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Updated: 18 जनवरी, 2023 12:49 PM
आईचौक
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बावजूद कि हवा में उड़ने वाले विमान में जो पैसेंजर बैठे रहते हैं, उनके मल-मूत्र आसमान से लोगों की छतों या आँगन में नहीं गिरते. आजकल तो ट्रेनों में भी विमानों की तरह टॉयलेट लगाए जाते हैं. मगर काशी से असम तक गंगा की विराट यात्रा पर निकला एक क्रूज लोगों को चुभने लगा है. नाना प्रकार की चिंताएं सामने आ रही हैं. इसमें प्रदूषण की वाजिब चिंता तो है ही, धार्मिक आधार पर गंगा की पवित्रता के सुंदर सवाल उठाए जा रहे हैं. क्रूज से गंगा में मल-मूत्र गिराए जाने का भी गंभीर सवाल आया है. धर्मनगरी काशी के पतित और भ्रष्ट हो जाने का भी सवाल उठाया जा रहा है. सोशल मीडिया देख लीजिए.

काशी के रेत पर जो अस्थायी सुइट बनाए गए- क्रूज और सुइट में परोसी जानी वाली मीनू के बहाने लोगों ने सवाल दागे. धर्म को लेकर चिंताग्रस्त लोग वही हैं जो मंदिरों को अय्याशी का अड्डा, देवताओं को हत्यारा और ना जाने क्या क्या कहते रहे हैं. मजेदार यह है कि चिंता जताने वालों में कई ज्ञानवापी के गर्भगृह में यौन उत्पीड़न जैसे बेतुके आरोप पहले ही लगा चुके हैं और इसी बिना पर औरंगजेब की कार्रवाई को जायज ठहराते रहें.  

क्रूज की मांसाहार मीनू पर आपत्ति है. और जहाज के फंस जाने को लेकर अखिलेश यादव जैसे नेता ने भी बिना तथ्यों को जांचे तंज कस दिया कि धर्म खतरे में है. अब यात्रियों की वायुसेवा की जाए. वैसे विश्वनाथ कोरिडोर के लिए जमीन तैयार करने वाले अखिलेश यादव को फर्जी आधार पर भी सवाल उठाने का नैतिक हक़ तो है. लेकिन सवाल करने वालों में से एक ने यह नहीं पूछा कि शिव के त्रिशूल पर टिकी काशी में विश्वेश्वर के अहाते में कब्रें कैसे बन गईं और शर्मनाक यह कि वे अभी तक वहीं हैं.

Ganga Vilas cruiseगंगा विलास क्रूज

काशी के धार्मिक स्टेटस पर चिंता करने वाले पहले बताएं ज्ञानवापी में कब्रें क्यों?

किसकी शह पर कब्रें बनीं और किसने इजाजत दी? क्या वह मनुष्य के इतिहास की सबसे प्राचीन सभ्यता को दूषित करने का प्रयास नहीं था. क्या यह बलात सांस्कृतिक प्रदूषण नहीं था. आप तो उसे नाना प्रकार के तर्कों से बचाते ही नजर आते हैं. और काशी में क्या नहीं हो रहा? मांसाहार नहीं हो रहा, देह व्यापार नहीं हो रहा या दूसरे अपराध नहीं हो रहे. भारत का ऐतिहासिक दुर्भाग्य यह रहा है कि कुछ लोग चीजों को समझ ही नहीं पाते. और किसी ने यह सवाल उठाने का भी साहस नहीं किया कि जब क्रूज गंगा पर नहीं उतरा था- लेफ्ट लिबरल कहां दुबक कर बैठे थे, जो फिलहाल गंगा में डुबकी लगाकर बस पुजारी बनने की फिराक में दिख रहे हैं.

