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Updated: 09 सितम्बर, 2015 05:32 PM
गौतम चिंतामणी
गौतम चिंतामणी
  @gautam.chintamani.7
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उत्पाद और प्रशंसा की अगर बात करें तो 1975 का वर्ष हिन्दी सिनेमा के लिए वास्तव में बहुत खास था. ये शायद पहली और आखिरी बार था जब हिन्दी सिनेमा के सारे रंग, शैली और स्टाइल एक साथ मौजूद थे. ये वही साल था जब शोले रिलीज हुई, इसी साल हिन्दी सिनेमा की सबसे प्रतिष्ठित फिल्में रिलीज हुई थीं. शोले के अलावा, अमिताभ बच्चन-सलीम-जावेद की फिल्म दीवार के साथ-साथ ये साल जूली, चुपके-चुपके, धर्मात्मा, आंधी, मिली, अमानुष, प्रतिज्ञा, जय संतोषी मां, खुशबू, रफू-चक्कर, जमीर, वारन्ट, मौसम, खेल-खेल में जैसी और फिल्मों का भी रहा.

ऐसा नहीं है कि ये साल सिर्फ लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा के लिए अच्छा था. बल्कि इसी साल श्याम बेनेगल की निशांत भी उनकी पहली फिल्म अंकुर की तरह शानदार साबित हुई और इसने एक वर्ष पहले शुरू हुए समानांतर सिनेमा के चलन को और भी मज़बूती दी. मुख्यधारा और आर्ट-हाउस सिनेमा के अलावा, बासु चटर्जी की फिल्म छोटी सी बात से ये साल मध्यम सिनेमा की शुरुआत का भी रहा, जिसने अमोल पालेकर को एक उभरते हुए अभिनेता के रूप में स्थापित किया था.

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फिल्म 'दीवार'(1975)

जबकि उसके बाद के सालों में मध्यम और समानांतर सिनेमा दोनों और भी बेहतर होते चले गए, लेकिन किन्हीं कारणों से लोकप्रिय सिनेमा सन् 1975 के मुकाबले उतनी शानदार साबित नहीं हो पाई. दिलचस्प बात है कि 1975 के बाद का समय हिन्दी सिनेमा के लिए थोड़ा निराशापूर्ण रहा. ये जानने के लिए कि वर्ष 1975 ने लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा को आगे ले जाने के बजाये उसपर प्रतिकूल असल क्यों डाला, हमें भारत की सबसे पसंदीदा फिल्मों की चालीसवीं सालगिरह और देश के सबसे काले अध्याय- 'इमरजेंसी' की चालीसवीं सालगिरह की तुलना करनी होगी.

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फिल्म 'आंधी'(1975)

ऐसे वक्त जब फिल्मों को बनने में कई साल लग जाते थे, इमरजेंसी ने फिल्म बिरादरी पर कई फरमान जारी कर दिए थे, और बाकी भारतीय व्यवसायों की तरह, फिल्म निर्माताओं के पास भी सरकारी आदेश मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. अभिनेता, गायक और निर्माताओं को उस समय की कांग्रेस सरकार और इमरजेंसी के सूत्रधार के रूप में संजय गांधी की प्रशंसा और गुणगान करना ही नहीं बल्कि टीवी पर विशेष कार्यक्रम और दूसरे इवेंट करने की भी आज्ञा दी गई थी. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने देव आनंद, किशोर कुमार और शत्रुघ्न सिन्हा जैसे सितारों पर आधिकारिक तौर पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन जून 1975 में जब इमरजेंसी की आधिकारिक घोषणा की गई तो वो भय फिल्म निर्माताओं के मन में निकल नहीं रहा था.  

नतीजा ये हुआ, उन्होंने शायद समस्या से बचने और सावधानी से चलने का रास्ता चुना, 1977 के बाद जारी फिल्मों में मनोरंजन और पलायनवाद विशेष रूप से दिखाई दिया. आंधी को भूल जाइए, जिसे राष्ट्रीय टेलीविजन पर दिखाए जाने पर रोक लगा दी गई थी, जिसके बारे में अफवाह थी कि ये प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जीवन पर आधारित थी, यहां तक कि दीवार जिसमें धन के लिए नैतिकता का कारोबार किया जा रहा था. चाचा भतीजा(1977), ड्रीम गर्ल(1977) और हम किसी से कम नहीं(1977) जैसी फिल्में मुशकिल से ही कमाल कर पाईं. यहां तक कि बच्चन और धर्मेंद्र जिनके पास 1975 में शोले और चुपके-चुपके के अलावा मिली और प्रतिज्ञा जैसी फिल्में थीं, उनके पास अमर अकबर एंथोनी(1977), परवरिश और धर्मवीर(1977) जैसी फिल्में रह गई थीं.

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फिल्म 'अमानुष'(1975)

1975 के पहले और बाद में लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा की सीमारेखा कोई भी साफ तौर पर देख सकता है. और इस दशक के पहले छह महीनों में आई फिल्में आसपास हो रही चीजों से प्रेरित थीं. जब सलीम-जावेद दीवार की पटकथा लिख रहे थे तो उसकी कहानी में भी, 1973 में देश जिस राजनीतिक अशांति का सामना कर रहा था उसकी झलक देखने मिलती है. लेकिन नसरीन मुन्नी कबीर की किताब 'टॉकिंग फिल्म्स' में जावेद अख्तर कहते हैं कि इस जोड़ी(सलीम खान और जावेद अख्तर) को अत्साह के साथ फिल्म दीवर की पटकथा लिखने के लिए केवल 18 दिन का समय लगा और इसका श्रेय वो उस माहौल को देते हैं जिसने प्रेरणा का काम किया.

शोले और दीवार के साल में, बाकी फिल्मों को अपनी जगह बनाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी, लेकिन उस साल की सभी यादगार फिल्में किसी न किसी कारणों से अलग दिखाई देती हैं. जिस तरह ज़्यादातर बॉक्स आफिस पर हिट फिल्में अलग अलग शैलियों की थीं और शोले के दौर में भी पिछले चालीस वर्षों से अपनी पकड़ बनाने में कामयाब रहीं, 1975 को उत्साहपूर्वक याद किए जाने का यही एकमात्र कारण है. भले ही इनमें से बहुतों को आज बहुत ही सामान्य तौर पर याद किया जाता है जैसे कि संयोग से सुपरहिट हुई फिल्म जिसने वास्तव में एक नई देवी से मिलवाया(जय संतोषी मां), या उनके गाने(जूली, खेल-खेल में, मौसम, अमानुष), या शैली को परिभाषित करती (छोटी सी बात, चुपके-चुपके, निशांत), वो उस युग की साक्षी हैं जब लोकप्रिय हिंदी सिनेमा अव्यवहारिक मनोरंजन से कुछ ज़्यादा था. क्या लोकप्रिय हिंदी सिनेमा की एक बड़ी संख्या को इमरजेंसी का हर्जाना नहीं चुकाना पड़ा? कोई भी इस बात पर तर्क कर सकता है कि ये विचार शायद स्वयं सिद्ध प्रमाण है लेकिन फिर 1970 के दशक की दूसरी छमाही में व्यवसायिक सिनेमा की गुणवत्ता में आई गिरावट की व्याख्या भी कर सकता है.

 

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लेखक

गौतम चिंतामणी गौतम चिंतामणी @gautam.chintamani.7

लेखक फिल्म समीक्षक और 'डार्क स्टार- द लोनलीनेस ऑफ बीइंग राजेश खन्ना' पुस्तक के लेखक हैं

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