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Updated: 27 जुलाई, 2020 05:26 PM
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हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी

फिर भी तनहाईयों का शिकार आदमी

सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ

अपनी ही लाश का ख़ुद मज़ार आदमी

रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ

हर नए दिन नया इंतज़ार आदमी

निदा फ़ाज़ली की यह नज़्म आज की सबसे बड़ी सच्चाई है और इस सच्चाई के कारण एक गंभीर समस्या से समाज के हर तबके के बहुत से लोग पीड़ित होते जा रहे हैं. हम लाखों लोगों की भीड़ में होते हैं और जब इनलोगों में से किसी को चुनना होता है, जिससे दिल की बात बताई जाए, कुछ कही और कुछ सुनी जाए, तो हमें अपने आसपास एक भी आदमी वैसा नहीं दिखता. सब अपनी परेशानियों के बोझ तले दबे हुए हैं और शायद यही ज़िंदगी है और जीना इसी का नाम है. हर दिन मुश्किलों से घिरते हैं और फिर हौसलों और उम्मीदों के सहारे जीवन को सामान्य करने की कोशिश करते हैं. कहा जाता है कि जीवन चलने का नाम है और सुख-दुख सुबह-शाम की तरह है, जिसका उदय होगा तो अस्त भी निश्चित है. हम जीवन की परेशानियों से लड़कर और उससे पार पाकर ही तो इंसान होने के लिए जरूरी प्रतिभाओं का परिचय देते हैं. मौत तो क्षणिक सुख है और सुख क्षणिक हो तो फिर इसका क्या मजा?

बीते कुछ दिनों से डिप्रेशन पर लंबी बहस चल रही है. डिप्रेशन को लेकर तरह-तरह की बातें लिखी गई हैं और इसके पीछे क्या वजहें हैं, लोग ये जानने की कोशिश कर रहे हैं. सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी के पीछे डिप्रेशन को सबसे बड़ी वजह माना जा रहा है. ऐसे में ये बात उठती है कि क्या वाकई डिप्रेशन एक गंभीर समस्या है, जिसके कारणों पर चर्चा उतनी ही जरूरी है, जितना कि किसी के इस दुनिया से चले जाने पर दुख मनाना. फिल्म इंडस्ट्री के स्टार्स हों या कोई बच्चा, फिल्म न चलने और घाटा होने से परेशान छोटा-बड़ा कलाकार हो या एग्जाम में अच्छा न करने वाला स्टूडेंट, सब अपने करियर को लेकर काफी चिंतित होते हैं और यह चिंता उन्हें धीरे-धीरे ऐसा बना देती है कि वे डिप्रेशन जैसी गंभीर समस्या से ग्रसित हो जाते हैं.

क्या कहा जौनपुर के मुकुंद मिश्रा ने?

पिछले कुछ दिनों से जौनपुर के एक लड़के का वीडियो काफी वायरल हो रहा है, जिसमें वह अपना दुख जाहिर करते हुए दुनिया से बता रहा है कि किस तरह वह डिप्रेशन से पीड़ित हुआ और इसके पीछे कौन-कौन सी वजहें रहीं. यूपी के जौनपुर का मुकुंद मिश्रा. उम्र करीब 20 साल. आईसीएसटी कॉलेज, मुंबई के इंजीनियरिंग कॉलेज के दूसरे साल का छात्र. बेहद सामान्य सा दिखने वाला यह छात्र बातों फेसबुक पर एक वीडियो बनाता है और बताता है कि वह ऐसा पहली बार कर रहा है. बातों-बातों में भावुक होता मुकुंद डरा-सहमा सा लगता है और बताता है कि वह मुंबई में कितना अकेला मसहूस कर रहा है. कहने को उसके सोशल मीडिया पर कई दोस्त हैं, लेकिन वो सब मतलबी निकले और जब उसे किसी की जरूरत पड़ी तो उसकी बात सुनने वाला भी कोई नहीं था. सब भले फेसबुक पर सुशांत सिंह राजपूत की मौत का ग़म मनाते हुए पोस्ट लिखे और अपील करे कि अगर कोई परेशान है तो बात करे, लेकिन वाकई जब कोई परेशान शख्स उससे बात करना चाहता है तो वो लोग ठीक से रिप्लाई भी न करे. और फिर धीरे-धीरे मुकुंद मिश्रा परेशान रहने लगता है और बताता है कि कैसे डिप्रेशन उसपर हावी हुआ.

ऐसा आपसे साथ भी हुआ होगा?