उन्हें यह समझ नहीं आता कि जिस अरब ने यज्ञवेदियों को उखाड़ा, मंदिरों को ढहा दिया- आखिर क्या मजबूरी है कि वह आज की तारीख में फिर से अपनी ही जमीन पर मंदिर बना रहा है. शिलान्यास कर रहा है. और उनके शिलापूजन में भी शामिल हो रहा है. क्योंकि उसे अपना देश चलाने के लिए बुद्धि और ऐसे श्रम की जरूरत है आज की तारीख में जो अपने आसपास मंदिर देखने का ऐतिहासिक प्रेमी रहा है. खाड़ी देशों में मंदिर बन रहे हैं. उन्हीं के हाथों, उन्हीं के आदेश पर बन रहे हैं जिनकी वजह से वहां के ना जाने कितने मंदिरों को तबाह किया गया होगा. कुछ लोगों ने कारोबारी नियंत्रण के लिए ही मंदिर तोड़ा था. और अब कारोबारी नियंत्रण के लिए ही मंदिर बना रहे हैं. मंदिर के बिना काम नहीं होगा.

तो जो लोग आलोचना कर रहे हैं उनकी चिंता ना तो धर्म है. ना शिव हैं ना गंगा. ना तो पर्यावरण ही है. उनकी चिंता वह आदिकालीन कोशिशें हैं जिसकी वजह से भारत बदल रहा है. कोशिशें यही हैं कि भारतीय धर्मों के इर्द गिर्द किसी कारोबार को मजबूत नहीं होने दिया जाए, जो भारतीयों धर्मों को ताकतवर बनाने वाली है. धार्मिक और सांस्कृतिक पर्यटन भारत में तमाम तरह की कोशिशों से ख़त्म किया जा रहा था वह तो तीव्र और बहुत तीव्र होता जा रहा है. उस देश में जहां धार्मिक पर्यटन ख़त्म करने के लिए जजिया कर तक लगाए गए थे. अब ना सिर्फ पर्यटन बढ़ रहा है बल्कि बड़े स्तर पर कमाई का जरिया भी बन रहा है. उद्योग की शक्ल में.

गंगा पर क्रूज चलना सांस्कृतिक लिहाज से ही ऐतिहासिक पहल है

तो तमाम लिहाज से गंगा पर क्रूज की लंबी यात्रा की शुरुआत होना ऐतिहासिक पहल है. काश की यह बहुत पहले किया गया होता. शायद गंगा के पानी को थामने की जरूरत नहीं पड़ती. गंगा विलास क्रूज कोई अय्याशी का अड्डा नहीं है. बल्कि कारोबारी गति देने की अद्भुत कोशिश है और इसके जरिए गंगा के रास्ते बंगाल की खाड़ी तक एक बंद हो चुके चैनल को फिर से एक्टिव किया जा रहा है. यह चैनल आर्थिक लिहाज से उत्तर की लाइफलाइन था. तब तक जब तक कि कोलकाता राजधानी बनी रही. अंग्रेजों ने कोलकाता क्या छोड़ा, एक पूरा चैनल ही निष्क्रिय हो गया वक्त के साथ.

ये तो अच्छी बात है कि अब उस भूले बिसरे चैनल की याद आई है. शायद क्रूज की विशाल यात्राओं की वजह से नदियाँ हमारे फोकस में ज्यादा रहें. हमेशा निगरानी में रहें. बावजूद कि हममें से ज्यादातर उस क्रूज पर यात्री के रूप में सवार होने में सक्षम ना हों. पर उसके साक्षी और हिस्सेदार तो हैं ही. और क्रूज पर घुमाकर यूरोप ही पैसे क्यों कमाएगा. हमारे पास यूरोप से ज्यादा चीजें दिखाने को हैं. फिर हम क्यों ना कमाए? वाराणसी से शुरू हुई यह यात्रा 51 दिन लंबी है. इसमें 3,200 किमी की दूरी तय हो रही है. गंगा और उसकी तमाम सहायक नदियों से गुजरते हुए यात्रा का असम के डिब्रूगढ़ में पहुंचेगी. इस पूरी यात्रा में 50 बड़े केन्द्रों को फोकस किया गया है.

