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Updated: 17 अगस्त, 2021 09:21 PM
मुकेश कुमार गजेंद्र
मुकेश कुमार गजेंद्र
  @mukesh.k.gajendra
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अफगानिस्तान की राजधानी काबुल को कब्जे लेने के बाद तालिबान ने अपने शासन का ऐलान कर दिया है. राष्ट्रपति अशरफ गनी और उपराष्ट्रपति अमीरुल्लाह सालेह के देश छोड़ने के बाद तालिबान के को-फाउंड और कतर में दोहा स्थित दफ्तर के राजनीतिक प्रमुख मुल्ला बरादर को अफगान की कमान सौंप दी गई है. इस बीच सोशल मीडिया पर कई वीडियोज वायरल हो रहे हैं, जिनमें तालिबान काबुल की सड़कों पर घूमते नजर आ रहे हैं. उनसे बचने के लिए बदहवास हालत में लोग इधर-उधर भाग रहे हैं. किसी भी तरह देश छोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. महिलाओं के साथ ज्यादती की घटनाएं बढ़ गई हैं. अफगानिस्तान के हवाई अड्डों, स्टेशनों और सड़कों पर अफरा-तफरी की खबरें आ रही हैं. ऐसे में एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि तालिबान के आने के बाद अब देश में सिनेमा का क्या होगा, क्योंकि सिनेमा तो समाज से सीधे तौर पर प्रभावित होता है. बल्कि यूं कहे कि समाज और सिनेमा एक-दूसरे के पूरक हैं. एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं.

अपनी पाबंदियों के लिए कुख्यात तालिबान आधुनिकता की खिलाफत करता रहा है. इनके राज में महिलाओं की आजादी से लेकर संगीत और सिनेमा तक पर पाबंदी रहती है. यही वजह है कि तालिबान ने कंधार रेडियो स्टेशन पर कब्जा करते ही उसका नाम बदलकर 'वॉइस ऑफ शरिया' कर दिया है. इसके बाद ये कहा गया है कि यहां मौजूद सभी कर्मचारी अब कुरान की आयतें पढ़ा करेंगे. जरूरत पड़ने पर अनुमति के साथ समाचार प्रसारित करने और राजनीतिक विश्लेषण करने की बात कही गई है. इतना ही नहीं यहां से किसी भी तरह के संगीत के प्रसारण पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गई है. इन पाबंदियों को देखकर ऐसा लगता है कि एंटरटेनमेंट चैनल अब 'आस्था चैनल' बन गए हैं. इसी से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आने वाले वक्त में 'अफगान सिनेमा' का क्या हश्र होने वाला है. साल 2001 में एक लंबे अंतराल के बाद 'अफगान सिनेमा' ने फिल्म जगत में कदम रखा था. उससे पहले यहां राजनीतिक उथल-पुथल और खराब सामाजिक स्थिति की वजह से यहां का सिनेमा समृद्ध नहीं हो पाया. इसलिए यहां बॉलीवुड और हॉलीवुड की चंद फिल्मों का ही प्रोजेक्शन किया जाता था.

afghan_081721123140.jpgसाल 2003 में बनी अफगान मूवी 'ओसामा' ने गोल्डन ग्लोब अवार्ड जीता था.

'पॉलीवुड' के नाम से जानते हैं अफगान सिनेमा

वैसे 20वीं सदी में ही अफगानिस्तान में सिनेमा का प्रवेश हो चुका था. अफगान सिनेमा 'पॉलीवुड' के नाम से भी जाना जाता रहा है. हालांकि पॉलीवुड मूलतः पाकिस्तान के पेशावर स्थित फिल्म इंडस्ट्री हैं, जहां पश्तो और उर्दू ज़बान की फिल्में बनाई जाती हैं. लेकिन यहां बनाई गई अधिकांश फिल्में पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वाह इलाके और अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों में दिखाई जाती हैं. जैसा कि पहले ही बताया कि अफगानिस्तान में हुए राजनैतिक बदलावों ने लंबे समय तक देश में सिनेमा को फलने-फूलने नहीं दिया और रही-सही कसर 1996 के बाद प्रभुत्व में आए चरमपंथी गुट तालिबान ने पूरी कर दी. इस दौरान कट्टरपंथियों ने कई सिनेमाघरों को बर्बाद कर डाला और फिल्मों को जला डाला. तालिबान ने सिनेमा को प्रतिबंधित करते हुए कई सिनेमाघर रेस्टोरेंट्स और चाय की दुकाने में तब्दील कर दिए गए.

1960 में बनी थी पहली कलर अफगान फिल्म

पहली अफगान फिल्म 'लव एंड फ्रेंडशिप' साल 1946 में बनाई गई थी. अफगानिस्तानी कलाकारों को लेकर बनाई गई पहली अफगान फिल्म 'लाइक ईगल्स' थी, जिसमें ज़ाहिर वाइदा और नाजिया ने एक्टिंग की थी. इसी दौर में दो अन्य फिल्में 'विलेज ट्यून्स' और 'डिफिकल्ट डेज' भी बनाई गई. ये सभी फिल्में ब्लैक एंड व्हाइट थीं. अफगानिस्तान की पहली कलर फिल्म 'रन अवे' 1960 के दशक में बनाई गई थी. दुनिया के अन्य देशों के तुलना में टेक्नीक्स के मामले में ये फिल्में ज्यादा उन्नत नहीं थीं, लेकिन अफगानियों की ज़िंदगी की मुश्किलों को दर्शाने में ये कामयाब रही थी. साल 1968 में अफगान फिल्म ऑर्गेनाइजेशन की स्थापना भी की गई थी, जिसके तत्कालीन अध्यक्ष लतीफ अहमदी थे. वर्तमान में फिल्म निर्देशक सहारा करीमी इसकी महानिदेशक हैं, जिन्होंने हाल ही में एक ओपेन लेटर लिखकर पूरी दुनिया का ध्यान अफगानिस्तान में काबिज होने जा रही तालिबान सरकार की ओर दिलाया था. अपील की थी पूरी दुनिया एक साथ मिलकर तालिबान को रोकने में मदद करे.

