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Updated: 30 मई, 2021 07:12 PM
मुकेश कुमार गजेंद्र
मुकेश कुमार गजेंद्र
  @mukesh.k.gajendra
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टीवी से लेकर फिल्म इंडस्ट्री में काम करने वाले कलाकार अक्सर अपने विवादित बयानों की वजह से सुर्खियों में आ जाते हैं. इनमें कुछ ऐसे बयान होते हैं, जो इनकी मानसिकता का सामाजिक प्रदर्शन करते हैं. समाज कितना भी आधुनिक हो जाए, लेकिन धर्म और जाति को लेकर कुछ लोगों का सामाजिक नजरिया कभी नहीं बदल सकता. सिनेमा और समाज एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं. सिनेमा बनाने वाला या उसमें चरित्र निभाने वाला, दोनों इसी समाज से आते हैं. इसलिए उनकी सोच और समझ समाज से प्रभावित दिखती है. टीवी एक्ट्रेस मुनमुन दत्ता और युविका चौधरी से लेकर बॉलीवुड एक्टर रणदीप हुड्डा तक, इन कलाकारों द्वारा की गई जातिगत टिप्पणी इनकी सोच को प्रदर्शित करती है. यह बताती है कि दलित, वंचित, शोषित और उपेक्षित वर्ग के लिए आज भी ऊंची जाति के लोग क्या सोच रखते हैं.

1_650_053021044503.jpgएक्टर रणदीप हुड्डा पर बसपा प्रमुख मायावती के बारे में अश्लील, जातिवादी, और नस्लवादी टिप्पणी का आरोप.

हाल ही में सलमान खान की फिल्म 'राधे' में विलेन के किरदार में नजर आए एक्टर रणदीप हुड्डा इतनी जल्दी वास्तविक जीवन में भी खलनायक बन जाएंगे, शायद उन्होंने भी कभी सोचा नहीं था. इनदिनों सोशल मीडिया पर उनका एक वीडियो वायरल हो रहा है. आरोप है कि एक टॉक शो के दौरान वो बसपा प्रमुख मायावती के बारे में अश्लील, आपत्तिजनक, जातिवादी, महिला विरोधी और नस्लवादी टिप्पणी करते हुए नजर आ रहे हैं. उनकी इस टिप्पणी के खिलाफ हरियाणा के हासी में केस दर्ज कराया गया है. उनकी गिरफ्तारी की मांग की जा रही है. उनसे पहले तारक मेहता का उल्टा चश्मा फेम बबिता यानि मुनमुन दत्ता और बिग बॉस फेम युविका चौधरी पर भी जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए दलित समुदाय को नीचा दिखाने का आरोप है. इनके खिलाफ भी एससी/एसटी एक्ट के तहत एफआईआर दर्ज की गई है.

तमिल फिल्मों से सीखें विविधता की सीख

इसमें कोई दो राय नहीं है कि फिल्म इंडस्ट्री बहुत तरक्की कर रही है. कहानी से लेकर तकनीकि तक, प्रमोशन से लेकर रिलीज तक, हर स्तर पर हमारा सिनेमा हाईटेक हो चुका है. लेकिन हमारे समाज के कुछ मुद्दे सिनेमा की मुख्य धारा में आने से छूट जाते हैं. खासकर हिंदी फिल्मों में दलित मुद्दों को अभी तक खुले रूप से उठाया नहीं गया है. बहुत कम सिनेमा ऐसा है, जो दलितों से जुड़े मुद्दे उठाता है. उनकी कहानियां कहता है. कुछ फिल्मकारों ने इस मुद्दे से जुड़ी कुछ कहानियों को हम तक पहुंचाने की कोशिश की है, लेकिन उनका प्रयास ऊंट के मुंह में जीरे जैसा है. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की अपेक्षा तमिल फिल्म इंडस्ट्री इस तरह के मुद्दे उठाने में अक्सर आगे रहती है. विविधता की सीख हिंदी फिल्मों को तमिल फिल्मों से मिल सकती है. हालही में अमेजन प्राइम वीडियो पर रिलीज फिल्म 'कर्णन' इसका ज्वलंत उदाहरण है.

दलित प्रतिरोध की सशक्त प्रस्तुति है 'कर्णन'

सुपरस्टार धनुष की तमिल फिल्म 'कर्णन' महज एक मूवी नहीं है. यह एक मूवमेंट है. उन लोगों के लिए एक वेक-अप कॉल है, जो सोचते हैं कि सभी इंसान समान पैदा होते हैं. लेकिन क्या ये सच है? फिलहाल तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता. हमारे समाज में जाति व्यवस्था अभी भी विभिन्न रूपों में मौजूद है. असमानताएं हमारे डीएनए में है. यह फिल्म हिंसा, दमन, शोषण की सदियों पुरानी सामंतवादी, सवर्ण जातिवादी सोच के खिलाफ दलितों और वंचितों के प्रतिरोध की बहुत ही सशक्त प्रस्तुति है. इसका पहला सीन ही दर्शकों का दिल झकझोर देता है. बीच सड़क पर दर्द से तड़प रही एक बच्ची के मुंह से झाग निकल रहा है. आसपास से बसें गुज़रती जा रही हैं. बस स्टॉप नहीं है, इसलिए मदद के लिए रुक नहीं रहीं. बच्ची सड़क पर ही दम तोड़ देती है. गांव में छोटी जाति के लोग रहते हैं, इसलिए सुविधाओं से वंचित है.