इनमें देश में पर्यटन के छोटे बड़े केंद्र हैं. और भारत दर्शन के लिहाज से 3200 किमी लंबी टूरिज्म यात्रा से बेहतर और क्या हो सकता है भला. भारत के बारे में भारत की संस्कृति के बारे में ज्यादा से ज्यादा लोग परिचित होंगे. क्रूज यात्रा की क्या भूमिका होगी शायद ही बताने की जरूरत पड़े. इसका असर बनारस से लेकर 3200 किमी तक हर जगह नजर आएगा. यह तो शुरुआत भर है. अड़चने आएंगी और भविष्य के लिहाज से जुसे दुरुस्त किया जाएगा. बावजूद कि गंगा या हमारी तमाम नदियों में अब उतना पानी नहीं रहा कि 12 महीने ऐसी लंबी यात्राएं लगातार हो सकें.

नदियों पर क्रूज चलना देश की अर्थव्यवस्था में एक क्रांतिकारी कदम हो सकता है

स्वाभाविक रूप से यह एक महंगी यात्रा है. क्रूज पर एक दिन का खर्च 25,000 से 50,000 रुपये है. एक यात्री के हिसाब से 51 दिन की पूरी यात्रा का खर्च 20 लाख रुपये के आसपास है. जाहिर सी बात है कि यह एक आम भारतीय के सामर्थ्य में नहीं है और क्रूज पर सवार ज्यादातर लोग विदेशी ही हैं. सांस्कृतिक पर्यटन के लिहाज से इससे बेहतर आइडिया और कुछ हो ही नहीं सकता था. भारतीय मूल्यों के प्रचार, रोजी रोजगार और अर्थव्यवस्था के मामले में दूर की कौड़ी है. परेशानियां आएंगी. आरोप लगेंगे, पर शुरुआत बेहतरीन है. क्रूज कहीं फंसा नहीं है. जैसा कि अखिलेश ने तंज कसा. गंगा के तमाम घाटों पर ऐसी व्यवस्था नहीं कि वहां एक बड़े क्रूज को किनारे लगाया जाए और लोग आवागमन करें. शायद वक्त के साथ चीजें और व्यवस्थित हों और एक ठोस कारोबार का विकल्प नदियों के सहारे निकलकर आए. जहां क्रूज फंसे होने की बात निकली असल में वहां से लोग एक ऐसे पर्यटन स्थल पर घूमने गए जिसकी बहुत चर्चा नहीं होती. ऐसे ढेरों पड़ाव क्रूज यात्रा में हैं. असर क्या होगा बताने की आवश्यकता नहीं. अब लोगों ने पहले सोचा नहीं तो यह उनकी गलती है. वे तंज तो कसेंगे ही. रही बात पहले शुरू ना करने की तो- वजह समझना मुश्किल नहीं है. कौन और कब फ़िक्रमंद रहा भारत के सांस्कृतिक पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए?

क्या किसी ने सोचा था कि देश में मोटरसाइकिल भी रोजगार का जरिया बन सकता है? आज की तारीख में लाखों लोग सिर्फ मोटरसाइकिल चलाने भर की क्षमता से रोजगार कर रहे हैं. लाखों परिवारों का घर परिवार चल रहा है. वे इन्हीं मोटरसाइकिलों पर रात रात दिन दिन मेहनत करके अपनी आने वाली पीढ़ियों को तैयार आर रहे हैं. एक बेहतर भविष्य तैयार कर रहे हैं. लेकिन 30 साल पहले जब लोगों के पास मोटरसाइकिल तक नहीं थे- भला कोई सोचता भी कैसे? मोटरसाइकिल लाने में भी आपने इतनी देर क्यों की? आज वही डिलीवरी और ट्रांसपोटेशन में जबरदस्त इस्तेमाल हो रहा है. लोगों का जीवन आसान बना है. फिर नवाचार से कैसा डर? बाकी विश्वनाथ आज की तारीख में ज्यादा सुरक्षित हैं और ज्यादा चमक रहे हैं. गंगा भी भारत की धमनियों में खून बनकर दौड़ती रहेंगी.

क्रूज से कई तरह के बदलाव नजर आएंगे. बेशक नदियों के प्रति तमाम आंदोलनों ने जो काम नहीं किया है- गंगा विलास क्रूज के जरिए बहुत सारी चीजें देखने को मिलेंगी. निश्चित ही.

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