ऐसा हर किसी के जीवन में हुआ है, हम लोगों से उम्मीदें लगाते हैं और वो उम्मीदें टूटती हैं. मुकुंद मिश्रा की कहानी न तो इकलौती है और न ही अनोखी. हम सब अपने आसपास ये चीजें देख रहे हैं, लेकिन इस समस्या को मुकुंद मिश्रा ने जिस तरह आसान शब्दों में बताया और पागलपन एवं मानसिक बीमारी के बीच अंतर को समझाया, यह सोशल मीडिया पर कौतुहल के रूप में दिखा. लोगों ने मुकुंद मिश्रा के पोस्ट शेयर किए और सोशल मीडिया पर ही डिप्रेशन जैसी अति गंभीर समस्या पर विचार होता रह गया. अकेलापन, परेशानी और इनदोनों से उपजी समस्या भारत समेत दुनिया के करोड़ों लोगों के मन में घर किए हुए है, जिसका बहुत लोग समाधान निकाल लेते हैं और जो लोग इससे उबर नहीं पाते, वे या तो बोझिल ज़िदगी की पतवार थामे समय रूपी समुंदर में अपने अस्तित्व की नौका चलाते रहते हैं या कुछ लोग इस समुंदर में डूबकर अपनी जीवन लीला खत्म कर लेते हैं. लेकिन मौत कभी किसी चीज का समाधान नहीं रही है.

डिप्रेशन तो किसी भी बात कर हो सकता है

अब बात आती है अकेलेपन, परेशानी और डिप्रेशन की. मुकुंद मिश्रा की परेशानी की वजह उसका अकेलापन और लोगों की उपेक्षाओं के साथ ये भी है कि छोटे शहरों के कुछ बच्चों के मन में मुंबई-दिल्ली जैसे शहरों के नामी-गिरानी कॉलेज में जाने के बाद विपरीत माहौल देखकर हीनता आ जाती है, वह हीनता धीरे-धीरे उसे परेशान करने लगती है और फिर वह भीड़ में भी खुद को अकेला महसूस करने लगता है. मुकुंद मिश्रा जैसे हजारों लोग हैं. यही हाल बड़े शहरों के बच्चों का भी होता है, जब वह लंदन, न्यू यॉर्क जैसे शहरों में जाते हैं. वहां वह विपरीत परिस्थिति में मानसिक हीनता का शिकार हो जाते हैं.

डिप्रेस्ड हो जाना एक दैनिक कार्य भी है. मान लीजिए कि कहीं आप बैंक की एटीएम में पैसा निकालने या पेट्रोल पंप पर कार या बाइक में पेट्रोल डलवाने के लिए लाइन में लगे हैं. वहां एक बंदा आता है और धौंस जमाते हुए एटीएम से पैसे निकाल लेता है या गाड़ी में पेट्रोल डलवा लेता है, वहां आप मजबूर हैं और कुछ करने की हालत में नहीं हैं. यह सोचकर आप दुखी हो जाते हैं और दुनिया को कोसने लगते हैं. यह भी एक तरह की मानसिक दशा ही है, जहां व्यक्ति परेशान होकर कुछ समय के लिए डिप्रेस्ड हो जाता है. ऐसी स्थिति में डिप्रेशन को बड़े स्तर पर समझने की जरूरत है कि आखिरकार यह मानसिक समस्या है क्या और इसकी गंभीरता का अंदाजा कैसे लगेगा?

डिप्रेशन और दैनिक परेशानियों को मिलाएं नहीं!

एक बात जो गौर करने वाली है, वो ये है कि डिप्रेशन अंतिम अवस्था है, जहां व्यक्ति सिर्फ और सिर्फ दुखी ही रहता है, तन्हा महसूस करता है और उसकी जीने की ख्वाहिशें धीरे-धीरे खत्म हो जाती है. ऐसे में कुछ लोग गलत कदम भी उठा लेते हैं. लेकिन परेशानी, अकेलापन, दुख... इन सारी बातों से तो लोग हर दिन रूबरू होते हैं और इसमें उलझना और इससे निकलना उनकी दैनिक नियति और बाध्यता है. दुख या परेशानी भी छोटी और बड़ी होती है, लेकिन व्यक्ति के पास ही उससे निकलना का साहस और रास्ता भी होता है. सदमा, ग़म या अन्य डराने वाली बातों की अपेक्षा व्यक्ति का मनोबल या उसकी हिम्मत काफी ऊंचे पायदान पर होती है और व्यक्ति के पास इन बातों से लड़ने का हौसला भी होता है. जीवन है तो ग़म भी होगा, उससे पार पाने का हौसला भी और आगे बढ़ने का रास्ता भी. व्यक्ति विशेष किसी बातों से घबरा सकता है, उससे डरकर बैठ नहीं सकता है. अगर डर भी गया तो वह उठेगा और अपनी मुसीबतों का डटकर मुकाबला करेगा.

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