सवर्ण निर्माता-निर्देशक के नजरिए की फिल्म

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अनुभव सिन्हा जैसे कुछ फिल्म मेकर्स ने अपनी फिल्मों की जरिए समाज की इस अन्यायपूर्ण जाति-व्यवस्था पर कड़ा प्रहार करने की कोशिश की, लेकिन ये इतना काफी नहीं हैं. 'आर्टिकल 15' और 'मैडम चीफ मिनिस्टर' जैसी फिल्में आपने देखी होंगी शायद. जातिप्रथा पर बनी ये दोनों हिंदी फिल्में इसी जाति व्यवस्था द्वारा शीर्ष पर बिठाए गए लोगों के नजरिए से थीं. एक सवर्ण निर्माता-निर्देशक समाज में दलितों के मुद्दों को कैसे देखता है और उसे पेश करता है? ये फिल्में बस उतना ही विचार समेटे हुए थीं, क्योंकि दर्द तो वही समझ सकता है, जो उस बीमारी से गुजर रहा होता है. इस मामले में तमिल निर्देशक मारी सेल्वाराज द्वारा निर्देशित तमिल फिल्म कर्णन बिल्कुल अलग है. इसे बनाने वाले मारी से लेकर इसमें अभिनय करने वाले धनुष तक, उसी वर्ग से आते हैं, जिनपर फिल्म बनी है.

संविधान के आर्टिकल 15 में क्या लिखा है?

'मैं और तुम इन्हें दिखाई ही नहीं देते. हम कभी हरिजन हो जाते हैं, कभी बहुजन हो जाते हैं. बस जन नहीं बन पा रहे हैं कि 'जन गण मन' में हमारी भी गिनती हो जाए.' फिल्म 'आर्टिकल 15' का डायलॉग देश के उन लोगों की आवाज है, जो आज भी सामाजिक भेदभाव और जातिवाद से जूझ रहे हैं. अपने देश में किस तरह से जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव किया जाता है, किस तरह से पिछड़े तबके के लोगों के लिए जीना मुश्किल होता है, 'आर्टिकल 15' में ये काफी संवेदनशीलता के साथ पेश किया गया है. दरअसल, हमारे संविधान के आर्टिकल 15 में लिखा गया है कि किसी भी वर्ग, जाति, लिंग या धर्म के व्यक्ति में किसी तरह का अंतर नहीं किया जाएगा, लेकिन देश में क्या हो रहा है इससे ना तो आप अंजान हैं और ना ही हम. एक बार फिर अपना संविधान याद दिलाने के लिए फिल्म 'आर्टिकल 15' का निर्माण हुआ.

सिनेमाई पर्दे पर पिछड़े तबके का प्रतिनिधित्व

फिल्मों में पिछड़े, वंचित और शोषित तबके के प्रतिनिधित्व को लेकर अंग्रेजी अखबार 'द हिंदू' के एक दशक पहले एक सर्वे किया था. पिछले दो वर्षों में रिलीज हुई करीब 300 बॉलीवुड फिल्मों के अध्ययन के बाद पता चला कि पिछड़े तबके का सिनेमाई पर्दे पर प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर है. साल 2013-14 में प्रदर्शित हुई फिल्मों के आधार पर यदि बात की जाए तो साल 2014 में केवल दो ऐसी हिंदी फिल्में आईं जिसमें मुख्य पात्र पिछड़े तबके से था, मंजुनाथ और हाईवे. इसमें फिल्म हाईवे में तो खुद रणदीप हुड्डा गुर्जर क्रिमिनल की भूमिका में थे. इसके अलावा दो और फिल्में इस श्रेणी में मानी जा सकती हैं. माधुरी दीक्षित की फिल्म 'गुलाब गैंग'. इसके अलावा बच्चों के ऊपर अमोल गुप्ते की बनाई फिल्म हवाहवाई भी इस श्रेणी में आती हैं. इसके ठीक उलट तमिल फिल्मों में पिछड़े तबके के मुख्य पात्रों की कोई कमी नहीं है.

समाज के हर क्षेत्र में हो रहा है भेदभाव

शिक्षा, साहित्य, कला, संस्कृति, राजनीति और खेल, समाज का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं जहां भेदभाव नहीं होता है. इस भेदभाव के शिकार और शिकारी इसी समाज के हैं. सिनेमा अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है. इसके जरिए ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर बातचीत बहुत जरूरी है. लेकिन बॉलीवुड प्रतापियों का शिकार है. इससे बेहतर तो इस वक्त ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के जरिए संवेदनशील फिल्मों की रोशनी में नई कहानियां आ रही हैं. इनमें विडंबनाएं और जघन्यताएं बेशक कायम हैं, लेकिन विवशता का स्थान उल्लास ने और अन्याय सहते रहने की प्रवृत्ति का स्थान प्रतिरोध ने ले लिया है. इसे आप फिल्म कर्णन और वेब सीरीज पाताल लोक में देख सकते हैं. ये प्रस्तुतियां और सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां भी राजनीति के साथ देश में लंबे समय से जारी उस बहस का तानाबाना बुनती है जो जातीय भेदभाव, नफरत और तनाव पर केंद्रित है.

लेखक

मुकेश कुमार गजेंद्र मुकेश कुमार गजेंद्र @mukesh.k.gajendra

लेखक इंडिया टुडे ग्रुप में सीनियर असिस्टेंट एडिटर हैं.

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