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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 14 सितम्बर, 2020 08:33 PM
ओम प्रकाश धीरज
ओम प्रकाश धीरज
  @om.dheeraj.7
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Social media is drug... आप सभी के जेहन में कभी न कभी जरूर आता होगा कि शायद मैं जरूरत से ज्यादा सोशल मीडिया इस्तेमाल करने लगा/लगी हूं और मोबाइल अप्लिकेशंस के हर मिनट आने वाले नोटिफिकेशन कहीं न कहीं हमारी जिंदगी में गैरजरूरी दखलअंदाजी की तरह हो गए हैं. लेकिन चूंकि आपने सोशल मीडिया को अपनी जरूरतें और मन लगाने का सबसे बड़ा जरिया बना लिया है, ऐसे में आप चाहते भी हुए खुद को सोशल मीडिया के बहुत ज्यादा इस्तेमाल से रोक नहीं पाते हैं और आखिर में एक शब्द आता है- Social Media Addiction. जी हां... लोगों की जिंदगी में सोशल मीडिया के इसी दखल और उससे होने वाले नुकसान को नेटफ्लिक्स की नई डॉक्यूमेंट्री The Social Dilemma में टेक्नॉलजी सेक्टर के दुनिया के सबसे तेज दिमाग वाले लोगों और एक्सपर्ट ने इस तरह पेश किया है कि इसे देख आप डरेंगे और सोचने पर मजबूर हो जाएंगे की दुनिया कहां से कहां आ गई है. ऐसी दुनिया, जहां आपकी हर गतिविधि पर ढेरों लोगों की नजर है और वो आपको अपनी उंगली पर नचा सकते हैं और आपका दिमाग तक भटका सकते हैं.

नेटफ्लिक्स की नई डॉक्यूमेंट्री एक तरह की कोशिश है, जिसमें फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, गूगल, पिंटरेस्ट, उबर, स्नैपचैट, टिकटॉक समेत अन्य कई सोशल मीडिया कंपनी में बड़े पदों पर रह चुके टेक्नॉलजी एक्सपर्ट्स ने बताने की कोशिश की है कि बीते 12-15 वर्षों में किस तरह दुनिया इंटरनेट और सोशल मीडिया की गुलाम हो गई है. साथ ही विशेषज्ञों ने बताने की कोशिश की है कि कैसे उन्होंने लोगों को एक-दूसरे से जोड़ने के लिए तरह-तरह के सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म्स बनाए, जहां लोग सूचना ग्रहण करने के साथ ही अपना मनोरंजन कर सकेंगे. लेकिन समय के साथ सोशल मीडिया का स्वरूप बदल गया और सोशल मीडिया कंपनी पैसे कमाने के लिए एडवर्टाइजर्स के साथ डील करती है और इसमें यूजर्स ग्राहक की तरह ट्रीट किए जाते हैं. यहां सोशल मीडिया कंपनी यूजर्स की सोच, पसंद और एक्टिविटी पर हर पल नजर रहती है और विज्ञापनदाताओं को खुश करने के साथ ही पैसे कमाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाती है. एक्सपर्ट्स ने साफ तौर पर कहा है कि सोशल मीडिया से जितना दूर रहें, उतना आपके लिए बेहतर है, नहीं तो आने वाले समय में सोशल मीडिया की वजह से सिविल वॉर के हालात बन सकते हैं.