अफगान फिल्म ऑर्गेनाइजेशन ने लगाई गुहार

अफगान फिल्म ऑर्गेनाइजेशन की पहली महिला महानिदेशक ने अपने लेटर में लिखा था, 'मेरा नाम सहारा करीमी है. मैं एक फिल्म निर्देशक हूं और अफगान फिल्म की वर्तमान महानिदेशक हूं, जो 1968 में स्थापित एकमात्र सरकारी स्वामित्व वाली फिल्म कंपनी है. मैं टूटे हुए दिल के साथ ये लिख रही हूं और इस उम्मीद के साथ कि आप मेरे खूबसूरत देश को तालिबान से बचाने में शामिल होंगे. तालिबान ने पिछले कुछ दिनों में कई प्रांतों पर कब्जा कर लिया है. नरसंहार कर रहा है. कई बच्चों का अपहरण कर लिया गया है. एक महिला को उसके कपड़ों के लिए मार डाला गया. उन्होंने हमारे पसंदीदा हास्य कलाकारों में से एक को प्रताड़ित किया और मौत के घाट उतार डाला. उन्होंने एक प्रागैतिहासिक कवि को मार डाला. सरकार से जुड़े लोगों को मार डाला. कुछ लोगों को सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटका दिया. लाखों परिवारों को विस्थापित कर दिया. काबुल में परिवार शिविरों में रह रहे हैं. दूध के अभाव में बच्चों की मौत हो रही है. यह एक मानवीय संकट है, लेकिन दुनिया खामोश है.'

कान समारोह में पहुंची थी ये अफगान फिल्म

अफगानिस्तान स्थित ईरानी निर्देशक मोहसेन मखमलबफ ने अपनी मशहूर फिल्म 'कंधार' के जरिए पूरी दुनिया का ध्यान अफगानिस्तान की तरफ आकर्षित किया था. यह दुनिया को एक भूले हुए देश के बारे में बताने की कोशिश थी. इतना ही नहीं अफगान सिनेमा के इतिहास में पहली बार ये फिल्म कान फिल्म समारोह में दिखाई गई. इसके बाद समीरा मखमलबफ, सिद्दीक बरमक, रज़ी मोहेबी, होरेस शंसब, यासमीन मालेकनसर और अबॉल्फज़ल जलीली ने अफगानिस्तान में दारी (फ़ारसी) सिनेमा में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था. सिद्दीक बरमक की पहली पश्तू फिल्म 'ओसामा' (2003) ने कान और लंदन में फिल्म समारोहों में कई पुरस्कार जीते. सिद्दीक अफगान चिल्ड्रन एजुकेशन मूवमेंट (एसीईएम) के निदेशक भी हैं, जो साक्षरता, संस्कृति और कलाओं को बढ़ावा देता है, जिसकी स्थापना ईरानी फिल्म निर्देशक मोहसेन मखमलबाफ ने की थी. साल 2006 में अफगानिस्तान मध्य एशियाई और दक्षिणी काकेशस फिल्म फेस्टिवल कंफेडरेशन में शामिल हो गया.

शरिया कानून का हिमायती रहा है तालिबान

उस वक्त तालिबान के जाने के बाद फिल्मों में महिला कलाकारों का प्रतिनिधित्व तेजी से बढ़ा. अफगान अभिनेत्री जैसे लीना आलम, अमीना जाफरी, सबा सहर और मरीना गुलबहारी ने सिनेमा जगत में काफी नाम कमाया है. लेकिन अब तालिबान एक बार फिर वापस आ चुका है. अफगानिस्तान पर कब्जा कर चुका है. अब हुकूमत उसकी चलेगी. उसके बनाए कानून देश में लागू होंगे. जैसा कि सभी जानते हैं कि तालिबान शरिया कानून का हिमायती रहा है. ऐसे में अब कानून धार्मिक संस्थाओं से संचालित होगा. देश में कला, संस्कृति और सिनेमा का क्या होगा, ये आप फिल्म निर्देशक सहारा करीमी के लेटर में लिखी बातों से समझ लीजिए. उन्होंने लिखा है, 'तालिबान सत्ता संभालते ही सिनेमा और कला पर प्रतिबंध लगा देगा. फिल्म निर्माता, निर्देशक और कलाकार उनकी हिट लिस्ट में आ जाएंगे. वे महिलाओं के अधिकारों को छीन लेंगे, हमें अंधेरी काल कोठरी में धकेल दिया जाएगा. हमारे घरों में हमारी आवाजों को खामोश कर दिया जाएगा. तालिबान ने कई स्कूलों को तबाह कर दिया है और अब 20 लाख लड़कियों को स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है. यह सबकुछ पूरी दुनिया के सामने होगा. हमारी मदद कीजिए.'

लेखक

मुकेश कुमार गजेंद्र मुकेश कुमार गजेंद्र @mukesh.k.gajendra

लेखक इंडिया टुडे ग्रुप में सीनियर असिस्टेंट एडिटर हैं.

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