे ही एक युवक की कहानी को दिखाती है. जॉन ने सैम नाम के युवा का किरदार निभाया है. वह माया यानी कटरीना कैफ से प्यार करता है. दिल्ली से पढ़ाई के लिए न्यूयॉर्क आए उमर यानी नील नितिन मुकेश से दोस्ती होती है. इसके बाद उनकी जिंदगी में आतंकवाद को लेकर ऐसा तूफ़ान आता है जिससे उनकी लाइफ ही बदल जाती है.
फिल्म में टॉर्चर के कई सीन बहुत ही भयावह हैं. जॉन ने बेहतरीन तरीके से अपना किरदार निभाया है. अभिनय के लिहाज से इसे जॉन के करियर की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शुमार किया जाता है. न्यूयॉर्क में जॉन और नील नितिन के अलावा इरफान ने भी एफबीआई एजेंट के रूप में अहम किरदार निभाया है.
जॉन अब्राहम, कटरीना कैफ और नील नितिन मुकेश.
#3. मद्रास कैफे (2013)
यह पॉलिटिकल एक्शन थ्रिलर है जिसका निर्देशन शूजित सरकार ने किया था. फिल्म की कहानी बॉलीवुड की मुख्यधारा के विपरीत थी. शायद ही इसमें कोई निर्माता पैसे लगाता. मगर जॉन ने फिल्म में खुद भी पैसे लगाए. मद्रास कैफे की कहानी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के पीछे साजिश, राजनीतिक वजहों और तमाम गैर ज़िम्मेदारियों पर बात करती है. जॉन ने मेजर विक्रम सिंह की भूमिका निभाई है. उन्हें रॉ के कवर्ट ऑपरेशन के तहत श्रीलंका भेजा जाता है. फिल्म में किरदारों के नाम बदल दिए गए हैं. लेकिन राजीव की हत्या से जुड़े सभी पहलुओं पर गंभीर किस्म का रिसर्च वर्क देखना हो तो मद्रास कैफे लाजवाब फिल्म हैं.
जॉन अब्राहम ने मद्रास कैफे के निर्माण में पैसे भी लगाए थे.
श्रीलंका सरकार के साथ भारत के संबंध, लिट्टे, श्रीलंका में भारतीय सेना भेजने के परिणाम, श्रीलंका से जुड़े कूटनीतिक मामलों पर तमिलनाडु की राजनीति का दबाव, अफसरों-नेताओं का गैर जिम्मेदार रवैया जैसे तमाम पहलू देखने को मिलते हैं. विक्रम सिंह के रूप में जॉन अब्राहम का काम लाजवाब है. उनके एक किरदार में कई रंग देखना हो तो मद्रास कैफे से बेहतर शायद उनकी शायद ही कोई फिल्म दिखे.
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