सोशल मीडिया भस्मासुर की तरह

ये जमाना सोशल मीडिया का है, जहां तरह-तरह की सूचनाओं की आंधी में सही सूचना बह सी जाती है और लोग गैरजरूरी सूचनाओं से घिरकर अपना और समाज का नुकसान पहुंचाते हैं. द सोशल डायलेमा डॉक्यूमेंट्री में एक्सपर्ट्स ने यही बताने की कोशिश की है कि सोशल मीडिया एक तरह से भस्मासुर की तरह है, जिसे भले सही उद्देश्य के लिए क्रिएट किया गया था, लेकिन समय के साथ यह यूजर्स के लिए ही हर तरह से नुकसानदेह साबित हो रहा है, जहां पैसे कमाने की खातिर लोगों की सोच और पसंद का सौदा किया जाता है. सोशल मीडिया के जमाने में सामाजिक एकता और सौहार्दता को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा है, जहां लोगों का एक-दूसरे पर से विश्वास खत्म हो गया है और हर कोई एक-दूसरे को संदेह की नजरों से देख रहा है. प्रोद्यौगिकी काल में हम सोशल मीडिया कंपनियों के लिए कठपुतली से बढ़कर कुछ नहीं है, जहां लोग हमें अपनी उंगली पर नचा रहे हैं और हमसे वो करवा रहे हैं, जो वो चाहते हैं. नोटिफिकेशन के जाल में हमारी दुनिया इतनी उलझ गई है कि सोते-जगते हमेशा हम तरह-तरह के जाल से निकलने की असफल कोशिश करते रह जाते हैं.

यह उदाहरण आपकी आंखें खोल देगा...

आपको यहां एक उदाहरण के जरिये बताना चाहता हूं कि कैसे सोशल मीडिया हमारी जिंदगी को कंट्रोल करने लगा है और मोबाइल फोन से हम एक घंटे भी दूर क्यों नहीं रह पाते हैं. साथ ही कम उम्र के बच्चे किस तरह सोशल मीडिया जाल में फंसकर अपनी जिंदगी के साथ तरह-तरह से खिलवाड़ करने लगे हैं. द सोशल डायलेमा डॉक्यूमेंट्री के एक दृश्य में दिखाया गया है कि एक फैमिली डिनर टाइम में डायनिंग टेबल पर बैठी है और उस घर की हेड मिस्ट्रेस सबका फोन एक बॉक्स में रखकर उसे एक घंटे के लिए लॉक कर देती है. कुछ ही मिनट बीतते हैं कि फोन पर नोटिफिकेशन आने लगते हैं. उस फैमिली की सबसे छोटी सदस्य मां से फोन देने को कहती है और जब उसे नहीं मिलता है तो वह एक हथौड़े से वह बॉक्स तोड़ देती है और खाना छोड़कर अपने बेडरूम में चली जाती है. उसका एक भाई भी सोशल मीडिया के लत में चूर है और वह भी अपना फोन लेकर अपने रूप में चला जाता है. यह बेहद सामान्य उदाहरण है, जिसे आपलोग भी अपने घर में अनुभव करते होंगे और सोचते होंगे कि क्या मैं जो कर रहा हूं, वो सही है? क्या सोशल मीडिया के चक्कर में हम अपनी फैमिली से दूर नहीं हो गए हैं? एक डायनिंग टेबल पर बैठे हुए भी हम सब फोन में बिजी हैं और कोई एक-दूसरे से बात नहीं कर पा रहा है.

लाइक्स, डिस्लाइक का खेल और लोगों के मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान

नेटफ्लिक्स की डॉक्यूमेंट्री में एक्सपर्ट्स ने जोर देकर कहा कि जब वह फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम या अन्य सोशल मीडिया साइट्स बना रहे थे तो कभी उनके दिमाग में नहीं आया था कि आगे चलकर इसके इतने सारे साइड इफेक्ट्स दिख जाएंगे. उदाहरण के तौर पर उन्होंने बताया कि लाइक बटन का इस्तेमाल हमने लोगों में प्यार और सकारात्मकता बढ़ाने के लिए किया था, लेकिन समय के साथ यह नफरत और नापसंद जाहिर करने का साधन बन गया और आज अगर किसी को किसी पोस्ट पर कम लाइक्स मिलते हैं तो वह काफी परेशान हो जाता है. इसे यूट्यूब के डिस्लाइक्स फीचर के संदर्भ में भी देखा जा सकता है और हमारे पास तो सड़क 2 ट्रेलर और पीएम नरेंद्र मोदी के मन की बात यूट्यूब वीडियो का उदाहरण सामने हैं. एक्सपर्ट्स ने सोशल मीडिया को शोर शराबे की दुनिया बताया, जो बच्चों के साथ ही बड़ों के भी मानसिक स्वास्थ्य को काफी नुकसान पहुंचाने लगा है. बच्चे सोशल मीडिया की दुनिया को वास्तविक दुनिया समझकर उसके अनुसार ही व्यवहार करने लगते हैं और एक समय के बाद उससे काफी परेशान रहने लगते हैं.

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और फेक न्यूज की दुनिया

द सोशल डायलेमा में अलग-अलग फील्ड के एक्सपर्ट्स ने आधुनिक जमाने में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) की महत्ता के बारे में बात करते हुए कहा कि एआई से सोशल मीडिया और गूगल जैसी कंपनियों को फायदा हो रहा है, लेकिन इससे आम लोगों को ज्यादा फायदा नहीं हो रहा है. कंपनियां अपने हित में एआई का इस्तेमाल करती हैं, वहीं लोगों को एआई से फेक न्यूज से निपटने में भी ज्यादा सहूलियत नहीं मिलती. विशेषज्ञों ने भारत समेत अन्य देशों में फेक न्यूज से सामाजिक तानेबाने को होने वाले नुकसान का जिक्र करते हुए कहा कि फेक न्यूज ने लोगों का एक-दूसरे से विश्वास खत्म कर दिया है और आज सोशल मीडिया के सहारे कोई भी बिना जांचे-परखे किसी तरह की खबर फैला सकता है और लोगों की भावनाएं भड़का सकता है. एक्सपर्ट्स ने अमेरिका समेत अन्य देशों में सोशल मीडिया के जरिये चुनाव प्रभावित करने का भी उदाहरण लोगों के सामने पेश किया और साफ तौर पर अगाह किया कि अगर इसी तरह चलता रहा तो वह दिन ज्यादा दूर नहीं, जब लोगों के सोचने की क्षमता पूरी तरह खत्म हो जाएगी और वह कुछ प्रभावी लोगों के उकसावे में आकर गृह युद्ध के हालात पैदा कर देंगे.

हो सके तो हालात को संभाल लें, नहीं तो...!

कुल मिलाकर नेटफ्लिक्स डॉक्यूमेंट्री द सोशल डायलेमा में टेक्नॉलजी एक्सपर्ट्स ने दुनिया को संकेत देने की कोशिश की है कि अपनी सोशल मीडिया जरूरतों को कम करने की कोशिश कीजिए और अपनी फैमिली के साथ समय बिताते हुए प्रकृति को बचाने के बारे में सोचिए, क्योंकि कल को आपको प्रकृति ही बचा सकती है, सोशल मीडिया नहीं. विशेषज्ञों ने कहा कि सोशल मीडिया की दुनिया जितनी खूबसूरत दिखती है, उसका असली रूप उतना ही गंदा है और लाइक-कमेंट्स का खेल इतना बुरा है कि लोग पैसे के बल पर कुछ भी करा सकते हैं. एक्सपर्ट्स ने साफ तौर पर कहा कि जिस तरह लैब में चूहे और खरगोश के साथ प्रयोग किया जाता है, उसी तरह सोशल मीडिया की दुनिया में हम एक प्रायोगिक जीव की तरह हैं, जहां बड़ी-बड़ी कंपनियां हमें एक ऐसे प्रोडक्ट की तरह समझती है, जिसे बेचने पर फायदा हो. अगर समय रहते इस व्यवस्था को ठीक नहीं किया गया तो आने वाले वर्षों में इसका इतना भयावह रूप देखने को मिलेगा कि सोचकर हम और आप कांप जाएंगे. इसलिए चाहें तो हम सब मिलकर ये ठीक कर सकते हैं. हालांकि इसमें बहुत समय लगेगा, लेकिन उम्मीद है कि इससे हम अपनी अगली पीढ़ी को बेहतर कर सकते हैं.

लेखक

ओम प्रकाश धीरज ओम प्रकाश धीरज @om.dheeraj.7

लेखक पत्रकार हैं, जिन्हें सिनेमा, टेक्नॉलजी और सामाजिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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